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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2023

असंतुलित जीवन

 असंतुलित जीवन 

       हमारे देश में आदि काल से मूल्यों के जतन पर जोर दिया जाता रहा है । हमें बचपन से ही मूल्यों की शिक्षा मिलती रही है , यद्यपि आज कई लोग भौतिक लाभ के लिए अपने मूल्यों का सौदा कर रहे हैं, फिर भी कई ऐसे आदर्श रूप में मौजूद हैं जिन्होंने भौतिक विकास के साथ-साथ अपने भीतर दैवी एवं मानवीय मूल्यों को संजो कर रखा हुआ है । 

           इन आदर्शों के कारण ही आज हमारा देश सफलता की नई ऊंचाइयों पर पहुंच पाया है ,वरना चरम भौतिकवाद ने तो हमारे मूल्यों एवं संस्कृति को कब का खत्म कर दिया होता । 

               समस्त विश्व आज अशांति और भ्रम की स्थिति में है क्योंकि सत्ता के नशे में चूर मानव ने परमात्मा के बदले अपने आप को सर्वोच्च सत्ता की उपाधि दे डाली है । फलस्वरुप निजी स्वार्थों के लिए आज हम छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे से लड़ रहे हैं ।हमने "मैं मैं" के पीछे भागते भागते "हम" शब्द को बिल्कुल ही भुला दिया है । संयुक्त परिवार भारत की विशेषता रही है , जिसमें परिवार का हर सदस्य सुख-दुख में एकजुट होकर रहता था । 

          परंतु आज शहरीकरण के चलते एकल परिवारों का जमाना आ गया है । जहां बड़े बुजुर्गों की गैर मौजूदगी में एक असंतुलित जीवन का निर्माण हो जाता है ।ऐसी स्थिति में जी रहे लोगों को यह भी नहीं सूझता कि हम अपनी खुशी किससे बांटें और गम किसे सुनाए। बचपन में हमें शिक्षा दी जाती है कि जल्दी सोने और जल्दी उठने की आदत मनुष्य को स्वस्थ बुद्धिमान और समृद्ध बनाती है ,मगर आज हम युवाओं की हालात बिलकुल विपरीत है । आज का जुआ रात भर जागता है और सूर्योदय होते ही विश्राम अवस्था में चला जाता है । इस कारण न वह सूर्योदय का लाभ ले पाता है और न शारीरिक व्यायाम कर पाता है । स्वास्थ्य खराब कर लेता है ।इन हालातों के मद्देनजर हम जितना हो सके उतना मूल्यों को सुदृढ़ करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । क्योंकि इन्हीं मूल्यों पर हमारे कर्म आधारित है। आता जिनके मुल्यों की बुनियाद मजबूत है, उनका जीवन भी सदैव स्थिर और सुखी रहता है। 

          संकलन कर्ता

       भानु प्रकाश नारायण

             उप संपादक 




सोमवार, 20 फ़रवरी 2023

परंपरा।

 परंपरा

परंपराओं का प्रत्येक समाज में महत्व होता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं के निर्माण में परंपरा का अंतर्निहित योगदान रहता है। सामान्यतः हम परंपरा और रूढ़ियों को एक ही मानकर रूढ़ियों का विरोध करते हैं और समझते हैं कि हम परंपरा का विरोध कर रहे हैं, जबकि ऐसा नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि परंपरा तो समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। यह हमें रूढ़ियों का विरोध करने के लिए प्रेरित करती है। परंपरा, किसी व्यवस्था विशेष का पीढ़ियों से चला आना होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो परंपरा एक व्यक्ति या पीढ़ी ने नहीं बनाई होती, बल्कि यह तो अनवरत समायोजन और संघर्ष से निर्मित होती है। परंपरा को सामान्यतः अतीत की विरासत के अर्थ में समझा जा सकता है। कुछ विद्वान 'सामाजिक विरासत' को ही परंपरा कहते हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है और इस बदलाव के साथ अपनी परंपराओं का निर्वाह करने में हमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।


परंपरा बदलते कालक्रम, बाहरी संपर्क, नवीन ज्ञान- वैज्ञानिक समृद्धि और जीवन संघर्ष के बदलते रूप से प्रमाणित होती रहती है। परिवर्तन ही परंपरा को नया मोड़ देते हैं। परंपरा लोगों को अपनत्व की अनुभूति कराती है। लोगों को एक ही समूह का हिस्सा बनाती है। जब परंपरा के अनुसार समाज के सदस्य समान रूप में व्यवहार करते हैं तो सामाजिक जीवन एवं व्यवहार में एकरूपता आती है। परंपरा व्यक्ति के व्यवहारों को नियंत्रित करती है। परंपराएं और रीति-रिवाज देश की संस्कृति को उसके विविध रंगों को सामने लाते हैं। भारतीय संस्कृति में परंपराओं और रीति-रिवाजों की विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी कुशलता से आगे बढ़ाया जाता रहा है। अपनी संस्कृति को बचाने की जिम्मेदारी हम सभी की है। यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी परंपराओं की थाती नई पीढ़ी को सौंपें। बच्चों में अच्छे संस्कार विकसित करके ही उन्हें इनके प्रति आस्थावान बनाया जा सकता है।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2023

