इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

मंगलवार, 28 जून 2022

समर्पण

 समर्पण


    समर्पण प्रत्येक प्राणी के लिए अत्यंत आवश्यक भाव है। यही वह भाव है जिसके माध्यम से हम अपने आत्मीय जनों के प्रिय बन सकते हैं। यह स्मरण रहे कि राग, द्वेष, घृणा तथा स्वार्थ का त्याग किए बिना समर्पण की कल्पना व्यर्थ है। हमारे जीवन के प्रत्येक पहलू में समर्पण का भाव आवश्यक है। समर्पण हमारे लौकिक एवं पारलौकिक दोनों जीवन की उन्नति के लिए आवश्यक है। संबंधों में मधुरता के लिए हमें परस्पर समर्पण भाव रखते हुए रिश्तों का निर्वहन करना होता है। स्वार्थ की दृष्टि से बनाए गए रिश्ते अल्पावधि के उपरांत समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भी समर्पण भाव का होना अत्यंत आवश्यक है। जब हम अपने संपूर्ण समर्पण के साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए समर्पित हो जाते हैं, तब कोई भी लक्ष्य हमसे दूर नहीं रहता।

    समर्पण के साथ-साथ विश्वास का होना भी आवश्यक है। जिस प्रकार एक बीज धरती में रोपित किया जाता है, तो वह संपूर्ण रूप से खुद को धरती मां की गोद में समर्पित कर देता है। तभी उसमें विकास के नए अंकुर फूट पड़ते हैं। भास्कर की किरणें उसे शक्ति प्रदान करती हैं। पवन की शीतलता उसे दुलारती है। मेघ उसका अभिसिंचन करते हैं। इस प्रकार उसे संपूर्ण प्रकृति का सहयोग एवं साहचर्य मिलने लगता है। उसके बाद वह धीरे-धीरे एक संपूर्ण वृक्ष का आकार ले लेता है। एक ऐसे वृक्ष का, जिसके आश्रय में तमाम प्राणी शीतलता प्राप्त करते हैं। यही नहीं, वह वृक्ष सैकड़ों बीजों के जनक होने का गौरव भी प्राप्त करता है।

    अणु से विभु, लघु से विराट बनने की प्रक्रिया आत्मसमर्पण के सांचे और ढांचे में परिपूर्ण होती है। समर्पण हमारे अहंकार को समाप्त कर हमें सामाजिक कल्याण हेतु उपयुक्त भी बनाता है। समर्पण से ही 'किसी का विश्वास अर्जित किया जा सकता है। इसी विश्वास से प्रायः हम जीवन के सबसे अमूल्य अवसर प्राप्त करते हैं। यही अवसर हमारी प्रगति में निर्णायक सिद्ध होते हैं।

शांति के प्रहरी

 



शांति के प्रहरी


    हम स्वयं शांति के सर्वश्रेष्ठ प्रहरी हैं। हमें कोई दूसरा व्यक्ति या वस्तु या स्थान शांति दे सकता है, यह एक काल्पनिक विचार है। हम स्वयं शांति से रह सकते हैं और दूसरों को भी शांतिपूर्वक रख सकते हैं। शांति एक मानवीय गुण तो है ही, लेकिन यह आत्मिक शक्ति है। शांति सभी सुखों की मूल है। इससे सभी वैभव एवं ऐश्वर्य की पूर्ति संभव है। शांति द्वारा सभी दुखों का शमन किया जा सकता है। इससे हर रोग का निदान होता है। शांति का माध्यम सभी समस्याओं का समाधान तैयार करता है। शांति ही देश का निर्माण करती है, वहीं अशांति से देश का पतन आरंभ होता है। शांति और अशांति के बीच समाज, समुदाय, वर्ग, कौम, जाति और संस्थाएं गतिहीन हो जाती हैं।

