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सोमवार, 19 दिसंबर 2022

खुद को शांत करें

खुद को शांत करें


आज की भागमभाग दुनिया में कुछ लोग ठहर कर जीवन के बारे में विचार करने लगे हैं, आखिर हम भाग कहां रहे हैं? क्यों भाग रहे हैं? क्या भागना ही जीवन है? आज की गति देखकर भविष्य में गति की कल्पना करें तो डर सा लगता है। हालांकि अपनी गति को संतुलित करते हुए हम कठिन समय को भी खुशनुमा बना सकते हैं। हम वास्तव में जो चाहते हैं, उसे प्राप्त कर सकते हैं।

स्व-आलोचक पूछता है, 'क्या मैं बिल्कुल सही हूं?' पर खुद के प्रति करुणा रखने वाला पूछेगा, 'मेरे लिए क्या सही है?' स्वयं के प्रति उदार, करुणामय एवं प्रेम से ओतप्रोत होना जरूरी है। इस तरह स्वयं द्वारा स्वयं का साक्षात्कार ही अनेक उलझनों एवं समस्याओं से मुक्ति का प्रभावी मार्ग है। भगवान महावीर ने भी यही सिखाया - आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो। स्वयं सत्य को खोजो ।


गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं, 'आदमी जब दुखी होता है, तब मेरी भक्ति करता है। जब तक उसे कोई पीड़ा नहीं सताती, वह मुझे कभी याद नहीं करता।' आप आज जहां हैं, जाहिर है कि अपने काम करने एवं सोच के तरीकों के कारण हैं। आपका स्वास्थ्य, संपत्ति, रिश्ते और करियर वगैरह सब आपकी कार्यप्रणाली और निर्णयों का नतीजा हैं। ऐसे में प्रश्न यह है कि आप जहां हैं, क्या उस पड़ाव पर खुश हैं? अगर आप यूं ही अपना जीवन बिताते रहते हैं तो क्या नतीजों से आप खुद को संतुष्ट महसूस करेंगे? अगर उत्तर में किंतु, परंतु आता है तो कुछ बदलाव करने का वक्त आ गया है। इसमें कोई खराब बात भी नहीं है। हमें 'और' 'ज्यादा' की और आगे जाने की इच्छा बनी ही रहती है। इसलिए अपने जीवन को एक दिशा देने में अभी देर नहीं हुई है। अपनी इच्छाओं को संतुलित करें। जरूरत खुद को काबू में रखने की होती है, लेकिन हम दूसरों को काबू में करने में जुटे रहते हैं। तूफान को शांत करने की कोशिश छोड़ दें। खुद को शांत होने दें। तूफान तो गुजर ही जाता है।

रविवार, 18 दिसंबर 2022

कर्म की महत्ता

 कर्म की महत्ता


हनुमान जी जब माता सीता का पता लगाने लंका में गए तब रावण के पुत्र मेघनाद ने उन्हें पकड़ लिया। रावण हनुमान जी को मार डालना चाहता था, लेकिन विभीषण के कहने पर उसने उनकी पूंछ में आग लगाने का आदेश दिया। हालांकि हनुमान जी की पूंछ नहीं जली, बल्कि उनकी जलती पूंछ से भौतिकता की लंका खुद ही जल गई। इस दृष्टि से हनुमान जी की पूंछ का मतलब मनुष्य का अतीत में किया गया कार्य दृष्टिगोचर होता है। किसी व्यक्ति ने अपने अतीत में किस तरह का जीवन व्यतीत किया है, यह हमेशा उसके पृष्ठभाग (पीठ) पर अंकित रहता है। व्यक्ति का अतीत सदैव उसके साथ रहता है। मनुष्य यदि सात्विक और धर्मानुचरण जीवन जीता है तब उसके जीवन में लंका जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियां जलकर स्वतः खाक हो जाती हैं। सकारात्मक प्रवृत्तियां लुभावनी नकारात्मक प्रवृत्तियों के तेल और घी की चिकनाई में फिसलती नहीं। इसी तरह अहंकार की आग से व्यक्ति के अतीत में किए गए सकारात्मक प्रभावों को जलाया नहीं जा सकता।


हनुमान जी की इस कथा के निहितार्थ को समझ कर कोई व्यक्ति जीवन जीए तो उसे बड़े से बड़े लोग भी न भयभीत कर सकेंगे और न डिगा सकेंगे तथा शांति स्वरूपा सीता का आशीर्वाद उसे निरंतर मिलता रहेगा।, वह हनुमान जी की तरह अनंत आकाश में उड़ने लगेगा। तमाम महापुरुषों का जीवन उदाहरण के रूप में हमारे सामने है। आदि शंकराचार्य की ख्याति लगभग डेढ़ हजार वर्ष से छाई हुई है। गोस्वामी तुलसीदास छह सौ वर्ष से जीवित ही प्रतीत होते हैं। ऐसे तमाम महापुरुषों को काल मार नहीं सकता, बल्कि उनके आगे दंडवत करता ही दिखाई पड़ता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने जिस आत्मा के लिए कहा है कि उसे अस्त्र-शस्त्र से मारा नहीं जा सकता तथा अग्नि जला नहीं सकती, वह जीवन में किए गए कर्म ही होते हैं।

बुधवार, 14 दिसंबर 2022

समय की महत्ता

 समय की महत्ता

समय एक अमूल्य धन है। समय की कीमत किसी भी संपदा से कहीं अधिक होती है। धन आज है, लेकिन कल नष्ट भी हो सकता है। बाद में वापस भी आ सकता है, किंतु जो समय व्यतीत हो गया, वह कभी वापस नहीं आता। समय जब बीत जाता है, तब हमें उसके महत्व का अहसास होता है। जब समय का दुरुपयोग किया जाता है, तब दुख और दरिद्रता के अलावां कुछ प्राप्त नहीं होता है। जो व्यक्ति समय का सदुपयोग कर लेता है, वह . धनवान, बुद्धिमान और बलवान बन सकता है। जो व्यक्ति अपने जीवन को समय के अनुरूप अनुशासन में बांध देता है तथा समय का महत्व सीख जाता है, वह जीवन में सफलता अवश्य • प्राप्त करता है।

कहते हैं कि 'समय बड़ा बलवान' अर्थात समय के आगे किसी की नहीं चलती। समय जो चाहता है, वैसा करा लेता है। समय व्यक्ति को राजा से रंक तथा रंक से राजा बना सकता है। इसीलिए कभी किसी को अपनी सफलता पर घमंड नहीं करना चाहिए। हर व्यक्ति के जीवन में अच्छा और बुरा समय अवश्य आता है। इसलिए व्यक्ति को अच्छे समय में कभी इतराना नहीं चाहिए। इससे बुरे समय में लोग आपका उपहास उड़ा सकते हैं। वहीं, अपने बुरे समय में कभी विचलित नहीं होना चाहिए, क्योंकि बुरे वक्त की भी एक अच्छी बात यही है कि वह भी व्यतीत हो जाता है।

वास्तव में, समय ईश्वर का सबसे बड़ा उपहार है। इस उपहार का हमें सदुपयोग करना चाहिए। हमें चाहिए कि जिन कार्यों की हम समय सीमा. निर्धारित कर सकते हैं, वह अवश्य करें, क्योंकि ऐसा करने से हम अपने कार्यों पर नियंत्रण रख सकते हैं। यदि आप समय को व्यर्थ करते हैं तो समय आपको बर्बाद कर देगा। समय पर किया गया कार्य सदैव सार्थक होता है। अतः जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए परिश्रम और समय की महत्ता को सदैव समझना चाहिए।

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2022

Madhur vaani. मधुर वाणी

 मधुर वाणी

जीवन में संयमित और मधुर वाणी का बड़ा महत्व है। हमारी वाणी ही हमारे व्यक्तित्व और आचरण का परिचय कराती है। वाणी में कड़वापन है तो सुनते ही सामने वाला आग-बबूला हो जाए और यदि वाणी में शालीनता है, तो सुनने वाला प्रशंसक बन जाए। दुनिया को मुट्ठी में करने का सूत्र है वाणी में माधुर्य और मिठास । अगर वाणी है. मधुर है तो सारी दुनिया हमें मित्र दृष्टि से देखेगी। मधुर बोलने वाला समाज में आदरणीय होता है। उसका है।


एक-एक शब्द सुनने वाले के मन को लुभाता संसार में वाणी से बढ़कर कोई प्रभावी शक्ति नहीं है। ऐसी शक्ति का उपयोग प्रत्येक व्यक्ति को सोच-समझकर करना चाहिए। अक्सर मधुर वाणी से ऐसा काम भी बन जाता है, जिसके बनने के कोई आसार न दिख रहे हों। वहीं, जो व्यक्ति वाणी . में कड़वापन रखता है, उसके बनते काम भी बिगड़ जाते हैं। इसलिए यदि कार्य सिद्ध करने हैं और रिश्ते निभाने हैं तो वाणी में मधुरता का अभ्यास करना चाहिए। जो भाषा कठोर एंव किसी व्यक्ति को गहन पीड़ा पहुंचाने वाली हो, यदि वह सत्य भी है तब भी नहीं बोलनी चाहिए। अगर जीवन को सुखी बनाना है तो संयमित वाणी बोलना आवश्यक है। एक कहावत भी है-एक चुप सौ सुख ।'


वस्तुतः, मनुष्य की वाणी एक अमूल्य आभूषण है। इसके अनर्गल प्रयोग से व्यक्ति के व्यक्तित्व की आभा फीकी पड़ती जाती है। इसलिए जीवन में वाणी के संयम का बहुत महत्व है। वाणी की शक्ति मानव को ईश्वर का दिया अनुपम उपहार है, परंतु मनुष्य की देह की अन्य क्षमताओं की भांति इस पर ' भी संयम रखना आवश्यक है। वाणी संयम के अभाव में इसका उपयोग अनियंत्रित हो जाता है और यह कई मुश्किलों का कारण बन जाता है। यह द्रौपदी के कटुवचन ही थे, जो दुर्योधन के अंतःकरण में शूल से जा गड़े, जिसकी परिणति महाभारत के रूप में सामने आई। यह एक बड़ा सबक है कि हमें वाणी पर संयम रखना चाहिए।

