इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

मंगलवार, 29 नवंबर 2022

ईर्ष्या की भावना



ईर्ष्या की भावना

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है कि ऊंच निवास नीचि करतूती । देखि न सकहिं पराइ बिभूती ॥ अर्थात मानव स्वभाव में जलन की भावना का उत्पन्न होना गलत है। जलन को दूसरे शब्दों में ईर्ष्या कहा जाता है। जलन का स्वभाव अग्नितुल्य है। जैसे अग्नि अपने समीप में आई वस्तु को जलाकर राख बना देती है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या मानव की बुद्धि को नष्ट कर देती है। जिस प्रकार कचरा किसी स्थान को दुर्गंधित करता है, उसी प्रकार ईर्ष्या मनुष्य के जीवन को दुर्गंधित कर देती है। इससे उसके जीवन का विकास रुक जाता है।


अक्सर किसी मनुष्य के अंदर जलन की भावना पद-प्रतिष्ठा एवं कर्म को लेकर पनपती है। दूसरे की प्रगति को देख नहीं सकना जलन की भावना है। ऐसे लोग हमेशा दुखी रहते हैं। यही नकारात्मक सोच उनके पतन का कराण बनता है। जबकि मनुष्य को दूसरों की प्रगति को देखकर प्रसन्न होना चाहिए। दूसरे के दुख को अपना मानकर उसमें शामिल होना चाहिए। दूसरे की खुशी में स्वयं की खुशी देखनी चाहिए। अपमान में अपना अपमान देखना चाहिए। सम्मान में अपना सम्मान देखना चाहिए। यही आदर्शमय मानवीय गुण है। आज अधिकांश मनुष्य के जीवन में साधन भरे हैं, पर साधना का अभाव है। इस कारण उनके संयम का बांध टूट रहा है और जीवन में उचित-अनुचित का बोध कम हो रहा है। यही छोटी-बड़ी भूलें मनुष्य को पतन की ओर ले जा रही हैं। जैसे एक छिद्र घट के पानी को बाहर निकालकर खाली कर देता है।


साधक प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराता नहीं है, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे जीवन जीता है। इससे उसे ईश्वर का संबल मिला है। लिहाजा उसकी आध्यात्मिक शक्ति मजबूत होती है। यह शक्ति उसको जीवन में आगे बढ़ने में मदद करती है। याद रखें, अच्छे गुण-कर्म, स्वभाव ही एक व्यक्ति की सबसे बड़ी विभूति हैं। घर-द्वार का ठाट-बाट तो नश्वर है। इस पर घमंड करना ठीक नहीं है ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें