जड़ जगत की रचना के लिए ईश्वर की जो शक्ति काम करती है, उसे प्रकृति कहते हैं और चैतन्य जगत की रचना करने वाली शक्ति को जीव कहते हैं। जिस प्रकार दोनों हाथ एक ही शरीर के दो भाग हैं, उसी प्रकार जीव और प्रकृति दोनों ही ईश्वरतत्व के दो अंश हैं। अध्यात्म तत्व के जिज्ञासु जिस ईश्वर की उपासना करते हैं, असल में वह अखिल आद्यशक्ति का सतोगुणी अंश है। मानवीय उन्नति तो सत्व गुणों को प्राप्त करने से ही हो सकती है। इसलिए उन उच्च गुणों की एक मानसिक प्रतिमा बनाकर उपासना करने का विधान किया गया है।
ईश्वर का सत्व गुण अदृश्य रूप से हमारे निकट ही वर्तमान है। उसे अधिक मात्रा में खींचकर अपने अंदर भर लेने के लिए प्रेम, श्रद्धा, विश्वास और ध्यान अभ्यास की आवश्यकता होती है। इन्हीं चारों के समन्वय को 'उपासना' कहा जाता है। उपासना जितनी ही प्रबल होगी, आकर्षण भी वैसा ही सशक्त होगा और उसी के अनुसार उपास्य देवतत्व की प्राप्ति होगी। प्रेम, दया, करुणा, सहानुभूति, उदारता, त्याग, समता और न्याय आदि सद्गुणों का निष्ठापूर्वक जितना अधिक चिंतन किया जाता है, उतनी अधिक उनकी प्राप्ति होती है। उन्नति का क्रम तम से सत् की ओर चलना है। जिसने जितना ही सत्गुण अपने में धारण कर लिया, आध्यात्मिक दृष्टि से वह उतना ही उन्नतिशील कहा जाएगा।
यदि एक भक्त सत् तत्व की उपासना करता है तो कोई कारण नहीं कि उसे वह प्राप्त न हो। ईश्वर की उपासना का तात्पर्य उसके दिव्य • तत्व की 'आराधना है। श्रद्धा, विश्वास, प्रेम, जप-तप, ध्यान आदि से जीव को ईश्वरीय सत् तत्व में सराबोर किया जाता है। उस सराबोर होने में जो आनंदजन्य संपूर्णता आती है, उसे समाधि अवस्था कहते हैं। जीव जब ईश्वरीय सत्ता की सर्वोच्च श्रेणी सत्व अवस्था में सराबोर हो जाता है तो उसके आनंद की सीमा नहीं रहती। सत्व गुण की इसी परिपूर्णता को ईश्वर की प्राप्ति कहते हैं।
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