बुधवार, 7 दिसंबर 2022

राजभाषा समीक्षा बैठक , परिचालन विभाग , पूर्वोत्‍तर रेलवे

 राजभाषा समीक्षा बैठक , परिचालन विभाग , पूर्वोत्‍तर रेलवे 


गोरखपुर दि0 06.12.2022 को पूर्वोत्‍तर रेलवे के मुख्‍य राजभाषा अधिकारी एवं प्रमुख मुख्‍य  परिचालन प्रबन्‍धक श्री संजय त्रिपाठी की अध्‍यक्षता में परिचालन विभाग की कैलेण्‍डर वर्ष 2021-22 की दूसरी राजभाषा समीक्षा बैठक आपदा प्रबंधन कक्ष में 13.00 बजे आयोजित हुई। बैठक में अध्‍यक्षीय सम्‍बोधन में उन्‍होने कहा कि नियमित रूप से राजभाषा समीक्षा बैठक आयोजित की जाय। उन्‍होने आगे कहा कि हिन्‍दी में कार्य करने हेतु आत्‍मबल की आवश्‍यकता है यह हमारे लिए गर्व की बात है कि जो हमारी मातृ भाषा है वही हमारी राजभाषा है,  हमें हिन्‍दी में कार्य करने में किसी बात की परेशानी नही महसूस करनी चाहिए। परिचालन विभाग की  ई-पत्रिका में नियमित रूप से पोस्‍ट अपलोड की जाय। विभाग के सभी कार्य ई-आफिस पर यूनिकोड में काम करने का प्रावधान है। अब प्रयोक्‍ता हिन्‍दी टाइपिंग सीखे बिना भी फोनेटिक की बोर्ड से हिन्दी में काम कर सकता है। बैठक में उपस्थित मुख्‍य यात्री परिवहन प्रबन्‍धक श्री आलोक कुमार सिंह ने बताया कि कुछ कार्य जो अंग्रेजी भाषा में प्रयोग करना व्‍यवहारिक लगता है वह भी एक निश्चित समय के बाद हिन्‍दी में करना व्‍यवहारिक लगने लगेगा साथ ही एक रजिस्‍टर बनाकर हिन्‍दी में आने जाने वाले पत्रों का विवरण रखने का सुझाव भी दिये। 

इसके पूर्व बैठक मे शामिल सभी अधिकारियों एवं पर्यवेक्षकीय कर्मचारियों का स्‍वागत करते हुए परिचालन विभाग के राजभाषा संपर्क अधिकारी एवं उप मुख्‍य परिचालन प्रबन्‍धक/माल श्री सुमित कुमार ने कहा कि अधिकांश कार्य हिन्‍दी में किये जा रहे है। हम राजभाषा विषयक वार्षिक कार्यक्रम 2022-23 में दिये गये निर्धारित लक्ष्‍य का अनुपालन कर रहे है। इन्‍होने निरीक्षण के दौरान राजभाषा सम्‍बन्‍धी निरीक्षण से सम्‍बन्धित चेकलिस्‍ट को भी अनिवार्य रूप से भरने का सुझाव भी दिये।

इस समीक्षा बैठक का संचालन करते हुए वरिष्‍ठ राजभाषा अनुवादक श्री श्‍याम बाबू शर्मा ने पिछली बैठक के निर्णय और निर्धारित मदो के अनुपालन स्थिति पर विस्‍तृत जानकारी दी। साथ ही ई-आफिस पर नोटिंग हिन्‍दी में प्रस्‍तुत करने पर प्रस्‍तुति दी। नोटिंग यूनिकोड में भेजने को कहा ताकि वह आगे किसी अधिकारी के ई-आफिस पर उसका फान्‍ट बदल न जाय। बैठक में राजभाषा अधिकारी श्री मु0 अरशद मिर्जा ने परिचालन विभाग की राजभाषा प्रयोग की स्थिति पर संतोष भी प्रकट किया। इस बैठक में धन्‍यवाद ज्ञापन सचिव/प्रमुख मुख्‍य परिचालन प्रबन्‍धक  श्री मनोज आनन्‍द सिंह ने किया। इस अवसर पर परिचालन विभाग के सभी अधिकारी एवं सभी अनुभाग के कार्यालय अधीक्षक उपस्थित रहे।







 

सोमवार, 5 दिसंबर 2022

अन्तर्विभागीय फुटबाल प्रतियोगिता - 2022 /पूर्वोत्तर रेलवे ,लखनऊ मंडल


 अन्तर्विभागीय फुटबाल  प्रतियोगिता - 2022 /पूर्वोत्तर रेलवे ,लखनऊ मंडल - (विजेता - यांत्रिक विभाग , उप विजेता - परिचालन विभाग )

रविवार, 4 दिसंबर 2022

साइबरठगी।

 साइबर ठगी


        प्राचीन ग्रंथों में तीन प्रकार की एष्णाएं (इच्छाएं) मानव स्वभाव में अंतर्निहित बताई गई हैं- पुत्रेष्णा, वित्तेष्णा और लोकेष्णा लोकेष्णा यानी लोक में मान सम्मान, प्रशंसा पाने की इच्छा। इन एष्णाओं की पूर्ति जब पुरुषार्थ के माध्यम से हो तो जीवन संवर जाता है, किंतु जब एष्णा लोभ का स्वरूप ग्रहण कर ले तो वही होता है जो शिक्षक व धार्मिक विषयों के यू-ट्यूबर लखनऊ के सैमुअल सिंह के साथ हुआ। सैमुअल साइबर संसार में ठगी का शिकार हो गए। जब वह डेढ़ करोड़ रुपये ठगों के हाथ गंवा बैठे तब पुलिस की सहायता ली। सैमुअल ईसाई समुदाय से संबंधित धार्मिक आयोजनों व धर्मोपदेश • संबंधी वीडियो यूट्यूब पर अपलोड करते हैं। अगस्त में एक व्यक्ति ने फोन कर बताया कि वह बिल्टन से जान स्पेंसर बोल रहे हैं। उनके वीडियो से प्रभावित होकर पोलैंड के एक सज्जन ने उन्हें पार्सल भेजा है जिसमें हीरेजड़ित घड़ी, स्वर्णाभूषण और कुछ हजार पौंड हैं। सैमुअल यहीं एक साथ लोकेष्णा और वित्तेष्णा के शिकार हो गए। विभिन्न टैक्स और ड्यूटी के नाम पर कई बार में जब उनसे डेढ़ करोड़ रुपये खाते में ट्रांसफर करा लिए गए तब पुलिस की शरण ली। • सैमुअल अकेले व्यक्ति नहीं हैं। हाल के ही दिनों में अनेक उदाहरण सामने आए जिनमें ऐसे ही लोग लोभवश साइबर ठगों के जाल में फंसते चले गए। कुछ दिन पहले एक सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी भी करीब सवा करोड़ गंवा बैठे थे। पुलिस की सतर्कता से उनका करीब 80 लाख रुपया तो वापस मिल गया, लेकिन भविष्य के लिए सुरक्षित शेष धनराशि ठग पार कर चुके थे। साइबर ठगी का जाल इतना विस्तृत और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संचालित है कि समय पर न चेते तो रकम वापसी मुश्किल हो जाती है। 

        इतिहास का कोई भी कालखंड ऐसा नहीं रहा जिसमें ठगी प्रथा अलग-अलग रूपों में अस्तित्व में न रही हो । विधिक सख्ती से कमी जरूर आती है, लेकिन साइबर ठगी से बचाव का उपाय मात्र एक ही है - लालच पर अंकुश। यह लालच चाहे प्रशंसा का हो या प्रभाव के झूठे महिमागान का। जागरूकता और मानवीय कमजोरियों पर संस्कारों का पहरा ही लालच में फंसने से रोक सकता है।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

हमारी मातृभाषा हिंदी

 हमारी मातृभाषा हिंदी

एक हिंदीभाषी होने के नाते मुझे इस बात पर गर्व होता है कि हिंदी भारत की सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषा है, यह भाषा 52 करोड़ व्यक्तियों की प्रथम भाषा है ।  हिंदी साहित्य को जन-जन की भाषा बनाने में सभी साहित्यकारों का अमूल्य योगदान रहा है । भारतेन्दु  हरिश्चंद्र जी ,रविंद्र नाथ टैगोर जी ,मुंशी प्रेमचंद  जी ,राष्ट्रकवि दिनकर जी, सेठ गोविन्ददास ,हरिवंश राय बच्चन जी, नीरज जी ,कवि प्रदीप और दुष्यन्त कुमार जी और अन्य बहुत ही साहित्यकार है ।भारत शुरू से एक बहुसंख्यक सभ्यता  वाला राष्ट्र रहा है। भारत की उत्पत्ति जितनी पुरानी है उतनी ही पुरानी है। भारत की सभ्यता, संस्कृति और यहाँ  का साहित्य भी !       अगर गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण को हिंदी में नहीं लिखा होता तो क्या रामायण जन- जन के द्वारा इतनी पढ़ी जाती और खासकर उन राज्यों में जहां की मुख्य भाषा हिंदी है, अवधी है ,भोजपुरी है ।कुछ प्रमुख नाम जिनकी वजह से हिंदी जन-जन के दिलों में उतर पायी है :-

सेठ गोविन्ददास : हिंदी के प्रसार के साथ इसे राजभाषा के प्रतिष्ठित पद पर सुशोभित करवाने में सेठ गोविन्ददास की अविस्मरणीय भूमिका रही है। ये उच्चकोटि के साहित्यकार थे ,आपकी नाट्यकृतियों से हिंदी साहित्य मोहक रूप में समृद्ध हुआ है। उन्होंने जबलपुर से शारदा, लोकमत तथा जयहिन्द पत्रों की शुरूआत कर जन-मन में हिंदी के प्रति प्रेम जगाने और साहित्यिक परिवेश बनाने का अनुप्रेरक प्रयास किया है।

मुंशी प्रेमचंद्र जी ने जिस तरीके से ग्रामीण सभ्यता को भारतीय समाज को हिंदी की कहानियों में गढ़ा  उसे परिभाषित किया ,उनके इस प्रयास से हिंदी अपने दायरे को और फैला पायी  और ज्यादा लोगों तक पहुँच पायी है।

रवीन्द्र नाथ  टैगोर जी ने राष्ट्रीय गान को हिंदी में लिखकर हिंदी को लोगों की जुबां पर लाकर ठहरा दिया। दुनियाँ  में जहां भी भारत का राष्ट्रीय  गान गाया जाता है वहाँ  हिंदी का प्रचार- प्रसार होता है। वहाँ  पर सभी का हिंदी से अथाह प्रेम बढ़ जाता है।

