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शुक्रवार, 22 अप्रैल 2022

मितव्ययिता

 मितव्ययिता


मनुष्य जीवन भर कुछ न कुछ कमाता और व्यय करता है। अर्जित करना, कमाना मानव प्रवृत्ति है। फिर यह कमाई केवल द्रव्य हो, यह कहा नहीं जा सकता। कई बार व्यक्ति कठिन परिश्रम के बाद द्रव्य के स्थान पर अनुभव भी कमाता है। यह भी उसकी कमाई है। ऐसे ही धन के अतिरिक्त, संतोष, अनुभव, ईमानदारी और पुण्य आदि भी कमाए जा सकते हैं। जब व्यक्ति कमाता है, तो स्वाभाविक रूप से कमाई गई वस्तु खर्च भी होती है। मनुष्य कई बार मितव्ययिता के महत्व को किनारे रखकर आंखें मूंदकर खर्च करने लगता है। अधिक व्यय भी श्रेयस्कर नहीं होता। इससे पछतावा ही होता है।

हमें मितव्ययिता के महत्व को समझना चाहिए। वाणी की मितव्ययिता कई विवादों से बचाती है। ठीक इसी प्रकार धन की मितव्ययिता हमें भविष्य में आने वाले संकटों के भय से मुक्त करती है। यदि हम विवेकपूर्ण तरीके से धन का व्यय करते हैं, तो निश्चित ही यह हमारे लिए लाभदायक सिद्ध होता है। धन कमाना एवं उसका प्रबंधनपूर्वक व्यय करना ही बुद्धिमानी है। कई लोग ऐसे होते हैं जो जीवन भर धन कमाने के पश्चात भी अभावों में जीते हैं। दरिद्रता उन्हें घेरे रखती है। वे हमेशा चिंताग्रस्त रहते हैं। इसका केवल एकमात्र कारण है उनका खराब वित्तीय प्रबंधन। यदि वे मितव्ययिता के महत्व को समझ जाएं, तो फिर कभी परेशान नहीं रहेंगे।

कंजूस एवं मितव्ययी व्यक्ति में अंतर होता है। मितव्ययी को कंजूस की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। कंजूस जहां उपहास का पात्र होता है, तो दूसरी ओर मितव्ययी व्यक्ति को लोग सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। कंजूस व्यक्ति अपनी इच्छाओं को समाप्त कर देता है। वहीं मितव्ययी अपनी इच्छाओं को योजनाबद्ध रूप से पूरा करके प्रसन्न रहता है। हमारे पूर्वजों ने सदैव मितव्ययिता को प्रोत्साहित किया है। हमें भी अपने जीवन में मितव्ययिता को अंगीकार कर खुशहाली को आमंत्रण देना चाहिए। मितव्ययिता सुखद भविष्य का मार्ग प्रशस्त करती है। 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2022

उपकार

 उपकार


किसी संकट एवं कष्ट के समय हर क्षण हमारी जिह्वा पर प्रभु का नाम होता है। मन, कर्म एवं वचन से भी हमें उनके अनुनय-विनय की मुद्रा में ही रहते हैं। फिर एक दिन जब हम प्रभु की अनुकंपा से उन बुरे दिनों की चपेट से उबर जाते हैं तो उन्हें भूल " जाते हैं। इस प्रकार जन्म से लेकर आज तक हमारे ऊपर ईश्वर के ऐसे उपकारों का सिलसिला अनंत है। प्रभु के उपकार रूपी ॠण से उॠण होना हम मनुष्यों के लिए जीवनपर्यंत असंभव है। धन्य हैं वे करुणानिधान, जिन्होंने विशेष कृपा कर हमें बनाया। हाथ, कान, नाक, पाव, बुद्धि एवं घ्राण क्षमता सब कुछ कार्योपयोगी। यदि वह एकाध अंग-उपांग से अथवा अनेक जीवनोपयोगी शारीरिक क्षमताओं से वंचित कर विपरीत परिस्थितियों में जन्म दे देते तब भी हमें जीवन जीना ही पड़ता। तो क्या फिर हम अपनी शक्ति एवं सामर्थ्य पर इतना इतरा पाते ? " बिल्कुल नहीं। तब पल-पल संघर्ष एवं परिश्रम कर "सब कुछ झेलना ही होता।

