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गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

लखनऊ जं. स्टेशन का निरीक्षण



 महाप्रबंधक, पूर्वोत्तर रेलवे श्री विनय कुमार त्रिपाठी ने  मंडल रेल प्रबंधक , लखनऊ डा० मोनिका अग्निहोत्री तथा मंडल के शाखाधिकारियों के साथ पूर्वोत्तर रेलवे के लखनऊ जंक्शन स्टेशन का निरीक्षण कर स्टेशन पर प्रदान की जा रहीं यात्री सुख-सुविधाओं का जायजा लिया।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

कोच



          रेलगाड़ी हमारे जीवन का एक महत्तवपूर्ण हिस्सा है, लेकिन रेलगाड़ी से जुड़ी कई बातें ऐसी हैं जो हमें पता नहीं हैं। हम सभी ने रेलगाड़ी के दो अलग-अलग कोच देखे होंगे और सफर भी किया होगा-- पहला, नीले रंग का और दूसरा, लाल रंग का। लेकिन क्या आप इन दोनों के बीच का अंतर जानते हैं? आइए इस लेख में दोनों कोच के बीच का फर्क जानते हैं।

रेलगाड़ी में नीले रंग वाले कोच को ICF (Integral Coach Factory) और लाल रंग वाले कोच को LHB (Linke Hofmann Busch) कहते हैं।

1- इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) चेन्नई, तमिलनाडु में स्थित है।

2- ये साल 2000 में जर्मनी से भारत लाई गई है।

3- ये अल्युमीनियम (aluminium) से बनाई जाती है और इस वजह से हल्की होती है।

4- इसमें डिस्क ब्रेक (disc brake) का प्रयोग होता है।

5- अधिकतम अनुमेय गति (maximum permissible speed) 200 किमी प्रति घंटा है और इसकी परिचालन गति (operational speed) 160 किमी प्रति घंटा है ।

6- इसके रखरखाव में कम खर्च होता है।

7- इसमें बैठने की क्षमता ज़्यादा होती है (SL-80, 3AC-72)।

8- दुर्घटना के बाद इसके डिब्बे एक के ऊपर एक नहीं चढ़ते हैं।

पहले LHB कोच का प्रयोग सिर्फ तेज गति वाली ट्रेनों में किया जाता था जैसे कि गतिमान एक्सप्रेस, शताब्दी एक्सप्रेस और राजधानी एक्सप्रेस लेकिन भारतीय रेलवे ने सभी ICF कोच को जल्द से जल्द LHB कोच में अपग्रेड करने का फैसला किया है। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि LHB कोच सुरक्षा, गति, क्षमता, आराम आदि मामलों में ICF कोच से बेहतर हैं।


मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

भारत रत्न डा.भीम राव अंबेडकर

 भारत रत्न, डॉ भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर आज महाप्रबंधक श्री विनय कुमार त्रिपाठी, प्रमुख मुख्य परिचालन प्रबंधक श्री अनिल कुमार सिंह सहित अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों ने भारत रत्न, डॉ.भीमराव अंबेडकर को माल्यार्पण कर पुष्पांजलि अर्पित की।







बुधवार, 2 दिसंबर 2020

सफलता का मार्ग

 सफलता का मार्ग 


     कुछ अनूठा करने के लिए तीन बातें बहुत ज़रूरी है - धारणाओं का परिवर्तन, चिंतन और प्रयोग। आदमी की ग़लत अवधारणा एवं पूर्वाग्रहों ने समाज के कई वर्गों में बाँट दिया और इससे विद्वेष, घृणा और संघर्ष पैदा हुए। इसी तरह व्यावसायिक एवं परिवार को लेकर जो अवधारणाएँ बनी हुई हैं, उन्हें बदलना भी बहुत ज़रूरी है‌। जैसा कि जोहान वान गोथे ने कहा था- 'जिस पल कोई व्यक्ति ख़ुद को पूर्णतः समर्पित कर देता है, ईश्वर भी उसके साथ चलता है। जैसे ही आप अपने मस्तिष्क में नए विचार डालते हैं, उसी पल से ब्रह्माण्डीय शक्तियां अनुकूल रूप से काम करने लगती है। बड़ी सफलता हासिल करने के लिए बड़े लक्ष्य बनाने पड़ते हैं। भरसक कोशिश करनी होती हैं। केवल बातें करने से कुछ हाथ नहीं आता। चित्रकार पाब्लो पिकासो के अनुसार, 'योजना की गाड़ी पर सवार होकर ही लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। हमें अपनी योजना पर भरोसा रखना होता है और उन पर काम भी करना होता है। सफलता का कोई और रास्ता ही नहीं है।'