 राष्ट्रकवि  दिनकर जी की लिखी रश्मिरथी और आपातकाल के दौर में लिखी उनकी कविताएं और खासकर सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, इस कविता ने भारत में क्रांति ला दी और मोरारजी देसाई जी ने महाराष्ट्र की एक सभा में उनकी कविताओं की जब कुछ चंद लाइनें पढ़ी  थी तो जनता ने हिंदी की इस कविता का जोरदार स्वागत किया था। दिनकर जी की इस कविता ने उस वक्त की इंदिरा गांधी और कांग्रेस की सरकार गिराने में एक अहम भूमिका निभाई थी ।

हरिवंश राय बच्चन जी ने जिस तरीके से एक आम भाषा में एक जन भाषा में कविताओं को लिखा उससे हिंदी की कविता की लोकप्रियता और बढी  हिंदी और अधिक लोगों तक पहुँची।

 नीरज जी के लिखे हुए गीत आज भी हिंदी प्रचार प्रसार में अपनी एक अहम भूमिका निभा रहे हैं हिंदी को जन - जन तक पहुँचा रहे हैं।

दुष्यंत कुमार जी की लिखी हुई कविताएं जो सत्ता और समाज की हकीकत बयां करती हैं वह कविताएं आज भी युवा दिलों में अपनी एक खास जगह बनाए हुए हैं। 

 कवि प्रदीप जी की कविताओं और गीतों को कौन भुला सकता है।

"मेरे वतन के लोगों से लेकर देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान।"

 जैसे गीतों ने जहाँ एक तरफ समाज की हकीकत को लिखा बताया वहीं दूसरी तरफ हिंदी के प्रचार -प्रसार में अपनी एक अलग भूमिका निभाई ,आज भी जब स्वतंत्रता दिवस आता है आज भी  जब गणतंत्र दिवस आता है  तब लोगों को ए मेरे वतन के गीत गुनगुनाते सुनते हुए देखा जा सकता है ।उनके लिखे यह गीत आज भी जन- जन के दिल में हिंदी की अलख  जगाते  हैं।

 हिंदी के लिए अटूट काम महात्मा गांधी जी ने भी किया हिंदी  भारत की मातृभाषा बने यह महात्मा गांधी भी चाहते थे ।एक बार सन् 1917 में गुजरात प्रदेश के भड़ौच गुजरात शिक्षा परिषद् के अधिवेशन में उन्होंने अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाने का  विरोध किया, और हिन्दी के महत्त्व पर मुक्तकंठ से चर्चा की थी-

राष्ट्र की भाषा अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाना देश में ‘एैसपेरेण्टों’ को दाखिल करना है। अंग्रेजी को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कल्पना हमारी निर्बलता की निशानी है।“

एक हिंदीभाषी होने के नाते मैं चाहता हूं कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा  बने लेकिन यह  भाषा भारत की मातृभाषा संवैधानिक रूप से नहीं जन-जन की स्वीकृति से बने जन-जन  के मुख से बने सभी दिलों में जगह पाकर बने जिसके लिए हमें अभी बहुत मेहनत करनी है क्योंकि भारत -भारत से बहुत जुदा है और हमारी एकता ही हमारी सबसे बड़ी एकता है जो हमें दुनियाँ में सबसे अलग बताती है जो दुनियाँ  में हमें सबसे खास बनाती है।


 क्षेत्रीय रेल प्रशिक्षण संस्‍थान, पूर्वोत्‍तर रेलवे, गाजीपुर


दिनांक 29.11.2022 को संस्‍थान में संरक्षा क्विज़़ का आयोजन किया गया।सफल प्रशिक्षणार्थियों को प्रधानाचार्य प्रभारी श्री एस.के.राय द्वारा पुरस्‍कृत किया गया।








बुधवार, 30 नवंबर 2022

इतिहास के झरोखे से:शिल्हौरी

 शिल्हौरी 

बिहार में मढ़ौरा अनुमंडलीय मुख्यालय से करीब एक किमी दूर छपरा-मढ़ौरा मुख्यमार्ग से सटे शिल्हौरी गांव में बाबा भोलेनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है।

इस मंदिर के इतिहास से पौराणिक प्रसंग जुड़ा है। मान्यता है कि देवर्षि नारद को अपनी तपस्या पर अहंकार हो गया। उनके अभिमान भंग करने के लिए भगवान विष्णु की माया से बसे नगर में राजा शिलनिधि की पुत्री विश्वमोहिनी का स्वयंवर रचा गया था। विश्वमोहिनी के हस्तरेखा के अनुसार उसका वर तीनों लोक का स्वामी होगा। उसके सौंदर्य व तीनों लोक के स्वामी होने की बात से देवर्षि नारद विचलित हो गए। उन्होंने उसमें शामिल होने का मन बना लिया। विष्णु से हरि रूप यानि भगवान के आकर्षक मुखमंडल की मांग की। इसके बाद स्वयंवर में शामिल होने गए। 

लेकिन वहां तिरस्कृत हो गए। तब कुएं में झांक कर देखा। वे अपनी शक्ल वानर जैसी देखकर कुपित हो गए। वहीं विश्वमोहिनी को लक्ष्मी व वर को विष्णु पाते ही आक्रोशित हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु को शाप दिया कि त्रेता युग में पत्नी के वियोग में भटकने पर वानर ही आपकी सहायता करेंगे। देवताओं द्वारा सत्य से अवगत कराने पर उनका मोह भंग गया और वे शांत हो गए।



मंगलवार, 29 नवंबर 2022

ईर्ष्या की भावना



ईर्ष्या की भावना

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि ऊंच निवास नीचि करतूती । देखि न सकहिं पराइ बिभूती ॥ अर्थात मानव स्वभाव में जलन की भावना का उत्पन्न होना गलत है। जलन को दूसरे शब्दों में ईर्ष्या कहा जाता है। जलन का स्वभाव अग्नितुल्य है। जैसे अग्नि अपने समीप में आई वस्तु को जलाकर राख बना देती है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या मानव की बुद्धि को नष्ट कर देती है। जिस प्रकार कचरा किसी स्थान को दुर्गंधित करता है, उसी प्रकार ईर्ष्या मनुष्य के जीवन को दुर्गंधित कर देती है। इससे उसके जीवन का विकास रुक जाता है।


अक्सर किसी मनुष्य के अंदर जलन की भावना पद-प्रतिष्ठा एवं कर्म को लेकर पनपती है। दूसरे की प्रगति को देख नहीं सकना जलन की भावना है। ऐसे लोग हमेशा दुखी रहते हैं। यही नकारात्मक सोच उनके पतन का कराण बनता है। जबकि मनुष्य को दूसरों की प्रगति को देखकर प्रसन्न होना चाहिए। दूसरे के दुख को अपना मानकर उसमें शामिल होना चाहिए। दूसरे की खुशी में स्वयं की खुशी देखनी चाहिए। अपमान में अपना अपमान देखना चाहिए। सम्मान में अपना सम्मान देखना चाहिए। यही आदर्शमय मानवीय गुण है। आज अधिकांश मनुष्य के जीवन में साधन भरे हैं, पर साधना का अभाव है। इस कारण उनके संयम का बांध टूट रहा है और जीवन में उचित-अनुचित का बोध कम हो रहा है। यही छोटी-बड़ी भूलें मनुष्य को पतन की ओर ले जा रही हैं। जैसे एक छिद्र घट के पानी को बाहर निकालकर खाली कर देता है।


साधक प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराता नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे जीवन जीता है। इससे उसे ईश्वर का संबल मिला है। लिहाजा उसकी आध्यात्मिक शक्ति मजबूत होती है। यह शक्ति उसको जीवन में आगे बढ़ने में मदद करती है। याद रखें, अच्छे गुण-कर्म, स्वभाव ही एक व्यक्ति की सबसे बड़ी विभूति हैं। घर-द्वार का ठाट-बाट तो नश्वर है। इस पर घमंड करना ठीक नहीं है ।

गुरुवार, 24 नवंबर 2022

Safal jeevan सफल जीवन

 सफल जीवन


मनुष्य यही चाहता है कि वह अपने क्षेत्र में सफलता के सर्वोच्च सोपान तक पहुंचे। मनुष्य के अंतस से एक ही स्वर फूटता है-सफलता। उसके रोम-रोम में एक ही रागिनी बजती है सफलता । उसकी जीवन वीणा के तारों से एक ही गूंज सुनाई पड़ती है सफलता । सफलता की ऐसी आकांक्षा जितनी सहज है, उतना ही कठिन होता है उसे प्राप्त करना। असफलताओं की कई नदियों से गुजरने के बाद ही हम सफलता के सागर से एकाकार हो पाते हैं। स्वामी विवेकानंद ने यथार्थ ही कहा है, 'असफलताएं कभी-कभी सफलता का आधार होती हैं। यदि हम कई बार भी असफल हो जाएं तो कोई बात नहीं। प्रयत्न करके असफल हो जाने की अपेक्षा प्रयत्न न करना अधिक अपमानजनक है।'


असफलता, सफलता का सबसे निकटतम बिंदु होता है, किंतु अधिकांश लोग उसे यह कहकर ठुकरा देते हैं कि आप एक बार और गिर गए हैं। असफलता, सफलता की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। यह सामान्य है कि असफल होने पर व्यक्ति निराश एवं हताश हो जाता है, लेकिन यह निराशा क्षणभंगुर होती है। यदि आप उस असफलता का कारण ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे तो आप अपनी कमियों को पहचान पाएंगे, त्रुटियों को सुधार कर दोबारा प्रयास कर पाएंगे। इस संदर्भ में आचार्य विनोबा भावे ने कहा है, 'लगातार सफलता हमें संसार का पक्ष दिखाती है। विफलताएं उस चित्र का दूसरा पक्ष भी दर्शाती हैं। '


इसीलिए जब भी लक्ष्य तय करें, उसके लिए उत्साही होना होगा। असफलताओं के नकारात्मक प्रभाव से बचना होगा। लक्ष्य प्राप्ति में कितना समय लग रहा है, उससे विचलित नहीं होना है। हमे अपने जीवन में लक्ष्यों को ऐसे निर्धारित करना चाहिए कि एक लक्ष्य पूरा हो जाए तो फिर रुकना या थकना भी नहीं है। फिर अगले लक्ष्य की पूर्ति में जुट जाना है, क्योंकि सदैव आगे बढ़ते रहने में ही जीवन की सार्थकता निहित है।