प्रभु ने "समझ-बूझकर हम मनुष्यों को. जीवन की ये तमाम अनुकूलताएं दी होंगी। भगवान ने इतनी सुविधाएं दीं तो बदले में हमने क्या विलक्षण किया? वास्तव में ईश्वर ने हमें ये सारी अनुकूलताएं एवं सुविधाएं कुछ विशेष कार्य करने के लिए दी न कि केवल व्यर्थ में कुछ विशेष होने-समझने के लिए। समस्या यह है कि औरों के कल्याण एवं हित के लिए प्रभु-दरबार से अनुकंपा पर मिली वस्तुओं को हमने भूलवश नितांत अपना ही समझ लिया। इसलिए आनंद देने वाली उन सब वस्तुओं से भय, क्रोध, लालच, पीड़ा, ईर्ष्या, द्वेष एवं पीड़ा टपकने लगी। ईश्वर न्याय एवं पवित्रता के पक्षधर हैं, कुटिलता एवं अन्याय के नहीं। उसके उपकारों से हम उऋण तभी हो सकते हैं, जब पवित्रता से जीवन का क्षण-क्षण उसी उद्देश्य के लिए व्यय हो, जिसके लिए ऊपर वाले ने इसकी रचना की है। संसार एवं जीव-जगत के कल्याण मात्र से उसके उपकारों का ऋण चुकता हो सकता है।

सोमवार, 11 अप्रैल 2022

संकल्प शक्ति

 संकल्प शक्ति


संसार में प्रत्येक मनुष्य अपने-अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में प्रयासरत है। किसी का लक्ष्य बड़ा है तो किसी का लक्ष्य छोटा है। किंतु ऐसा कोई नहीं है जिसके जीवन का कोई भी लक्ष्य न हो तथा वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करना न चाहता हो । इनमें से कई मनुष्य लक्ष्य प्राप्त भी कर लेते हैं और कई मनुष्य अपने लक्ष्य से दूर ही रह जाते हैं। किसी भी लक्ष्य से को प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प का होना अति आवश्यक है। संकल्प की शक्ति राह में आने वाली बाधाओं से संघर्ष के दौरान हमें लड़ने का साहस प्रदान करती है। तब व्यक्ति या उसके प्रयास नहीं हारते, बल्कि बाधाएं हार जाती हैं। संकल्प शक्ति के अभाव में अधिकांश लोग अपने लक्ष्य को बीच राह छोड़कर बैठ जाते हैं। इसके उपरांत उनके पास पछतावे के सिवाय कुछ भी शेष नहीं रह जाता है।

वास्तव में हमारे संपूर्ण जीवन में ही संकल्प का अत्यंत महत्व है। योग और ध्यान अभ्यास के जरिये हम अपनी संकल्प शक्ति को बढ़ा सकते हैं। इसके बल पर हम अपने जीवन को सही दिशा दे सकते । किसी भी अच्छी आदत के निर्माण अथवा बुरी आदतों को त्यागने के लिए संकल्प बेहद शक्तिशाली माध्यम है। संकल्प दृढ़ता से मनुष्य अपने जीवन की कमियों को भी समाप्त करके अपना उत्थान कर सकता है। विख्यात पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा के पैर एक रेल दुर्घटना में बेकार हो गए थे। उसके बाद भी उन्होंने अपनी कमियों को नजरअंदाज करते हुए कृत्रिम पैरों से चलकर एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने में सफलता प्राप्त की। यह उनकी संकल्प शक्ति का ही प्रमाण है। इसी तरह दशरथ मांझी ने संकल्प शक्ति के बल पर अकेले ही पहाड़ को तोड़कर लंबे रास्ते को कम दूरी में तब्दील कर दिया।

