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शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

जिन्‍दगी - सुमित कुमार IRTS, उप मुपरिप्र/माल


जिन्दगी

सुमित कुमार IRTS
जिन्‍दगीउप मुपरिप्र/माल
ऐ जिन्दगी
जरा ठहर जा कुछ देर को
जरा सांस तो ले लेने दे,
गिर के
टूट के
अभी तो उठा हूँ
जरा संभल तो जाऊं.
अभी तो बस
चार कदम ही चला हूँ
कुछ दूर और निकल जाए
जरा सब्र कर
अभी तो सफर बाकी है
अभी कुछ और पत्थर
कुछ और कांटे
जमा कर ले
और
मेरी राह में फेंक देना
अभी ठोकरें बहुत सी बाकी है,
अभी तो और भी गिरना है
फिर उठना है
चलना है
फिर गिरना है,
अभी बहुत कुछ है बाकी
सीखने को
समझने को
अभी परख भी बाकी है
अपने और पराये की
अभी बहुत जगह है
जिस्म पर
रूह पर,
जख्मों के लिए.
अभी तो चिंगारी को आग बनना है
अश्कों को सैलाब बनना है,
अभी तूफां से वास्ता पड़ता ही नहीं
अभी हाथों में है खंजर
पीठ में खड़ा ही नहीं
अभी देखा कहाँ है
फिजा बदलते हुए
शाम-ए-उम्मीद को ढलते हुए.
अभी ठहर जा
तू भी सांस ले ले
मंजिल अभी दूर है
अभी बहुत से मोड़ आएंगे
जाने कब
कहाँ
किस मोड़ पे बिछड़ जाए
कभी फिर न मिलने को
तरस जाए

फिर

साथ चलने को।