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

अहंकार के परिणाम

 अहंकार के परिणाम


अहंकार व्यक्ति के लिए घातक मानसिक रोग है। अहंकार-ग्रस्त व्यक्ति खुद की श्रेष्ठता, महत्ता एवं विशिष्टता के आगे हरेक को बहुत छोटा और हेय मानता है। अहंकार में उलटे-सीधे काम भी हो जाते हैं जो किसी न किसी दिन कष्टकारक बनते हैं। धार्मिक ग्रंथों में ऐसे अनेक अहंकारी पात्रों का उल्लेख मिलता है, जिनका सर्वस्व अहंकार के मानसिक-यज्ञ में भस्म हो गया। उदाहरण के.. रूप में रावण, बाली, कंस और दुर्योधन आदि ऐसे प्रचलित पात्र हैं, जिनके बारे में सभी जानते हैं कि • उनके विनाश का कारण उनका अहंकार ही मन में अहंकार - भाव उत्पन्न होने के कई कारण रहा है। होते हैं। व्यक्ति अपने रूप-रंग तथा सौंदर्य से दंभी हो सकता है या ज्ञान से या भौतिक संपत्ति से अहंकारी हो जाता है। जबकि ये सारे भाव या पदार्थ क्षणभंगुर होते हैं। अहंकारी व्यक्ति के इर्द-गिर्द स्वार्थी और चापलूस लोगों का घेरा भी बन जाता है। ऐसे लोग झूठी प्रशंसा करके अहंकारी व्यक्ति के अंदर अहंकार की अग्नि निरंतर भभकांते रहते हैं। यह कृत्रिम अग्नि जब रक्त में प्रवाहित होने लगती है तब शरीर संचालन के लिए शरीर के रक्त-रसायन में व्याप्त अग्नि तत्व को वह निष्प्रभावी करती है। जिस प्रकार कूड़े-करकट की अग्नि पर खाद्य पदार्थ नहीं पकाए जाते, उसी प्रकार अहंकार की उत्तेजना कूड़े-करकट वाली आग होती है। इससे शरीर के अग्नि तत्व में विकृतियां उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति बीमार होता है। उसके शरीर का लचीलापन कम होता है।


• चिकित्सकों के अनुसार शरीर की तंत्रिका प्रणाली में जितना लचीलापन होगा, उतना ही शरीर प्राकृतिक ऊर्जा को ग्रहण कर सकेगा। इसलिए ऋषियों ने विनम्रता की प्रशंसा और अहंकार की निंदा की है। लोगों को चाहिए कि वे देव-पुरुषों के जीवन से प्रेरणा लेकर खुद समाज में सम्माननीय बनें तथा आसपास अपने सदाचरण की सुगंध बिखेरें, ताकि लंबे समय तक उनकी ख्याति रहे ।


गुरुवार, 10 नवंबर 2022

कृतज्ञता

 कृतज्ञता

सफल एवं सार्थक जीवन के लिए कृतज्ञता जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है । कृतज्ञता धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करती है। दुनिया के सभी बड़े धर्म मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक व्यवहार है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ आपको दिया है, उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें। इसका विज्ञान इसी वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे, उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन 'इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें गंभीरता का पूर्ण अभाव होता है। वे बड़ी बात को सामान्य समझकर उस पर चिंतन-मनन नहीं करते तो कभी छोटी-सी बात पर प्याज के छिलके उतारने बैठ जाते हैं।समय, परिस्थिति और मनुष्य को समझने की उनसें सही परख नहीं होती, इसलिए वे हर बार उठकर गिरते देखे गए हैं। औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति उनका निजी स्वभाव होता है। वे हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहां, किसने, कैसी गलती की। ऐसे लोग भरोसेमंद नहीं होते हैं।


कृतज्ञता के पास शब्द नहीं होते, किंतु साथ ही कृतज्ञता इतनी कृतघ्न भी नहीं होती कि बिना कुछ. कहे ही रहा जाए। यदि कुछ भी न कहा जाए तो शायद हर भाव अव्यक्त ही रह जाए। इसीलिए 'आभार' मात्र औपचारिकता होते हुए भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का, अपने को सुखी और प्रसन्न बनाने का एक प्रयास भी है। किसी के लिए कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और उसके मन में जो मिला बहुत .मिला- शुक्रिया' के भाव हों तो जीवन बड़े सुकून से जिया जा सकता है, काटना नहीं पड़ता।

मंगलवार, 8 नवंबर 2022

संतुष्टि का भाव

 संतुष्टि का भाव


कोई भी कार्यस्थल या पद आपकी आकांक्षाओं के अनुरूप निर्मित नहीं होता। यही मानवीय संबंधों के साथ भी है। पारिवारिक संबंधों में तो चयन का विकल्प ही नहीं होता। संतुष्टिपूर्ण, सार्थक जीवन के लिए स्वयं के व्यवहार, आचरण, सूझबूझ और विवेक से अनुकूल व्यवस्थाएं बनानी होती हैं। यही सफलता की परिभाषा भी है। जब तक जीवन है प्रतिकूल, कठिन तथा अप्रिय घटनाओं और व्यक्तियों से सामना होगा ही। जहां तक संभव हो सुलह कर लें या निपटें और जो असंभव है उसकी ' अनदेखी करना सीखें, किंतु असंतुष्टि का भाव नहीं संजोएं। परिस्थितियों या आसपास के व्यक्तियों में दोष ढूंढ़ कर उनके प्रति चिंता या वैमनस्य रखना दर्शाता है कि आपका मन स्वस्थ नहीं है। ऐसे सोच का व्यक्ति सुख-चैन से वंचित रहता है। असंतुष्ट रहना एक प्रवृत्ति है। जिसके अभाव को असंतोष का कारण ठहराया जाता है, वह सुलभ होने पर तुरंत दूसरा दुखड़ा प्रस्तुत हो जाएगा। संतुष्टि का अर्थ उत्कृष्टता के प्रयास न करना भी नहीं है।


जो संगठन हमें आजीविका देता है उसे असंतुष्ट व्यक्ति कहता है कि यहां के अधिकारियों एवं कर्मचारियों में मानवीयता, सद्भाव और सहयोग है ही नहीं, यह स्थान कार्य करने योग्य ही नहीं। ऐसी धारणा से ग्रस्त व्यक्ति मनोयोग से कार्य नहीं करता। फलस्वरूप उसका कार्य उच्च कोटि का नहीं होता। याद रखें कि समर्थ अंगों युक्त आपका यह मानव शरीर स्वयं एक बहुत बड़ा उपहार है। माता-पिता, भाई-बहन, अंतरंग मित्र, रहने के लिए मकान और दो वक्त का भोजन आदि के लिए स्वयं को धन्य समझें। उन्हें देखें जो आपसे कमतर परिस्थितियों में जीने को अभिशप्त हैं। जो आपके पास नहीं है उसे पाने के लिए प्रयत्न करें। जहां पहुंचना चाहते हैं उसके लिए ज्ञान, कौशल से स्वयं को परिमार्जित, परिष्कृत करें। विश्वास रखें, वह अवश्य मिलेगा जिस योग्य आप स्वयं को बनाने में सफल हो पाते हैं।

शुक्रवार, 4 नवंबर 2022

इच्छा की तीव्रता

 इच्छा की तीव्रता



विवेकानंद जी ने कहा है कि चाह की अनुभूति ही सच्ची प्रार्थना है। प्रार्थना को शब्दों के सहारे की उतनी आवश्यकता नहीं होती । वस्तुतः, किसी इच्छा की पूर्ति के लिए हृदय में इच्छा की तीव्रता होना आवश्यक है। ऐसी इच्छा सदा एक प्रार्थना की भांति अवचेतन मन में चला करती है। यह अवचेतन मन आपके न जानते हुए भी उसी एक लक्ष्य के पीछे लग जाता है। आपके समक्ष स्वयं अपने लक्ष्य से संबंधित चीजें आने लगेंगी। आपको ऐसे लोग मिलने लग जाएंगे, जो आपको आपके लक्ष्य तक पहुंचा दें। आप अखबारों में, पुस्तकों में उसी के संबंध में पढ़ने लग जाएंगे।


कहा जाता है कि जब आप पूरी दृढ़ता से कोई कामना करते हैं तो ब्रह्मांड की समस्त शक्तियां आपकी सहायता करने लगती हैं। ईश्वर मनुष्य द्वारा आविष्कृत किसी भाषा में शब्द नहीं सुनता। वह भाव की भाषा समझता है, बिल्कुल वैसे ही जैसे एक शिशु के टूटे-फूटे शब्दों से भी मां भाव समझ जाती है। आप जो करना चाहते हैं, जो बनना चाहते हैं, उसका बीजरूप में आज से ही स्वप्न संजोना पड़ेगा। सदैव उसी लक्ष्य के बारे में विचार करना होगा। जब वह स्वप्न आपके व्यक्तित्व की ऊर्जा में एक तरंग के रूप में समा जाता है, तब दैवीय शाक्तियां उसकी ओर आकर्षित होने लगती हैं। स्मरण रहे कि जिस किसी कार्य को आप आज साक्षात सफल देखते हैं, वह किसी दिन किसी के मस्तिष्क में मात्र विचार तरंग के रूप में ही था ।


आधे-अधूरे मन से किए गए कार्य फलित नहीं होते। और यदि होते भी हैं तो उनका परिणाम उतना सुखद नहीं होता। अधूरे मन से कार्य करना अपने प्रति किया जाने वाला सबसे बड़ा अन्याय है। आपकी ऊर्जा भी गई और कार्य भी मन का न हुआ। जब किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए. आवश्यक कर्म को पूर्ण मनोयोग के साथ संपन्न किया जाता है, तभी कर्ता और उसकी कृति या उपलब्धि कुंदन सी चमकती है। 

क्षेत्रीय रेल प्रशिक्षण संस्थान, गाजीपुर में सतर्कता जागरूकता सप्ताह

 सतर्कता जागरूकता सप्ताह

वाराणसी मंडल पर 31 अक्टूबर से 06 नवम्बर,2022 तक मनाये जा रहे सतर्कता जागरूकता सप्ताह के अंतर्गत  02 नवम्बर को मंडल के गाजीपुर में  स्थित क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान(ZRTI)  में सेवानिवृत्त मुख्य परिचालन प्रबंधक श्री राकेश त्रिपाठी की अध्यक्षता में "भ्रष्ट्राचार मुक्त भारत, विकसित भारत" शीर्षक पर सेमिनार आयोजन किया गया ।