अतः जब संकल्प दृढ़ होता है, तब प्रयासों में विफलता की आशंका समाप्त हो जाती है और हम अपने लक्ष्य या कार्य को निर्बाध रूप से पूर्ण कर लेते हैं। इसी प्रकार यदि हम भक्ति के मार्ग पर चलने का संकल्प लें तो ईश्वर को भी प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 9 अप्रैल 2022

संकलन******
******चैत्र नवमी पर विशेष
राम, रामचरितमानस और लोक मर्यादा
       रामचरित मानस अब तक या यूं कहें कि कि ‘‘न भूतो-न भ्विष्यति’’ की सबसे लोकप्रिय, हृदयग्राही, सुबोध व सुगम्य कृति है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। लोगों को आज भी यही मिसाल देते सुना जाता है – कि पुत्र हो तो राम सा। रावण, कैकेयी, मन्थरा, ताडका – पहले भी थे और आज भी हैं। इन नकारात्मक शक्तियों के दमन के लिए ही समय-समय पर राम रूपी आदर्श व लोक मर्यादित चरित्र को समाज के बीच स्थापित करने की आवश्यकता रहती है। परंतु इस रचना के पीछे ‘राम’ के मर्यादा पुरुषोत्तम वाले रूप को केन्द्र में रख मानव मात्र को यह संदेश देने का एक सफल प्रयास था कि – ‘‘जहां सुमति तहां संपति नाना, जहां कुमति तहां विपत्ति निदाना’’। देव, मानव, वानर व राक्षस जाति के उत्थान-पतन को चित्रित करती हुई यह कृति इसी भाव को उद्धृत करती है, सर्वोच्च मर्यादाओं की स्थापना क प्रयास करती है। जहां पिता के वचन के पालन हेतु पुत्र राजपाठ छोड़ वन गमन सहर्ष स्वीकार करता है, अपने भ्रातृ धर्म को निभाने लक्ष्मण अपनी पत्नी को घर में रख भाई के साथ वन जाते हैं, सीता अपने पति धर्म को निभाने राज ऐश्वर्य छोड़ वनों के कांटे स्वीकार करती है, भरत राज-काज राम की चरण पादुकाओं के आदेश पर चलाते हैं। विषम परिस्थितियों में भी राम हनुमान के लिए आदर्श स्वामी, प्रजा के लिए नीति-कुशल व न्यायप्रिय राजा तथा सुग्रीव व केवट के आदर्श मित्र रहे। आज हमारे टूटते संयुक्त परिवार में, भाई जहां भाई का दुश्मन बन गया है, पारिवारिक कलहों से बचने के लिए हम इस कृति से प्रेरणा ले  सकते हैं। राम केवल भारतवासियों या हिंदुओं के मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं, बल्कि मानवता के हैं। तुलसी की ‘रामचरितमानस’ का प्रेरणा स्त्रोत वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ थी, जिसका आरंभ ही एक शाप से होता है। जिस रचना का उद्देश्य मर्यादा व आदर्शों के प्रतीक राम का चरित्र प्रस्तुत करना हो, उसका ऐसा आरंभ अनायास नहीं। मर्यादा को खंडित करने वाला सर्वदा दंड का अधिकारी होता है। रामचरितमानस के विविध प्रसंग मर्यादा भंग के कुपरिणाम और उनकी पुनर्प्रतिष्ठा का प्रयत्न है, यह घोषित करने का एक सुअवसर है कि वे ही लोग, जातियां, समाज, देश व राष्ट्र पल्लवित व पुष्पित हुए हैं, जहां ‘सुमति’ यानी सद्भाव/ सकारात्मक सोच रही है। सती का शिव को प्रजापति दक्ष के यज्ञ में जाने का अनावश्यक आग्रह, मंथरा का षड्यंत्र, बाली-सुग्रीव वैमनस्य, शूर्पणखा का कामवश राम-लक्ष्मण से प्रणय निवेदन, रावण का परनारी हरण आदि ऐसे संदर्भ हैं, जो इस अकाट्य सत्य को उद्घाटित करते हैं कि मर्यादाओं का जब-जब हनन हुआ है, पूरे समाज व जाति को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। शायद यही नियति है कि सदा ही सत्य और असत्य, अच्छाई व बुराई तथा धर्म और अधर्म का निरंतर टकराव रहता है, यही टकराव मनुष्य के समक्ष आज भी है, केवल उसका रूप बदला है। इस मानव मात्र के सर्वोत्तम आदर्श हैं – राम! यह आम आदमी को बताया तुलसी की रामचरितमानस ने। जीवन का ऐसा कौन