    अगर शान्ति और सुख से जीना है तो धारणाओं का परिवर्तन, सत्य विषयक चिंतन और प्रयोग- इन तीनों का आलंबन लेना ही होगा। जिसके अलावा कोई और चारा नहीं। कोरी चर्चा से कुछ नहीं होगा। चिंतन की भूमिका पर उतारकर उसे प्रयोगात्मक रूप देना पड़ेगा। अगर ऐसा होता है तो विश्वास किया जा सकता है कि हर तरह की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्या का समाधान ज़रूर होगा। जैसा कि रूमी ने कहा है- 'कोई दर्पण फिर कभी लोहा नहीं बना, कोई रोटी फिर कभी गेहूं नहीं बनी, कोई पका हुआ अंगूर फिर कभी खट्टा फल नहीं बना। अपने आपको परिपक्व बनाएं और परिवर्तन के बुरे नतीजों के बारे में आशंकित न हो। उजाला बनें।' इसलिए ख़ुद बदलें, ख़ुद रोशनी बनें और दूसरों को भी प्रकाशित करें। जो मान्यताएं मन-मस्तिष्क में जड़ जमाए बैठी हुई हैं, उनका परिष्कार करना चाहिए, और उन्हें बदलना चाहिए।


आनंद

 

मनुष्य से जितना निर्दोष होगा, उतना ही सुखी होगा। निर्दोष मनुष्य मासूम होता है। वह हमेशा सच्चाई से ज़िंदगी जीता है। समाज की कुटिलता उसके पास तक फटकती। वह किसी व्यक्ति के दुख में दुखी होने का अभिनय नहीं करता, बल्कि सचमुच दुखी होता है। वह दुखी व्यक्त की भरसक मदद करता है। ऐसा करते समय हुआ या नहीं सोचता कि कौन क्या कहेगा। यह जो कौन क्या कहेगा वाली प्रवृत्ति ही मनुष्य को औपचारिक बनाती है, जबकि किसी के दुख में औपचारिकता दिखाना एक तरह का पापा ही है। यदि आप उसको मदद करना चाहते हैं तो असली मदद करें, दिखावा नहीं। यह सब मनुष्यों से नहीं हो पाता। वही मनुष्य सच्ची मदद कर सकता है जो मासूम है।

मासूम व्यक्ति प्रकृति के निकट होता है। वह नदी, पर्वत, आकाश को देखकर सम्मोहित होता है और सच्चे आनंद की अनुभूति प्राप्त करता है। मासूम व्यक्ति चेतना के स्तर पर बहुत समृद्ध होता है। वह जब आनंदित होता है, तब दुनियादारी से दूर होता है। संवेदना में वह कवियों और कलाकारों से आगे होता है। मासूम व्यक्ति स्नेहीजनों को देखकर आनंदित होता है। ऐसे मनुष्य को लोग 'परमहंस' का ख़िताब भी देते हैं। मासूमियत सायास नहीं आती। यह स्वाभाविक होती है, पर कई बार ख़ुद को निखारने पर आ जाती है। यह प्रक्रिया जटिल इसलिए है, क्योंकि जब तक आप परोपकार में आनंद महसूस नहीं करने लगते, तब तक मासूमियत से दूर रहते हैं। मासूम रहा होने का अभिनय नहीं हो सकता। असलियत तुरंत सामने आ जाती है। मासूम व्यक्ति समाज की छोटी से छोटी विसंगति के लिए चिंतित रहता है। वह झूठा और पाखंड से हमेशा दूर रहता है। नुक़सान होने पर भी वह निराश नहीं होता। उसके पास अपरिमित सहनशक्ति होती है। दुर्गुणों का प्रक्षालन ही मनुष्य को मासूम बनाता है। मासूम बनकर ही आप सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। यह आनंद उसी तरह का है होता है, जो बच्चे महसूस करते हैं।