कृतज्ञता
सफल एवं सार्थक जीवन के लिए कृतज्ञता जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है । कृतज्ञता धार्मिक और सांस्कृतिक सीमाओं को पार करती है। दुनिया के सभी बड़े धर्म मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक व्यवहार है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ आपको दिया है, उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें। इसका विज्ञान इसी वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे, उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन 'इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें गंभीरता का पूर्ण अभाव होता है। वे बड़ी बात को सामान्य समझकर उस पर चिंतन-मनन नहीं करते तो कभी छोटी-सी बात पर प्याज के छिलके उतारने बैठ जाते हैं।समय, परिस्थिति और मनुष्य को समझने की उनसें सही परख नहीं होती, इसलिए वे हर बार उठकर गिरते देखे गए हैं। औरों में दोष देखने की छिद्रान्वेषी मनोवृत्ति उनका निजी स्वभाव होता है। वे हमेशा इस ताक में रहते हैं कि कौन, कहां, किसने, कैसी गलती की। ऐसे लोग भरोसेमंद नहीं होते हैं।
कृतज्ञता के पास शब्द नहीं होते, किंतु साथ ही कृतज्ञता इतनी कृतघ्न भी नहीं होती कि बिना कुछ. कहे ही रहा जाए। यदि कुछ भी न कहा जाए तो शायद हर भाव अव्यक्त ही रह जाए। इसीलिए 'आभार' मात्र औपचारिकता होते हुए भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करने का, अपने को सुखी और प्रसन्न बनाने का एक प्रयास भी है। किसी के लिए कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और उसके मन में जो मिला बहुत .मिला- शुक्रिया' के भाव हों तो जीवन बड़े सुकून से जिया जा सकता है, काटना नहीं पड़ता।
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