सा क्षेत्र है, जहां रामचरितमानस में वर्णित आदर्शों की आवश्यकता न पड़ती हो। एक सुसंस्कृत, सुशिक्षित व समृद्ध समाज की परिकल्पना है, ‘रामराज्य’, जिसके केन्द्र बिंदु हैं, ‘राम’! इसके मुरीद पूज्य बापू (महात्मा गांधी) भी थे, जो अपने जीवन काल में भारत में राम राज्य की पुनर्स्थापना चाहते थे। राम ‘‘अखिल लोक विश्राम हैं’’। आज भी हम अपनी लोक मर्यादा की भाषा में कहते हैं किः- आराम तो तभी आएगा जब ‘राम’ आएगा। राम ही वह अंतिम छोर है, जहां शांति की तलाश के लिए मानव जा सकता है। ‘‘जो आनंद सिंधु सुखरासि, सीकर तें त्रैलोक सुपासी, सब विधि सब पुर लोक सुखारी, रामचंद मुख चंदु निहारी’’। संतों का आदर करना व राम की विनयशीलता देखिए, धनुष भंग पर परशुराम के क्रोध पर राम कहते हैंः- ‘‘नाथ संभु धनु भंजनिहारा, होइहि कोऊ इक दास तुम्हारा’’ छमहू चूक अनजानत केरि, चहिअ विप्र उरकृपा घनेरी’’। राम के चरित्र को सब का हित करने वाले (चाहे मानव हो या पशु) के रूप में गोस्वामी जी ने उभारा है ‘‘जय सुर, विप्र, धेनु हितकारी, जय मद मोह कोह भ्रम हारी’’। एक आदर्श भाई के रूप में भरत के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करते हुए राम कहते हैंः- ‘‘भरत सरिस प्रिय को जग माहिं, इहईं सगुन फल दूसर नाहि’’। लोक मर्यादा कहती है कि प्रसन्नता में कभी वचन न दो और क्रोध में प्रण न करो। राजा दशरथ ने देवासुर संग्राम में कैकेयी द्वारा उनकी विपत्ति में की गई सहायता की खुशी में वचन दे दिए और जिसका दुष्परिणाम उन्हें राम के वनगमन के रूप में देखना पड़ा। किसी के जरा से भी किए गए एहसान को सज्जन कभी खाली नहीं रखते, बल्कि बदले में इतना लौटा देते हैं, जिसकी एहसान करने वाले ने कभी कल्पना भी न की हो। नाव उतराई के कवेट प्रसंग को ही लेंः-‘‘मनि मुंदरी मन मुदित उतारी, कहेऊ कृपाल लेऊ उतराई’’। राम एक ऐसे चरित्र के रूप में रामचरितमानस में चित्रित किए गए हैं, जिनके बिना जीने का आनंद नहीं। वह दीन, दुःखी व जरूरतमंदों के संबल हैंः- ‘‘हा रघुनंदन प्रान परीते, तुम्ह बिन जिअत बहुत दिन बीते, देखे बिनु रघुनाथ पद, जिय की जरनि न जाए’’। काम, क्रोध, लोभ, मोह से त्रस्त हृदयों के लिए राम रूपी शीतलता एक औषधि की तरह है। लंका विजय के समय भालू, बंदर आदि की सहायता लेना, इस बात का द्योतक है कि राम ने अपनी प्रभुता सिद्ध करने का नहीं, अपितु छोटे से छोटे जीव को भी साथ लेकर एक लक्ष्य को साधने का प्रयास किया, ताकि अधर्म व अन्याय रूपी रावण को समाज से हटाया जा सके व मानवीय मूल्यों की स्थापना हो। विभीषण ने भले ही अपने भाई को किसी कारण से त्यागा हो और जब वह शरण मांगने राम के पास गया तो उन्हें शत्रुपक्ष के इस व्यक्ति को शरणागति देने से रोका गया, परंतु राम ने किसी की परवाह न करते हुए अपनी विशालता व सद्हृदयता का परिचय दियाः- ‘‘जौं नर होई चराचर द्रोही, आवै सभय सरन तकि मोहि, तजि मद मोह कपट छल नाना, करहुं सद्य तेहि साधु समाना।’’ राम ने अपने सच्चरित्र से विभीषण को भी पारस बना दिया। सेवक को उचित सम्मान देने का महान गुण राम ने दिखाया। हनुमान मिलन पर रघुनाथ ने उन्हें हृदय से लगाया व लक्ष्मण से भी अधिक स्नेह दिया। रामचरितमानस में इन चरित्रों के माध्यम से जीवन दर्शन के संपूर्ण प्रश्नों के उत्तर प्राप्त हो जाते हैं। इन्हीं दर्शाए गए आदर्शों व मूल्यों का परिणाम है कि प्रतिदिन गांव-गांव, घर-घर, पंसारी की दुकान से लेकर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं तक राम नाम पर एक सी श्रद्धा है।       

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

आत्मनिर्भरता



    हमें अपना काम स्वयं ही करना चाहिए। किसी पर आश्रित रहना अच्छी बात नहीं। किसी के भरोसे रहने पर मन में संदेह बना रहता है। मन में संदेह .एवं चिंता उत्पन्न होना मानव जीवन के उत्थान में बाधक है। मनुष्य को परमात्मा ने दिमाग, हाथ, पैर किसी पर आश्रित रहने के लिए नहीं दिया है, बल्कि इनका उपयोग करके जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए दिया है। नहीं करने वाले के लिए हर काम कठिन एवं असंभव होता है और करने वाले के लिए हर कार्य सरल एवं संभव। किसी पर आश्रित होने का अर्थ है कि व्यक्ति आलसी, कामचोर और गैरजिम्मेदार है। ऐसा व्यक्ति कभी आत्मनिर्भर और आत्मविश्वासी नहीं बन सकता है। स्वयं पर भरोसा करना स्वयं के पैरों को मजबूत करना है। दूसरों पर आश्रित होना स्वयं के पैरों को कमजोर करना है।

    कर्मयोगी हर कार्य में सफल होता है, क्योंकि उसने चुनौतियों से लड़ना सीखा है। चुनौतियों से भागने वालों से हमें दूरी बनाकर रखनी चाहिए। ऐसे लोग धरती पर बोझ बनकर जीते हैं। यह जीवन कायरता का प्रदर्शन करने के लिए नहीं, बल्कि बहादुर, परिश्रमी, विवेकवान बनने के लिए मिला है। ऐसे व्यक्ति संसार में स्वयं का इतिहास रचते हैं और युग की धारा को मोड़ने में कारगर सिद्ध होते हैं। हर व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनना चाहिए। स्वयं की जिम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए। किसी के ऊपर बोझ नहीं बनना चाहिए। इसी में जीवन की गरिमा है और जीवन सार्थक सिद्ध होता है।.

    आलस जीवन में दरिद्रता लाता है। दरिद्रता मानव के जीवन के लिए अभिशाप है। संपन्नता ही जीवन का सौंदर्य है। परिश्रम से संपन्नता आती है। • सकारात्मक विचार के व्यक्ति किसी पर आश्रित नहीं रहते। वे स्वयं पर भरोसा करते हैं और अपना पथ स्वयं पुरुषार्थ से निर्मित करते हैं। याद रखें दूसरे के पैर से कभी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। एक चींटी भी अपने शरीर से ज्यादा बोझ लेकर आगे बढ़ती है।