महाशिवरात्रि की महिमा

 

महाशिवरात्रि की महिमा


फाल्गुन मास में कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को महादेव और माता पार्वती के विवाह के कुछ निहितार्थ तो निकलते ही हैं। चंद्रमास का ग्यारहवां माह होता है फाल्गुन। यह वसंत का संक्रमण काल भी है। ऋतुराज वसंत में प्रकृति अपना श्रृंगार करती है। अर्थात प्रकृति की मोहकता आने के पूर्व ही प्रकृतिस्वरूपा माता पार्वती का साथ हो जाए ताकि शीश पर जल और वायुमंडल में अपने डमरू से नाद-सृष्टि का रोपण करने वाले महादेव प्रकृति की पर्याय माता पार्वती के साथ मिलकर लोक कल्याण का परिवार स्थापित कर सकें । 

विवाहोपरांत महादेव ने पुत्र कार्तिकेय को दैत्यों के विरुद्ध देवताओं की सेना का सेनापति नियुक्त किया। कार्तिकेय प्रकृति में विद्यमान विषाणु रूपी दैत्यों का वध अपने वाहन मोर के माध्यम से करते हैं। वहीं पुत्र गणेश को पशु तथा मानव के संयुक्त स्वरूप में महादेव ने यूं ही नहीं किया। इसके माध्यम से पशुता से मानवता की ओर चलने का संदेश भी दिया। गणेश जी को बुद्धि-विवेक का दायित्व दिया गया ।

 ज्ञान तथा बौद्धिक कार्य में संलग्न होने पर रूप-रंग तथा सौंदर्य का विषय गौण हो जाता है। गणेश जी को कैंथ और जामुन इसीलिए पसंद हैं, क्योंकि बुद्धि- विवेक के साथ कसैली तथा मीठी परिस्थितियों में भाव समान रहता है और तब आह्लाद का मोदक अवश्य मिलता है। वहीं माता पार्वती के वाहन सिंह की विशेषता है कि एक तो वह स्वयं अपने आहार की व्यवस्था करता है तथा आहार बच जाने पर उसे अपनी गुफाओं में ले जाकर संग्रहित नहीं करता। संग्रह लोभ की वृत्ति को जन्म देता है ।


अब वर्ष के ग्यारहवें चंद्रमास पर दृष्टि डालें तो यह माह पांच ज्ञानेंद्रियों तथा पांच कर्मेंद्रियों एवं एक मन जिसका योग 11 होता है, का सूचक है। चतुर्दशी तिथि का निहितार्थ इन 11 इंद्रियों के साथ तीन लोकों से भी जुड़ जाता है। ऐसे ही सुखद पड़ाव पर महाशिवरात्रि पर्व आता है, जो दर्शाता है कि जहां शिव-पार्वती हैं, वहीं आनंद का सागर है।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2023

धन लिप्सा || बिजय कुमार ||

 धन लिप्सा 


सांसारिक जीवन को संचालित करने के लिए धन-संसाधन आवश्यक हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होना चाहिए कि केवल वही हमारे जीवन का उद्देश्य बनकर रह जाए। आवश्यकता से अधिक धन की लिप्सा का भाव हमारे भीतर अवगुणों का बीजारोपण करता है। इसके कारण हम रुग्ण हो जाते हैं। यह रोग धन का रोग है, जो अथाह धन संग्रह पर भी बढ़ता ही चला जाता है। धन की प्यास कभी बुझती नहीं है, बल्कि उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जाती है। धन के प्रति अत्यधिक मोह प्रायः अनीति और पतन की ओर ले जाता है। यह मार्ग हमें एक भीषण दलदल की ओर घसीटता है। हमें पता भी नहीं लगता कि हम अर्थ की खोज में कब अनर्थ को गले लगा बैठे। हम अर्थ के संग्रह के लिए अनर्थ की घुड़सवारी करने लगते हैं। अथाह धन संग्रह की यात्रा यात्री में विकृतियां पैदा कर देती हैं। उसका यात्रा मार्ग अनेक तरह के अपराधों को जन्म देने लगता है। इस यात्रा में वह जाने-अनजाने अपराधी बन बैठता है। अपार धन की चाह व्यक्ति के जीवन की राह बदल देती है। वह ऐसी राह चुन लेता है, जिस पर चलना उचित नहीं होता। यह राह उसे गर्त में धकेलती है। धन लिप्सा का भाव त्याज्य है। यह हमें जड़वत बना देता है। यह दोषपूर्ण भाव मानसिक अवसाद भी उत्पन्न करता है।