    जागरूकता सप्ताह का शुभारम्भ मुख्य अतिथि श्री राकेश त्रिपाठी द्वारा माँ सरस्वती  एवं  सरदार बल्लभ भाई पटेल के चित्र पर माल्यार्पण करने के उपरांत  दीप प्रज्ज्वलित  करके किया गया । इस अवसर पर उप मुख्य सतर्कता अधिकारी श्री जे पी सिंह ,संस्थान के प्रधानाचार्य श्री एस के राय, संस्थान के सभी प्रशिक्षक एवं प्रशिक्षणार्थी उपस्थित थे  ।                                  मुख्य अतिथि तथा अन्य गणमान्य अतिथियों के स्वागत में स्वागत गान संस्थान ने प्रशिक्षणार्थी द्वारा प्रस्तुत किया गया। संस्थान के प्रधानाचार्य श्री एस के राय  द्वारा स्वागत उद्बोधन के माध्यम से कार्यक्रम की औपचारिक शुरुआत करते हुए अपने संबोधन  में संस्थान में उपलब्ध सुविधाओं तथा उपलब्धियों  की रूपरेखा प्रस्तुत किया।          सेमिनार में अतिथि  के रूप में प्रसिद्ध लेखक एवं साहित्यकार श्री गंगेश जी द्वारा रेलवे तथा उसमें होने वाले भ्रष्टाचार से आम जनता एवं समाज पर पड़ने वाले प्रभावों  पर विस्तार से प्रकाश डाला । सेमिनार में पधारे दूसरे अतिथि एवं साहित्यकार श्री अमरनाथ तिवारी जी द्वारा भ्रस्टाचार मुक्त भारत एवं विकसित भारत पर विस्तृत व्याख्यान दिया।

 मुख्य अतिथि श्री राकेश त्रिपाठी जी द्वारा भष्ट्राचार एवं निवारण विषय पर विस्तार से व्याखान दिया गया । उसके व्याखान से प्रशिक्षणार्थियों एवं कर्मचारियों को अपनी कार्य प्रणाली में सतर्कता आइटमों एवं उनसे जुड़े नियमों एवं उपनियमों की विस्तृत जानकारी प्राप्त हुई  । इन्होंने बताया कि विकसित भारत के लिए सभी को मिलजुल कर प्रयास करना  होगा तथा संकल्प "लेना होगा कि न हम रिश्वत देंगें और न    लेंगे ।

     सेमिनार में भ्रस्टाचार मुक्त भारत एवं विकसित भारत विषय पर वाक प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें प्रथम - प्रीती शंकर लाल  द्वितीय अभिमन्यु चौरसिया,तृतीय  चन्दन चौहान तथा सांत्वना  पुरस्कार प्रमोद कुमार पाण्डेय एवं  एन. के. रजक को मुख्य अतिथि श्री राकेश त्रिपाठी द्वारा पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया  ।









मंगलवार, 1 नवंबर 2022

नियंत्रण

 नियंत्रण


प्रकृति के नियमानुसार पतझड़ में पत्ते पेड़ों से गिरते हैं। इस पर न तो पेड़ दुखी होते हैं और न ही पत्ते, क्योंकि वे प्रकृति के पावन एवं शाश्वत नियमों को भलीभांति समझते हैं। उन्हें पता है कि यही नियति का नियम है। इसके विपरीत मानव स्वयं को सर्वशक्तिमान समझकर परिवर्तन का प्रतिरोध करते हुए स्थितियों पर नियंत्रण का प्रयास करता है। यह समझते हुए कि इसमें उसका ही नुकसान है, फिर भी वह इस मूर्खता में लगा रहता है। इसके मूल में मनुष्य का स्वार्थ होता है। प्रत्येक प्राणी प्रकृति से स्वतंत्र है। यदि कोई हम पर जबरन नियंत्रण का प्रयास करता है तो हमें दमन की भावना महसूस होती है। हमारा आत्मा कराहने लगता है।


यही कारण है कि जब कोई व्यक्ति लोगों को नियंत्रित करने का प्रयास करता है तो लक्षित लोग भी ऐसे व्यक्ति के प्रति सशंकित होने लगते हैं। दूसरों पर नियंत्रण के ऐसे प्रयास में असफलता व्यक्ति को जिद्दी और अड़ियल बना देती है। इससे निराशा और तनाव अंतस में घर करने लगता है। कुढ़न होने लगती है कि आखिर दुनिया मेरे हिसाब से क्यों नहीं चल रही ? जीवन के किसी न किसी मोड़ पर जाने-अनजाने में कोई हमें नियंत्रित करने का प्रयास करता है या फिर हम ही किसी को नियंत्रित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। इसी उलझन में जीवन और उलझकर बोझिल होता जाता है। यदि नियंत्रण करना ही है तो अपनी उन बुरी आदतों पर करें, जो आपके बेहतर व्यक्ति बनने में अवरोध बनती हैं।


वस्तुतः,सहज एवं शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए सबसे अच्छा तरीका यही है कि स्थिति को नियंत्रित करने के बजाय उसे नियति के भरोसे छोड़कर सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान दें। यदि हम अपनी श्रेष्ठता और अहं भाव को किनारे रखकर समस्त प्राणी मात्र के प्रति निरपेक्ष भाव से सोचते हुए उन्हें नियंत्रित करने के मोह पर लगाम लगाएंगे तो उनके साथ-साथ अपना भी भला करेंगे।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

वास्तविक प्रकाश

 वास्तविक प्रकाश


दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह के अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली पर हम साफ-सफाई कर घर को संवारने - निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार यदि चेतना के आंगन पर जमे कर्म के कचरे को साफ किया जाए, उसे संयम से सजाया-संवारा जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित किया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त कर सकता है।


जहां धर्म का सूर्य उदित हो गया, वहां का अंधकार टिक नहीं सकता। एक बार अंधकार ने ब्रह्माजी से शिकायत की कि सूरज मेरा पीछा करता है। वह मुझे मिटा देना चाहता है। ब्रह्माजी ने इस बारे में सूरज को बोला तो सूरज ने कहा- मैं अंधकार को जानता तक नहीं, मिटाने की बात तो दूर, आप पहले उसे मेरे सामने उपस्थित करें। मैं उसकी शक्ल-सूरत देखना चाहता हूं। ब्रह्माजी ने उसे सूरज के समक्ष आने के लिए कहा तो अंधकार बोला-मैं उसके पास कैसे आ सकता हूं? यदि आ गया तो मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।


वस्तुतः, जीवन का वास्तविक प्रकाश परिधान, भोजन, भाषा और सांसारिक साधन-सुविधाएं नहीं हैं। वास्तविक उजाला तो मनुष्य में व्याप्त उसके आत्मिक गुणों के माध्यम से ही प्रकट हो सकता है। जीवन की सार्थकता और उसके उजालों का मूल आधार व्यक्ति के वे गुण हैं जो उसे मानवीय बनाते हैं, जिन्हें संवेदना और करुणा के रूप में, दया, सेवा-भावना और परोपकार के रूप में - हम देखते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाता है। जिनमें इन गुणों की उपस्थिति होती है, उनकी गरिमा चिरंजीवी रहती है। स्मरण रहे कि जिस तरह दीप से दीप जलता है, वैसे ही प्रेम देने से प्रेम बढ़ता है और यही वास्तविक प्रकाश का निमित्त बनता है।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

धन का अभिनन्दन


धन का अभिनंदन

धनतेरस के साथ ही दीपावली उत्सव का आरंभ हो जाता है। यह पर्व हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके साथ संबद्ध अर्थ हमारी प्रसन्नता और सुख को पोषित करता है। धर्माचरण के समानांतर ही धनाचरण की सीढ़ी आती है, जिसके अभाव में ऊपर चढ़ना असंभव है अर्थ द्वारा धर्म और मोक्ष का मार्ग सहज होता है। अर्थ को मात्र वासनाओं तक सीमित करना उचित नहीं । यह साधना का भी आधार है। उद्देश्य और लक्ष्य पृथक हैं। अर्थ का महत्व ठीक से समझना चाहिए। अर्थोपार्जन धर्म के संरक्षण के लिए हो। दान, परोपकार और सहायता जैसे सद्कर्म धन के अभाव में नहीं हो पाते।

आर्थिक समृद्धि की कामना के साथ हर आस्थावान व्यक्ति धनतेरस पर धातु की एक नई वस्तु लाकर प्रतीकात्मक रूप से लक्ष्मी का वंदन अभिनंदन करता है। निर्धन और धनवान दोनों के लिए इस पर्व का महत्व बराबर है। सभी के लिए खुशी और उल्लास समान है। निर्धन अपने प्रतीकों पर अधिक निर्भर हो सकता है। प्रतीक ही उसकी निर्धनता को ढक लेते हैं। महालक्ष्मी भी भावना की भूखी हैं, न कि अपार आडंबर की आकांक्षी । निर्धन के लिए धनतेरस लक्ष्मी के स्वागत का अवसर है। माता लक्ष्मी महल में नहीं, अपितु नारायण को हृदय में बसाने वाले की झोपड़ी में पदार्पण करती हैं। धनतेरस का मर्म निर्धन एवं धनवान को समझने का मार्ग है। दोनों के मध्य शून्य को भरने का यह अवसर अत्यंत आत्मिक संदेश देता है।

धनतेरस में धन के वितरण का धार्मिक महत्व है। धन पर किसी का सर्वाधिकार अस्वीकार्य है। धन का पथ धर्म से चलना चाहिए। रावण ने अपने भाई कुबेर से सोने की लंका को छीन लिया था। इस अधर्म ने लंका को राख में बदल दिया। निर्धन और धनवान समाज के समान अंग हैं। धनवान से निर्धन को अपनाने का आग्रह है । धनवान वही, जो निर्धन को सराहे। अर्थात, निर्धन को सहारा देना और समर्थन देना-यही रामराज्य का आधार है.  

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

विनम्रता की शक्ति


विनम्रता की शक्ति

मनुष्य में विनम्रता का भाव उसे हमेशा श्रेष्ठ बनाता है। संस्कृत में श्लोक है कि 'विद्या ददाति विनयम्" । ज्ञानवान होने का मतलब ही है कि अनर्गल और नकारात्मक आचरण से दूरी बनाना। पढ़ा-लिखा है व्यक्ति यदि अनर्गल आचरण कर रहा है तब इसका अर्थ है कि उसने पुस्तकें जरूर पढ़ लीं, लेकिन वैशिष्ट्य बनाने वाली विद्या अभी उसके पास नहीं आई है, क्योंकि जिसने विनम्रता की शक्ति पहचान ली, उसे नकारात्मक कार्य करना बोझिल सा लगने लगेगा। रामचरितमानस में प्रसंग आता है कि जब माता सीता की खोज के लिए श्रीराम की सेना को चतुर्दिक भेजने की बारी आई तब ज्ञानियों में अग्रगण्य तथा मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के विशेष कृपापात्र हनुमान जी चुपचाप खड़े थे । यहाँ हनुमान जी का चुपचाप खड़े रहना विनम्रता का भाव परिलक्षित करता है । विनम्र व्यक्ति कायर नहीं होता। वह यत्र-तत्र अपना दंभ नहीं प्रकट करता, बल्कि विनम्रता के भाव को संजोकर रखता है और जब कोई विपरीत परिस्थिति आती है तब संजोकर रखी गई संचित शक्ति के बल पर जटिल और विपरीत हालात का मुकाबला करता है तथा उसे सफलता भी मिलती है।


हनुमान जी पवन पुत्र हैं। पवन यानी वायु । वायु में सर्वाधिक उपयोगी प्राणवायु होती है। हनुमान जी प्रकारांतर से खुद को प्राणवायु का प्रतिनिधि बताते हुए यह संदेश देते हैं कि मनुष्य भले नकारात्मकता में क्यों न जीवन जीता हो, यदि प्रातःकाल योग प्राणायाम करके अधिक से अधिक प्राणवायु हृदय में संचित कर ले, तब काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे विकार से वह मुक्त हो जाएगा। यही वे विकार हैं, जो किसी व्यक्ति को रावण बनाते हैं। प्राणायाम के जरिये जब कोई साधक शरीर में अधिकाधिक प्राणवायु संचित कर लेता है तब उसके अंदर कै विजातीय पदार्थ जलकर नष्ट हो जाते हैं। लंका जलाने के पीछे हनुमान जी का यह संदेश भी निहित है।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022


नीति का आचरण


भारतीय चिंतन में उन लोगों को ही राक्षस, असुर या दैत्य कहा गया है, जो समाज में तरह-तरह से अशांति फैलाते हैं। असल में इस तरह के दानवी सोच वाले लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। ऐसे लोग धन-संपत्ति आदि के जरिये सिर्फ अपना ही उत्थान करना चाहते हैं, भले ही इस कारण दूसरे लोगों और पूरे समाज का कोई अहित क्यों न हो रहा हो। धर्म कहता है कि विश्व को श्रेष्ठ बनाओ। यह श्रेष्ठता तब ही आएगी जब कुटिल चालों से मानवता की रक्षा की जाएगी। आज भौतिक मूल्य समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुके हैं कि उन्हें निर्मूल करना आसान नहीं है। मनुष्य का कर्म दूषित हो गया है। यदि धर्म को उसके स्थान पर सुरक्षित रखा गया होता तो इतनी मारकाट न होती । संतों का कहना है कि समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य है। मनुष्यों के मेल से समाज और समाजों के मेल से राष्ट्र बनता है। यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो समाज और राष्ट्र अपनेआप सुधर जाएंगे। इसलिए संतों ने पंच महाव्रत की महिमा बताई। मनुष्यों के जीवन और कृत्य के परिष्कार 'के लिए इससे बढ़कर रास्ता हो नहीं सकता। अगर मनुष्य का आचरण सत्य, करुणा, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर आधारित होगा तो वह अपने धंधे में किसी प्रकार की बुराई नहीं करेगा । जीवन की शुद्धता कर्म की शुद्धता की आधारशिला है। धर्म मनुष्य के भीतर की गंदगी को दूर करता है और जिसके भीतर निर्मलता होगी, उसके हाथ कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे।


मनुष्य अब समझने लगा है कि धर्म के बिना उसका विस्तार नहीं है, किंतु भोगवादी जीवन का वह अब इतना अभ्यस्त हो गया है कि बाह्य आडंबर की मजबूत डोर को तोड़कर सादा और सात्विक जीवन अपनाना उसके लिए कठिन हो रहा है। इस कठिनता से उबारने के लिए नीति बल यानी धर्म की शक्ति सर्वोपरि है। अतः मनुष्य मात्र परमार्थ और परोपकार रूपी नीति का आचरण करे।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

शाश्वत सत्य

 शाश्वत सत्य

इस समय धर्म ग्रंथों के शाश्वत वचन भाषण तक ही सीमित होकर रह गए हैं। भाषण देने वाले अधिकांश लोग भी धर्म ग्रंथों के ज्ञान एवं अनुभव से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि समाज पर इसका कोई सकारात्मक असर नहीं हो रहा है। इससे व्यक्ति की पीड़ा कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है, जिससे जीवन तमाम समस्याओं में डूबता जा रहा है। यह सत्य है कि हर धर्म ग्रंथ में कहे गए शाश्वत वचन दैवीय वचन ही हैं, जो उसकी प्रेरणा स्वरूप लिखे गए हैं, लेकिन इनकी गहराई का अहसास तभी हो सकता है जब इनको पढ़ने एवं सुनने वालों में इन्हें अनुभव करने की शक्ति विकसित हो। बिना इसके शाश्वत वचनों का प्रचार-प्रसार, कथा एवं प्रवचन सब निरर्थक हैं।


धर्म का आचरण यदि सही ढंग से नहीं किया जाता तो यह केवल आडंबर बनकर रह जाता है। इसका सही आचरण निश्चित ही व्यक्ति को देवत्व प्रदान करता है, किंतु गलत आचरण नर्क की ओर ले जाता है। इन दिनों ऐसा भी देखा जा रहा है कि धर्म का एक ऐसा अन्यायी भूत लोगों के मन में घुस गया है जिसे वे बाहर निकालना नहीं चाहते. और न ही इसकी सूक्ष्मता पर विचार करते हैं। वास्तव में धर्म के वास्तविक अर्थ को समझने वाले बहुत ही कम हैं और जो हैं उनमें भी अधिकांश सही तरह से इसका अनुसरण नहीं कर रहे हैं। ये लोगों की नासमझी का लाभ उठाकर अपनी-अपनी दुकान चला रहे हैं तथा धर्म के नाम पर मनुष्य को ऐसे तोते के समान बना देना चाहते हैं, जो केवल वही भाषा बोलें जो उन्हें बताई जाए।

प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान का अकूत भंडार है, जो दुनिया के हर धर्म-पंथ के बारे में समझ सकता है। इसे बस थोड़ा सा प्रयास करके जागृत करना होता है। जो ऐसा करने में सफल हो जाते हैं उन्हें सभी धर्म-पंथ एक जैसे ही दिखते हैं, न तो कोई छोटा और न ही कोई बड़ा, क्योंकि शाश्वत सत्य तो हर धर्म ग्रंथ में एक ही है। व

ओशो कहते हैं कि आप मानसिक साधना करिए ,ध्यान करिए, प्राणायाम करिए। आप कुछ समय अंधेरे में बैठें और अपने साथ रहे ,अपने मन में जो विचार आ रहे हैं ,उन्हें सिनेमा हॉल में बैठे हुए दर्शक की तरह देखते रहे। उसके साथ मत चले  कुछ समय बाद ऐसा होगा आपके मन में उठने वाले विचार भी कम होते जाएंगे और एक समय ऐसा आएगा कि आप मन की अतल गहराइयों में पहुँच जाएंगे और आपका मन शांत होने लगेगा और आपको सच्चा आनंद आने लगेगा। 

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

अंतर्मन की शांति


अंतर्मन की शांति

प्रत्येक मनुष्य जीवन में शांति की कामना करता है, किंतु उसकी प्राप्ति सरल नहीं। शांति को यदि - सुख का पर्याय माना जाए तो सर्वथा उचित होगा। शांति का अर्थ है कि हम बाहर से शांत दिखने के अतिरिक्त अंतर्मन को भी शांत रखें। बाहर से शांत दिखना अपेक्षाकृत सरल है, किंतु अंतर्मन की शांति अर्थात वास्तविक शांति को प्राप्त करना उतना ही कठिन। किसी प्रकट शांति के भीतर प्रायः एक अप्रकट कोलाहल विद्यमान होता है। इस कोलाहल की तीव्रता अत्यंत उच्च, किंतु प्रभावक्षेत्र अति सीमित होता है। भौतिकशात्र की दृष्टि से देखें तो इस कोलाहल का घनत्व अत्यधिक होता है।


चूंकि कोलाहल कहीं न कहीं ऊर्जा का ही एक अव्यवस्थित रूप है तो कहा जा सकता है कि उस सीमित क्षेत्र में उच्च ऊर्जा घनत्व विद्यमान होता है। ऊर्जा के इस अव्यवस्थित रूप का किसी अन्य व्यवस्थित रूप में परिवर्तन यद्यपि मुश्किल है, किंतु यदि संभव हो जाए तो आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे। अंतर्मन की शांति हेतु यह अनिवार्य है कि आपके भीतर वैचारिक उथल-पुथल अथवा चिंता, तनाव एवं दुख जैसे मनोभाव उत्पन्न न हो रहे हों। वस्तुतः किसी भी मनोभाव की अति अथवा असंतुलन ही अंतर्मन 'में अशांति को जन्म देता है। मन में उत्पन्न कोई विचार ठहरे हुए जल में उत्पन्न एक तरंग के समान है। जिस प्रकार तरंग के उत्पन्न होते ही जल की शांति भंग हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन में किसी विचार के उत्पन्न होने पर मन की शांति का स्तर गिर जाता है।


हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान को मानसिक शांति हेतु एक अमोघ अस्त्रं बताया है। ध्यान  के नियमित अभ्यास द्वारा अंतर्मन की शांति का अपेक्षित स्तर प्राप्त किया जा सकता है।

आप जीवन जीने की कला के प्रणेता श्री श्री रविशंकर जी की सुदर्शन क्रिया सीख सकते हैं। आप जग्गी वासुदेव की इनर इंजीनियरिंग क्रिया ,जिसे ईशा योग कहते हैं उसे भी सीख सकते हैं।  लेकिन आंतरिक सफ़ाई के लिए जब तक आप कुछ नहीं करेंगे, जब तक आप अपने मन में झाड़ू नहीं लगाएंगे ,तब तक आपको आंतरिक शांति नहीं मिलेगी। मन में झाड़ू लगाने हेतु ये क्रियाएँ बहुत प्रभावशाली है। 

शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

ज्ञान और श्रद्धा

 ज्ञान और श्रद्धा


भगवान कृष्ण ने गीता में ज्ञान और श्रद्धा का विस्तार से वर्णन किया है। श्रद्धा वस्तुतः क्रमबद्ध ज्ञान, बुद्धि और मन की सीढ़ियों को पार करके प्राप्त होती है। कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार अर्जुन दुविधाग्रस्त थे, उसी तरह आज भी तमाम लोग जीवन-रण में जूझ रहे हैं। इस संघर्ष के मूल में है ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव। यदि मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त है तो वह मन को नियंत्रण कर दैवीय मार्ग पर उन्मुख हो सकता है, परंतु यदि मनुष्य को ज्ञान ही नहीं तो वह अच्छे-बुरे का निर्णय नहीं कर पाता। अपनी इंद्रियों के भोग में लिप्त होकर पतन के मार्ग पर चला जाता है। इसलिए मनुष्य को संसार में उचित ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होकर गुरु की शरण में जाना चाहिए ।


बुद्धि ज्ञान द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रित करती है, जिससे वे अनैतिक एवं अपवित्र अनुभव मन तक न पहुंचा सकें। यदि ऐसे अनुभव मन तक पहुंच भी जाते हैं, तो बुद्धि उन्हें ज्ञान की शक्ति द्वारा वहां से निकाल देती है। इस प्रकार मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है और वह स्वयं को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम हो पाता है। इसी निर्मल मन से वह अपना जीवन युद्ध ईश्वर को समर्पित करके लड़ता है। इसमें कर्म योग के ज्ञान द्वारा वह निष्काम कर्म करके कर्मफल ईश्वर को समर्पित करता है। इस प्रकार मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसने पहले ही उसे ईश्वर को समर्पित किया होता है। यानी कर्म योग की सिद्धि भी ज्ञान की शक्ति से ही संभव हो सकती है।


जीवन के महाभारत युद्ध रूपी रण को जीतने के लिए मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति का ही प्रयास करना चाहिए, क्योंकि ज्ञान की शक्ति द्वारा ही वह अर्जुन की भांति अपने जीवन युद्ध में सफल हो सकता है। ज्ञान की इस प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति श्रद्धा के पथ का अनुगमन आवश्यक होता है।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

खेल सम्मान पुरस्कार

 खेल सम्मान 2022





योगा प्रशिक्षण कार्यक्रम

 योगा प्रशिक्षण शिविर

    शांति कुंज, हरिद्वार, उत्तराखंड में स्काउट एण्ड गाइड राष्ट्रीय मुख्यालय,नई दिल्ली के तत्वधान में  नेशनल लेवल योगा प्रशिक्षण कार्यक्रम  का आयोजन दिनांक 17 .09.22 से 21.09.22 तक किया गया । इस नेशनल लेवल योगा कोर्स के लीडर ऑफ कोर्स, भारत स्काउट गाइड के श्री महेंद्र शर्मा, रीजनल ऑर्गनाइजिंग कमिश्नर, नॉर्थन रेलवे  थे ।

     ्उ्क्त नेशनल लेवल योगा प्रशिक्षण कार्यक्रम  में पूरे भारत वर्ष के 18 राज्यों के कुल 93 यूनिट लीडरों ने प्रतिभाग किया। जिसमें पूर्वोत्तर रेलवे की ओर से वाराणसी जिला संघ के स्काउट मास्टर अजित कुमार श्रीवास्तव और गाईड कैप्टन शिवांगी यादव ने सफलता पूर्वक प्रतिभाग कर प्रशस्ति पत्र प्राप्त किया । इस योग शिविर में योग में की विभिन्न विधाओं को विशेष रूप से बताया गया ताकि प्रतिभागी अपने अपने राज्यों के स्काउट गाइड के सदस्यों को प्रशिक्षित  कर सकें। देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के योगाचार्यों  ने विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में जलनेति, रबर नेति, वमन आदि क्रियाओं का अभ्यास कराया। इस अवसर पर देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलपति एवं रजिस्ट्रार  आदि कुशल प्रशिक्षकों ने समय समय पर अपना मार्गदर्शन दिया। हरिद्वार जिला के मुख्य शिक्षा अधिकारी ने भी प्रशिक्षण कार्यक्रम में सहयोग प्रदान किया ।





बुधवार, 14 सितंबर 2022

हिंदी

 हमारी हिन्दी

        डा. भानु प्रकाश नारायण 



हिन्दी दिवस पर करें हम हिन्दी का अभिनंदन

आओ सब मिलकर करें राजभाषा का वंदन,

आओ सब हिन्दी का सम्मान बढ़ावे, 

अपनी भाषा को ऊँचाईयों तक पहुँचावें।

हम सब करें हिन्दी में ही सब काज,

 तभी मिल पायेगा हिन्दी को सम्मान,

 अपनी भाषा के प्रति आस्था दर्शावें,

पल-पल नित्य हिंदी का मान बढ़ावे,

हिन्दी तो है जन-जन की बाणी, 

लगती है हमें कितनी सयानी,

हम सब हिन्दी में ही बोलें, 

सबके मन की कुण्ठा खोलें, 

हिंदी हमारी राजभाषा कहलाती, 

सब भाषाओँ का सम्मान बढ़ाती,

हम राष्ट्रगान हिन्दी में गाते, 

अपने तिरंगे की शान बढ़ाते।

यह विकास की ओर ले जाती 

हिन्दी सबका है ज्ञान बढ़ाती।

हम भारतीयों की शक्ति है हिंदी

एक सहज अभिव्यक्ति है हिंदी।

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सोमवार, 12 सितंबर 2022

हृदयतत्व की प्रधानता

हृदयतत्व की प्रधानता

इस जगत में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे प्रकृति से श्रेष्ठता का दर्जा प्राप्त है। इसका कारण उसमें अन्य जीवों की अपेक्षा बुद्धितत्व और हृदयतत्व की प्रधानता है। जीवन में किसको प्रमुखता देनी है, यह मनुष्य पर निर्भर है। बुद्धितत्व तर्क प्रधान है। अतः इसमें स्वार्थ, लोभ, मोह आदि बुराइयों - के साथ चातुर्य का भाव प्रबल रहता है। जब ये बुराइयां मानव मस्तिष्क में आ जाती हैं। तब विवेक नष्ट होने से वह समाज के साथ अपना भी अहित कर बैठता है। निरा बुद्धिपरक जीवन न अपने लिए श्रेष्ठ कहा जा सकता है, न औरों के लिए। आजकल पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में बिखराव का मूल कारण बुद्धितत्व की प्रधानता है। 


दूसरी ओर हृदयतत्व भाव प्रधान है। इसमें प्रेम, त्याग, दया, करुणा, ममता, परोपकार आदि भावनाएं प्रबल होती हैं। इसीलिए हृदय तत्व हमेशा इन्हीं भावनाओं को आगे रखकर जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। जिससे चेतन ही नहीं, जड़ पदार्थों के प्रति भी संवेदनशीलता का भाव जागृत होता है। फिर अंतर्मन में स्वार्थ नहीं, परार्थ की भावना उत्पन्न होती है। जिससे पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते आत्मीयता के बंधन में बंध जाते हैं। परिणामतः अपराध मुक्त समाज का निर्माण होता है और राष्ट्रीय शक्ति बलवती होती है।


आज मनुष्य में बुद्धिपक्ष प्रबल हो गया है। जिससे स्वार्थ और अहंकार के वश में उसने स्वेच्छा से जीने के अनेक मार्ग तलाश लिए हैं। अधिक सुख की चाहत में उसकी उड़ान को इतने पर लग गए कि हृदयपक्ष शून्य हो गया। परिणामतः संवेदनहीन मानव मानवता की राह से भटक गया। उसकी अधिक सुख पाने की कोशिशें कब दुख में परिणत होने लगीं, पता ही नहीं चला। वह भूल गया कि अधिक सुखेषणा ही दुख का कारण बनती है। इसलिए लोकहित में हृदयतत्व को प्रधानता देकर जीने का प्रयास करना चाहिए। स्वभावतः यथासमय बुद्धितत्व का समावेश तो होता ही है।


आदर्श शिक्षक


आदर्श शिक्षक

सम और विषम परिस्थितियों का सामना मनुष्य ही नहीं, बल्कि भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम और योगेश्वर श्रीकृष्ण तक को मनुष्य रूप में जन्म लेने पर करना पड़ा था। अयोध्या के महल में सम परिस्थितियां थीं, मगर कैकेयी के चलते चौदह वर्ष का वनवास विषम परिस्थितियों में बदल गया, फिर भी श्रीराम ने मर्यादा का भाव बनाए रखा। बाल्यकाल में विद्याध्ययन के दौरान गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को बहुमुखी ज्ञान, लोकाचार और अंतर्मन में व्याप्त शक्तियों की जानकारियां दी थीं। साथ ही उन्हें आदर्श जीवन के मानदंडों से भी अवगत कराया था। भगवान श्रीराम ने वनवास के दौरान जगह-जगह ज्ञान का ही प्रसार किया। बाली और रावण का वध किया, फिर भी उन्हें सद्ज्ञान ही दिया। श्रीराम का लक्ष्मण, सीता, हनुमान, विभीषण आदि को दिए गए ज्ञान को 'विद्या की पाठशाला' भी मानना चाहिए। इसी परिप्रेक्ष्य में श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के दौरान सम-विषम द्वापरयुग में परिस्थितियों में अर्जुन के मन को सशक्त बनाने का भरपूर ज्ञान दिया, जिसके चलते महासंग्राम के मैदान से अर्जुन का पलायन रुक गया।

 यही स्थिति सभी की होती है। जन्म के बाद बच्चे को विद्याध्ययन के साथ अंतर्जगत की शक्तियों का पता बताने वाला शिक्षक होता है। शिक्षा 'शिक्ष' धातु और 'अ' प्रत्यय से बना है, जिसका अर्थ सीखना और सिखाना होता है। अर्जुन सामान्य परिवार के नहीं थे। विद्याध्ययन की दृष्टि से योग्य भी थे, किंतु विषम परिस्थितियां आने पर विचलितहोने लगे। इसी विचलन को रोकने का काम मनुष्य के जीवन में योग्य शिक्षक करता है। जीवन में भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति और उसके निमित्त होने वाली परीक्षा उत्तीर्ण कराने की दृष्टि से शिक्षा देने वाला शिक्षक है, लेकिन वह अधूरा शिक्षक है। आदर्श शिक्षक का दायित्व है कि पल भर के लिए भी शिष्य सान्निध्य में आए तो खुद के अपने सत् आचरण का प्रत्यारोपण शिष्य में कर दे

