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बुधवार, 6 अप्रैल 2022

ग्लानि से मुक्ति



प्रगति पथ पर त्रुटियां होती ही हैं। ये आपके प्रयोग और प्रयासों को असफल सिद्ध कर देती हैं। संसार में कोई भी         व्यक्ति बिना त्रुटियों के सफल नहीं हुआ। त्रुटियों पर ग्लानि का नहीं, अपितु क्षणिक दुःख का भाव होना चाहिए। बस मान लीजिए कि मेरा एक और प्रयोग असफल हुआ, समय का कुछ अंश व्यर्थ हुआ। इसके उपरांत पुनः कर्म के लिए तत्पर हो जाना चाहिए। ग्लानि दलदल है तो दुःख पोखर। ग्लानि अपने दलदल में खींचकर मनुष्य को अशक्त कर देती है। स्वामी विवेकानंद ने उचित ही कहा है, 'स्वयं को निर्बल समझना सबसे बड़ा पाप है। यह विश्व एक व्यायामशाला है, जहां हम स्वयं को मजबूत बनाने आते हैं।' यह मानकर चलिए कि दुःख इस व्यायामशाला में मिलने वाले वो वजनी उपकरण हैं, जिन्हें उठाने का बार-बार अभ्यास करने पर हम और सुदृढ़ होते जाते हैं। ग्लानि तो तब होनी चाहिए जब कोई गलत कार्य या भ्रष्ट आचरण करें। श्रम और कर्म तो सराहनीय हैं। सदा वंदनीय हैं।

        किसी कार्य में मिली असफलता हमारी तुच्छता का प्रतीक नहीं है। असफलता तो प्रतीक है कि हमने स्वयं को कर्मपथ पर अग्रसर रखा। ग्लानि निर्बलता है। संकुचन है। यह भाव मात्र अपराधबोध भरने का काम करता है। ग्लानि की तुलना में दुःख विस्तार है। सहनशीलता है। शक्ति है, जो हमें अपने पोखर से निकलने की अंतःप्रेरणा देता रहता है। अज्ञेय ने कहा है कि दुख सभी को निखारता है।

    यदि मनुष्य के जीवन में दुःख का पदार्पण होता है, तो यह जीवन का अंत नहीं है, अपितु किसी नई ऋतु के आगमन का संकेत है। असफलता से उपजी पीड़ा पतंग में मांझे को नीचे की ओर खींचे जाने की प्रक्रिया है, जिससे प्रयासों की पतंग और ऊंची जा सके। जीवन में त्रुटियां होने पर निराश न होकर स्वयं को क्षमा कर देना चाहिए। जो बिगड़ गया, वह बिगड़ गया। अब आगे की राह देखनी चाहिए। अपने भीतर अंधकार रखकर चलेंगे तो एक प्रकाशित राजमार्ग भी अंधियारी सुरंग में परिवर्तित हो जाएगा।

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