संप्रति पैसे की भूख ने व्यक्ति को जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटका दिया है। लोग येन- केन-प्रकारेण धन संग्रह की जुगत में लगे रहते हैं। रातोंरात धनाढ्य बनने के स्वप्न देखते हैं। इसका कारण विलासितापूर्ण जीवनशैली है। अपनी जीवनशैली को व्यक्ति ने इच्छाओं से अत्यधिक ओतप्रोत कर दिया है। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह धन संग्रह की दौड़ में लगा रहता है। धन लिप्सा के भाव पर अपरिग्रह की साधना से विजय प्राप्त की जा सकती है। संयम की बूटी से ही धन लिप्सा का रोग ठीक किया जा सकता है। 

जीवन पर्व॥ बिजय कुमार।

 

जीवन पर्व


एक दिन को आप जीवन का अंतिम दिन मान कर देखिए । जो कुछ करना है, आज ही अंतिम अवसर है - ऐसा समझ कर जो कुछ करेंगे, वह अद्भुत होगा । जीवन का श्रेष्ठतम आज कर लीजिए, यही दिवस की व्याख्या है, लेकिन मानव का दुर्भाग्य है कि संत वचन को झुठला कर केवल कल की योजना बनाता है। यद्यपि कल की योजना बनाना आज के सबसे उपयोगी दिवस में सम्मिलित किया जा सकता है, परंतु यह अंतिम कार्य होना चाहिए। दिन की समाप्ति का अंतिम विचार कह सकते हैं। उसके ठीक पहले कोई विचार नहीं, केवल कर्म होना चाहिए। दिनभर में सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य संपादित किया जाना श्रेष्ठ जीवन पद्धति है ।

यह आज का जो दिन है यही जीवन है। शेष न . कोई जीवन है, न उसका महत्व। लोग प्रायः भूत और भविष्य के भंवर में गोते लगाते हुए वर्तमान को भी गंवाते फिरते हैं। लोग आशंकाओं और संदेहों के बीज बोने में पूरा दिन व्यर्थ कर देते हैं। लोग चिंता और अनुमानों के सहारे संपूर्ण जीवन ब्यतीत करना चाहते हैं, लेकिन यह वृत्ति अत्यंत भ्रामक है। इससे हर एक प्राणी को उबरना चाहिए। अन्यथा आज की दौड़ में पिछड़ जाएंगे। आज ही काज है, बाकी अकाज है। आज के दिन को जिसने जी लिया, वही भाग्यशाली है। जिस मानव ने आज का दिन नहीं जिया, वह दरिद्र है। वर्तमान ही जीवन अमृत है, शेष मृत है।


जीवन दिवस को गले लगाइए, स्वागत कीजिए । आज को संपूर्ण जीने का मनोबल होना ही सर्वोत्तम उपलब्धि है। सकारात्मक सोच, सार्थक विचार और सजग बुद्धि से वर्तमान में स्थिर होना लौकिक सुख से अलौकिक आनंद की ओर ले जाता है। पल-पल जीवन को जीने का उत्साह, उमंग एवं उन्माद को जिजीविषा से जोड़ना चाहिए। यही सब लोगों के जीवन का लक्ष्य बन सकता है। अन्यथा घुट-घुट कर जीना तो मरने के समान है। इसलिए मृत्यु के भय से दूर हर दिन जीवन पर्व मनाइए ।

एकांत का सुख || बिजय कुमार ||

एकांत का सुख

मनुष्य की मूल प्रवृत्ति नितांत एकाकी स्वरूप की है। वह एक स्वतंत्र शरीर और स्वतंत्र मन के साथ अकेला जन्म लेता है और अंत ही परलोक को प्रस्थान करता है। जुड़वां संतानों का स्वभाव, आचरण और अंतकाल भी भिन्न-