बुधवार, 24 अगस्त 2022

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

 आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी



     ----भानु प्रकाश नारायण 

हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट साहित्यकार, प्रसिध्द आलोचक, निबंधकार एवंं उपन्यासकार  बैजनाथ द्विवेदी जिन्हें हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम से जानते हैं।इनका जन्म 19 अगस्त 1907 ( श्रावण शुक्ल एकादशी) को ग्राम आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था। उनके पिता का नाम पंडित अनमोल द्विवेदी था, जो संस्कृत के एक प्रकांड विद्वान थे। उनकी माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती देवी था। उनकी पत्नी का नाम भगवती देवी था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। 

      द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के विद्यालय से हुई। उन्होंने 1920 में बसरिकापुर के मिडिल स्कूल से मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। फिर सन् 1923 में वे विद्याध्ययन के लिए काशी चले गए। वहाँ उन्होंने रणवीर संस्कृत पाठशाला, कमच्छा से प्रवेशिका परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। यहाँ रहकर उन्होंने 1927 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1929 में उन्होंने इंटरमीडिएट और

संस्कृत साहित्य में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर 1930 में उन्होंने ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। शास्त्री तथा आचार्य दोनों ही परीक्षाओं में उन्हें प्रथम श्रेणी प्राप्त हुआ।

पहले वे मिर्जापुर के एक विद्यालय में अध्यापक हुए, वहाँ पर आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और वे उन्हें अपने साथ शांति-निकेतन ले गए।

8 नवंबर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रुप में शांतिनिकेतन में कार्यरंभ किया। आपने शांतिनिकेतन में  20 वर्षों तक 1930 से ‌1950 तक हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष रहे। 

        आपने अभिनव भारती ग्रंथमाला व विश्वभारती पत्रिका का संपादन किया।  हिंदी भवन, विश्वभारती, के संचालक रहे।  लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑव लिट्रेचर की उपाधि पायी। 1950  में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति हुए। विश्वभारती विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव कांउसिल के सदस्य रहे, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष, साहित्य अकादमी दिल्ली की साधारण सभा और प्रबंध-समिति के सदस्य रहे। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के हस्तलेखों की खोज तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्रैफी  के निरीक्षक रहे। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य रहे।  1957 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित किए गए। 1960-67  तक पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी प्रोफेसर और विभागध्यक्ष रहे।

1962 में पश्चि बंग साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। 1967  के पश्चात्  पुन: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद पर भी रहे। 1973 में साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया।

आचार्य द्विवेदी जी की भाषा उनकी रचना के अनुरूप होती है। उनकी भाषा के तीन रूप हैं- तत्सम प्रधान, सरल तद्भव प्रधान एवं उर्दू अंग्रेजी शब्द युक्त।

आपने भाषा को प्रवाह पूर्ण एवं व्यवहारिक बनाने के लिए लोकोक्तियों एवं मुहावरों का सटीक प्रयोग किया है। प्रांजलता, भाव प्रवणता,सुबोधता , अलकरिता,सजीवता और चित्रोपमता आपकी भाषा की विशेषता है।


मुख्य कृतियाँ


आलोचना : हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, साहित्य सहचर, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, सूर साहित्य, कबीर, कालिदास की लालित्य योजना, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, साहित्य का मर्म, प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद, मेघदूत : एक पुरानी कहानी, मध्यकालीन धर्म साधना, सहज साधना


उपन्यास : बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख


निबंध : कल्प लता, विचार और वितर्क, अशोक के फूल, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, कुटज


अन्य : मृत्युंजय रवीन्द्र, महापुरुषों का स्मरण


संपादन : पृथ्वीराज रासो, संदेश रासक, नाथ सिध्दों की बानियाँ, अभिनव भारती ग्रंथमाला व विश्वभारती पत्रिका का संपादन।


       जीवन के अंतिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष पद को इन्होंने सुशोभित किया ।

               19 मई 1979 को चमकता हुआ सितारा हमेशा हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल  हो गया।  


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रविवार, 21 अगस्त 2022

विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस

 अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस 

               प्रत्येक वर्ष 21 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 14 दिसंबर, 1990 में इस दिवस को मनाने की घोषणा की गई थी। पहली बार 1 अक्तूबर, 1991 को अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 19 अगस्त, 1988 को प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए और 21 अगस्त, 1988 को संयुक्त राज्य में पहली बार अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया गया। यह दिन दुनिया भर में बुजुर्गों की वर्तमान स्थिति के साथ-साथ उनके योगदान की समस्याओं को प्रतिबिंबित करने के लिए मनाया जाता है

1. मुख्य उद्देश्य

2. भारतीय संस्कृति में वृद्धों का महत्त्व

3. वरिष्ठ आज कुंठित क्यों

4 .जीवन का अनिवार्य सत्य 'वृद्धावस्था'

5. व्यावसायिकता की चोट-

मुख्य उद्देश्य-

अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस का आधिकारिक तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन द्वारा श्रीगणेश किया गया था। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य संसार के बुजुर्ग लोगों को सम्मान देने के अलावा उनकी वर्तमान समस्याओं के बारे में जनमानस में जागरूकता बढ़ाना है। प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई हैं? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोकना आवश्यक है। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है। विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें।

भारतीय संस्कृति में वृद्धों का महत्त्व-

भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। आज का वृद्ध समाज-परिवार से कटा रहता है और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का पूर्ण अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। वृद्ध समाज को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है। आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हे प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके।

वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा, जैसाकि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि- यदि वृद्धावस्था की झूर्रियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।

वरिष्ठ आज कुंठित क्यों?

वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है, एक अहम प्रश्न है। अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कह कर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है।

जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। आदमी जीवन मूल्यों को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सबकुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।’ वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दें।

जीवन का अनिवार्य सत्य 'वृद्धावस्था'-

कटु सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि- जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता। वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।

आज जहां अधिकांश परिवारों में भाइयों के मध्य इस बात को लेकर विवाद होता है कि वृद्ध माता-पिता का बोझ कौन उठाए, वहीं बहुत से मामलों में बेटे-बेटियां, धन-संपत्ति के रहते माता-पिता की सेवा का भाव दिखाते हैं, पर जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री तथा वसीयतनामा संपन्न होते ही उनकी नजर बदल जाती है। इतना ही नहीं संवेदनशून्य समाज में इन दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं, जब संपत्ति मोह में वृद्धों की हत्या कर दी गई। ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और न करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुजुर्गों को ‘ओल्ड होम्स’ में शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपि ‘ओल्ड होम्स’ की स्थिति भी ठीक नहीं है।

व्यावसायिकता की चोट-

पहले जहां वृद्धाश्रम में सेवा-भाव प्रधान था, पर आज व्यावसायिकता की चोट में यहां अमीरों को ही प्रवेश मिल पा रहा है। ऐसे में मध्यमवर्गीय परिवार के वृद्धों के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध पहाड़ बन जाता है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं महिला वृद्ध एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है। पर कौन सोचता है, किसे फुर्सत है, वृद्धों की फिक्र किसे हैं? भौतिक जिंदगी की भागदौड़ में नई पीढ़ी नए-नए मुकाम ढूंढने में लगी है, आज वृद्धजन अपनों से दूर जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर कवीन्द्र-रवीन्द्र की पंक्तियां गुनगुनाने को क्यों विवश है- दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशाप’, दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है।

हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजर अंदाज़ किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे, जो इन लोगों के पास है। अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम अपने वृद्धों को परिवार में सम्मानजनक जीवन देंगे, उनके शुभ एवं मंगल की कामना करेंगे।

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शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

राम और कृष्ण

 संकलन

रामत्व से कृष्णत्व की ओर





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         भारतीय जनमानस के परम आदर्श राम भी हैं और कृष्ण भी।ये दोनों भारतीय धर्म-परंपरा के ऐसे प्रज्ञा-पुरुष हैं जिनसे हर देश-काल का व्यक्ति प्रेरणा लेता है-मर्यादा   की भी और असीमता की भी।

           भगवान राम का जीवन मर्यादाओं को कभी तोड़ता नहीं है, जबकि कृष्ण समय आने पर इसका अनुसरण नहीं करते हैं। राम का जीवन एक आदर्श है तो कृष्ण का जीवन एक उत्सव।    

           पुत्र    के रूप में वनवास, भाई के रूप में पादुका -त्याग और पति के रूप में सीता- वियोग  ......    राम के दुखों का ना ओर ना छोर। सत्य के पथ पर अटल राम कभी अपनी मर्यादा नहीं त्यागते। दूसरी तरफ कृष्ण हैं जो परिस्थिति खराब होने पर मैदान को छोड़ना भी बुरा नहीं मानते और रणछोड़ कहलाते हैं।

राम राजा हैं, कृष्ण राजनीति।                                        राम रण हैं , कृष्ण रणनीति।

            राम ऋषियों के रक्षार्थ असुरों का वध करते हैं जबकि बंदी गृह में जन्मे कृष्ण को शैशव में ही दांवपेच की विभीषिका से जूझना पड़ता है। मर्यादा का पालन करते हुए राम एक -पत्नीवव्रत धारण करते हैं। उन्होंने सीता जी से प्रेम किया और उन्हीं से विवाह भी। परंतु कृष्ण ने प्रेम तो राधा से किया लेकिन विवाह रुक्मणी से। राम का नाम उनकी पत्नी के साथ लिया जाता है जबकि कृष्ण का उनकी प्रेमिका के साथ।

        राम को मारीच भ्रमित कर सकता है पर कृष्ण को पूतना की ममता भी उलझा नहीं सकती।

राम लक्ष्मण को मूर्छित देखकर बिलख पड़ते हैं लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते।

        व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है जितना राम होना।

   एक कंस पापी संहारे एक दुष्ट रावण को मारे

दोनों अधिन दुखहर्ता दोनों बल के धाम।

          राम आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते है ,कृष्ण स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं।

         राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं, कृष्ण मानवता के लिए।       

         राम अनुकरणीय हैं, कृष्ण चिंतनीय।

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