बुधवार, 6 अप्रैल 2022

ग्लानि से मुक्ति



प्रगति पथ पर त्रुटियां होती ही हैं। ये आपके प्रयोग और प्रयासों को असफल सिद्ध कर देती हैं। संसार में कोई भी         व्यक्ति बिना त्रुटियों के सफल नहीं हुआ। त्रुटियों पर ग्लानि का नहीं, अपितु क्षणिक दुःख का भाव होना चाहिए। बस मान लीजिए कि मेरा एक और प्रयोग असफल हुआ, समय का कुछ अंश व्यर्थ हुआ। इसके उपरांत पुनः कर्म के लिए तत्पर हो जाना चाहिए। ग्लानि दलदल है तो दुःख पोखर। ग्लानि अपने दलदल में खींचकर मनुष्य को अशक्त कर देती है। स्वामी विवेकानंद ने उचित ही कहा है, 'स्वयं को निर्बल समझना सबसे बड़ा पाप है। यह विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम स्वयं को मजबूत बनाने आते हैं।' यह मानकर चलिए कि दुःख इस व्यायामशाला में मिलने वाले वो वजनी उपकरण हैं, जिन्हें उठाने का बार-बार अभ्यास करने पर हम और सुदृढ़ होते जाते हैं। ग्लानि तो तब होनी चाहिए जब कोई गलत कार्य या भ्रष्ट आचरण करें। श्रम और कर्म तो सराहनीय हैं। सदा वंदनीय हैं।

        किसी कार्य में मिली असफलता हमारी तुच्छता का प्रतीक नहीं है। असफलता तो प्रतीक है कि हमने स्वयं को कर्मपथ पर अग्रसर रखा। ग्लानि निर्बलता है। संकुचन है। यह भाव मात्र अपराधबोध भरने का काम करता है। ग्लानि की तुलना में दुःख विस्तार है। सहनशीलता है। शक्ति है, जो हमें अपने पोखर से निकलने की अंतःप्रेरणा देता रहता है। अज्ञेय ने कहा है कि दुख सभी को निखारता है।

    यदि मनुष्य के जीवन में दुःख का पदार्पण होता है, तो यह जीवन का अंत नहीं है, अपितु किसी नई ऋतु के आगमन का संकेत है। असफलता से उपजी पीड़ा पतंग में मांझे को नीचे की ओर खींचे जाने की प्रक्रिया है, जिससे प्रयासों की पतंग और ऊंची जा सके। जीवन में त्रुटियां होने पर निराश न होकर स्वयं को क्षमा कर देना चाहिए। जो बिगड़ गया, वह बिगड़ गया। अब आगे की राह देखनी चाहिए। अपने भीतर अंधकार रखकर चलेंगे तो एक प्रकाशित राजमार्ग भी अंधियारी सुरंग में परिवर्तित हो जाएगा।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2022

ईश्वर की प्राप्ति



    जड़ जगत की रचना के लिए ईश्वर की जो शक्ति काम करती है, उसे प्रकृति कहते हैं और चैतन्य जगत की रचना करने वाली शक्ति को जीव कहते हैं। जिस प्रकार दोनों हाथ एक ही शरीर के दो भाग हैं, उसी प्रकार जीव और प्रकृति दोनों ही ईश्वरतत्व के दो अंश हैं। अध्यात्म तत्व के जिज्ञासु जिस ईश्वर की उपासना करते हैं, असल में वह अखिल आद्यशक्ति का सतोगुणी अंश है। मानवीय उन्नति तो सत्व गुणों को प्राप्त करने से ही हो सकती है। इसलिए उन उच्च गुणों की एक मानसिक प्रतिमा बनाकर उपासना करने का विधान किया गया है।