भिन्न होता है। किसी की आंखों की पुतलियों 'और अंगुलियों की छाप अन्य व्यक्ति से मेल नहीं खाती। मनुष्य प्रकृति की उत्कृष्ट एवं अदभुत रचना है। दूसरों के सान्निध्य में उसे अपनी मूल सहजता और सदाचरण को क्षीण नहीं होने देना चाहिए। निःसंदेह, मेल-जोल के बिना गुजारा नहीं है। अपनी संवेदनाएं, सुख-दुख और पीड़ा मनुष्य कहीं तो साझा करेगा, किंतु उत्कृष्ट मार्ग के कुछ आयाम एकल ही संपन्न करने होंगे। प्रेम और मित्रता के तानेबाने से निर्मित भ्रमजाल में जीते हुए हम प्रायः मनुष्य की एकाकी प्रवृत्ति की अनदेखी करते हैं।


स्वयं को प्रभु या उच्चतर शक्ति पुंज का- अभिन्न अंग मानने वाला अनेक प्रतिरोधी शक्तियों से निपटने में सक्षम हो जाता है। औचित्य और सदाचार की अनुपालना में लोक मान्यता न मिलने पर वह विचलित नहीं होता, अपितु अपनी राह पर अविरल प्रशस्त होता रहता है। वह जानता है कि - प्रत्येक व्यक्ति स्वयं में ब्रह्मांड है, अतः सांसारिक मर्यादा की अपेक्षा अंतरात्मा की सुनना श्रेयस्कर है। एकांत का अर्थ समाज से विरक्तियां या सांसारिक गतिविधियों से दूरी बनाना नहीं है। यह न तो संभव है न ही वांछनीय। मेल-जोल में रहने वाला एकांतप्रिय व्यक्ति मौन की आवाज भी सुन सकता है। एकांत प्रिय व्यक्ति सहज, स्वच्छंद और साहसी प्रवृत्ति का होगा। उसका मनोबल भी उच्चस्तरीय होगा। भीड़ के अनुगामी में अकेले टिकने का माद्दा नहीं होता। दिशाहीन भीड़ के अनुगामी को नहीं पता होता कि लोग किधर जा रहे हैं। एकाकी राही जानता है कि उसे भीड़ के साथ नहीं, अपितु अपनी निर्दिष्ट राह पर चलते रहना है। स्वयं से साक्षात्कार करने के लिए एकांत से बेहतर साधन नहीं है ।


अनित्यता का बोध || बिजय कुमार ||

 अनित्यता का बोध

ऐश्वर्य, सत्ता, प्रभुत्व, रूप और स्वास्थ्य कभी किसी के भी जीवन में स्थिर नहीं रहते। समय के साथ सभी का क्षीण होना तय है। यहां जो भी है सब अनित्य है और प्रत्येक वस्तु कुछ और होने की प्रक्रिया में है। नश्वरता का यह बोध हमें अपने जीवन में भी दिखाई देता है। हम सब परिवर्तन के दौर में हैं। जो हम आज से कुछ साल पहले थे वह आज नहीं हैं, हमारे विचार भी समय के साथ बदलते रहते हैं। यह बदलाव प्रकृति में भी प्रत्यक्ष दिखता है। कली का फूल बनना और फिर फूल का, मुरझाना सब कुछ जीवन के सत्य की ही तरह है।


इसी कारण हमें जीवन में प्राप्त उपलब्धियों का उत्सव अवश्य मनाना चाहिए, लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जो कुछ मिला है वह सदा नहीं रहेगा। समय का पहिया हर समय घूमता ही रहता है। पद, पैसा और प्रतिष्ठा यदि एक साथ मिल भी जाएं तो उनके ऊपर अधिक नहीं इतराना चाहिए, क्योंकि जब यह सब खो जाएंगे तब बहुत आकुलता होगी और उस समय मन दुखी ही होगा। रूप, बल, स्वास्थ्य और युवावस्था का गर्व भी कालचक्र के साथ बीतता जाता है। सब कालातीत हो जाएंगे और अनचाहे अतिथियों की तरह बीमारियों के साथ वृद्धावस्था आएगी ही।


जीवन का मूलमंत्र ही है सदैव साम्यता रखना और किसी भी परिस्थिति में विचलित न होना। ध्यान रहे कि किसी के साथ ज्यादा आसक्ति न हो जाए। जैसे छोटे बच्चे बड़ी मेहनत और लगन के साथ खेल-खेल में ताश का घर बनाते हैं और एक हल्की सी छुअन या हवा का झोंका उस बने-बनाए महल को एक पल में गिरा जाता है, वैसे ही इस जीवन महल को भी एक न एक दिन धराशायी होना ही होता है। यह अनित्यता का बोध बार-बार दोहराने से हमारी सुप्त चेतना जाग सकती है। जो जागृत होकर जीते हैं उनके जीवन में न कोई तनाव रहता है न ही उन्हें कोई अभाव खलता है। यही समझ एक सुखद एवं सार्थक जीवन का आधार है।