    ईश्वर का सत्व गुण अदृश्य रूप से हमारे निकट ही वर्तमान है। उसे अधिक मात्रा में खींचकर अपने अंदर भर लेने के लिए प्रेम, श्रद्धा, विश्वास और ध्यान अभ्यास की आवश्यकता होती है। इन्हीं चारों के समन्वय को 'उपासना' कहा जाता है। उपासना जितनी ही प्रबल होगी, आकर्षण भी वैसा ही सशक्त होगा और उसी के अनुसार उपास्य देवतत्व की प्राप्ति होगी। प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, उदारता, त्याग, समता और न्याय आदि सद्गुणों का निष्ठापूर्वक जितना अधिक चिंतन किया जाता है, उतनी अधिक उनकी प्राप्ति होती है। उन्नति का क्रम तम से सत् की ओर चलना है। जिसने जितना ही सत्गुण अपने में धारण कर लिया, आध्यात्मिक दृष्टि से वह उतना ही उन्नतिशील कहा जाएगा।

    यदि एक भक्त सत् तत्व की उपासना करता है तो कोई कारण नहीं कि उसे वह प्राप्त न हो। ईश्वर की उपासना का तात्पर्य उसके दिव्य • तत्व की 'आराधना है। श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, जप-तप, ध्यान आदि से जीव को ईश्वरीय सत् तत्व में सराबोर किया जाता है। उस सराबोर होने में जो आनंदजन्य संपूर्णता आती है, उसे समाधि अवस्था कहते हैं। जीव जब ईश्वरीय सत्ता की सर्वोच्च श्रेणी सत्व अवस्था में सराबोर हो जाता है तो उसके आनंद की सीमा नहीं रहती। सत्व गुण की इसी परिपूर्णता को ईश्वर की प्राप्ति कहते हैं।

सोमवार, 4 अप्रैल 2022

नवरात्र का मंगल संदेश

नवरात्र वस्तुतः शक्ति उपासना का पर्व है। वर्ष में दो बार आकर यह पर्व सृष्टि के कण-कण में शक्ति का अहसास कराता है। न केवल यह जगत, वरन संपूर्ण ब्रह्मांड शक्ति से संचालित है। शक्ति के अभाव में शिव भी शव तुल्य हो जाता है। शरीर की समस्त इंद्रियां शक्ति केंद्रित हैं। इनकी शक्ति क्षीण होने पर पूरा शरीर मृत पिंड हो जाता है, क्योंकि शक्ति का अभाव ही मृत्यु है। इसलिए ऋतुओं के संधिकाल में दो बार आकर यह पर्व प्रकृति की उपासना और प्रकृति से जुड़ने का संदेश देता है।


चूंकि इस काल में रोग आने की संभावना अधिक रहती है। अतः यह पर्व सात्विक आहार विहार का पालन करते हुए शक्ति स्वरूपा मां की उपासना कर हर व्यक्ति को शक्ति अर्जित करने का सुअवसर प्रदान करता है। आसुरी एवं तामसी शक्तियों पर विजय प्राप्त करने वाली मां के विविध रूप तामसी वृत्तियों से दूर रहने का संदेश देते हैं। इसलिए दुर्व्यसनों से मुक्ति इस पर्व का महान संदेश है।

नवरात्र उपासना में घट स्थापन तथा जौ बोने का विशेष महत्व है। घट इस शरीर का प्रतीक है। शुद्ध जल और पत्र-पुष्पों से युक्त घट शरीर में जलतत्व की महत्ता और प्राकृतिक पर्यावरण को शुद्ध रखने का संदेश देता है। जौ बोना जहां हरित पर्यावरण का प्रतीक है, वहीं 'जो बोओगे वही काटोगे' का संदेश देकर मनुष्य को सत्कर्मों की ओर प्रेरित करता है। नवरात्र नारी महिमा और सम्मान का पर्व भी है। आसुरी शक्तियों का विनाश करने वाले दुर्गा के विविध रूप याद दिलाते हैं कि नारी अबला नहीं है। वह चाहे तो चंडी और काली बनकर जुल्म करने वाले महिषासुरों का स्वयं संहार कर सकती है। जहां विभिन्न मांगलिक अवसरों पर कन्या पूजन की परंपरा हो, वहां कन्या भ्रूण हत्याएं शोभा नहीं देतीं। अतः सच्चे अर्थों में शक्ति स्वरूपा नारी सम्मान को प्रतिष्ठापित करना नवरात्र महोत्सव का मंगल संदेश है।