    देश की उन्नति, विकास और पुनर्निर्माण के लिए शांति का वातावरण अनिवार्य है। शांति एक शब्द मात्र नहीं है। शांति को मन मंदिर में बसाने वाले लोग देव तुल्य होते हैं। इसलिए स्वयं भी शांति के प्रहरी बनिए और दूसरों को भी शांति दूत बनाइए। यही संसार के मंगल का भेद है। शांति से बड़ी कोई दौलत नहीं है। परिवार में शांति एक वट वृक्ष की तरह है, जिसकी छाया में आनंद की अनुभूति पाई जा सकती है। अशांति कालांतर में अग्नि के समान जीवन के हर अंग को भस्म कर देती है। मानवता का मूल इसी शांति के गर्भ में स्थिर है। यदि जीवन को सुख और वैभव से संपन्न करना हो तो निश्चित ही शांति की पूजा करनी होगी। देश में जन सामान्य को शांति के सूत्र अपनाने चाहिए। सावधानी के साथ प्रेम का व्यवहार शांति के मार्ग को निष्कंटक करेगा।

    व्यक्तियों, समूहों और देशों में भी आपसी कटुता की भावना स्थायी शांति के लिए बाधक है। सद्भाव . की कसौटी तथा विवेक की तराजू से विचारों का पारस्परिक व्यवहार बहुत सिद्ध प्रयोग है। शांति का वातावरण, सबसे पहली सीढ़ी है, जो इस जीवन को सफल बनाने में रामबाण की तरह उपयोगी है। शांति ही जीवन को समृद्ध भी बनाती है।

बुधवार, 15 जून 2022

विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता




 



संत कबीर

 संत कबीर

 कबीर का जीवन परिचय 

पूरा नाम संत कबीरदास 

अन्य नाम कबीरा 

जन्म सन 1398 (लगभग)

 जन्म भूमि लहरतारा ताल, काशी मृत्यु सन 1518 (लगभग) 

मृत्यु स्थान मगहर, उत्तर प्रदेश पालक माता-पिता नीरु और नीमा 

पत्नी- लोई 

संतान- कमाल (पुत्र), कमाली (पुत्री) 

कर्म भूमि काशी, बनारस कर्म-क्षेत्र समाज सुधारक कवि मुख्य रचनाएँ साखी, सबद और रमैनी विषय सामाजिक भाषा अवधी, सधुक्कड़ी, पंचमेल खिचड़ी शिक्षा निरक्षर नागरिकता भारतीय इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची संत कबीरदास हिंदी साहित्य के भक्ति काल के इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कुठाराघात करते रहे। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़ झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। जन्म कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में- हम कासी में प्रकट भये है।

 कबीर साहब का जन्म सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय काशी में हुआ था.उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। महात्मा कबीर सामान्यतः "कबीरदास" नाम से प्रसिद्ध हुये तथा उन्होंने बनारस (काशी, उत्तर प्रदेश) में जुलाहे की भूमिका की। कबीर साहब के वास्तविक रूप से सभी अनजान थे सिवाय उनके जिन्हें कबीर साहब ने स्वयं दिए और अपनी वास्तविक स्थिति से परिचित कराया जिनमें सिख धर्म के परवर्तक नानक देव जी (तलवंडी, पंजाब), आदरणीय धर्मदास जी ( बांधवगढ़, मध्यप्रदेश), दादू साहेब जी (गुजरात) ये सभी संत उनके समान आदि शामिल हैं। 


सोमवार, 13 जून 2022

वास्तविक उपलब्धि

 



वास्तविक उपलब्धि

    आज जिस भी पद एवं संपत्ति के आप स्वामी बने हुए हैं, वह कैसे-कैसे अर्जित हुई है, यह आप और ईश्वर भली-भांति जानते हैं। ईश्वर कृत्रिम और पवित्र व्यक्ति के श्रम एवं आस्था की परख करते हैं। मौलिक व्यक्ति छोटी उपलब्धि पर भी आनंदित रहता है और कृत्रिम व्यक्ति बहुत कुछ हड़पने पर भी अशांत और अतृप्त । ईश्वर सहज रूप से चालाकी और पवित्रता के आधार पर ही जीव को कर्मफल का दंड और पुरस्कार सुनिश्चित करते हैं। छल-बल से अर्जित संपूर्ण संपदा यहीं रहकर दूसरों के विनाश का कारक बनती है, जबकि श्रम एवं पवित्रता से अर्जित पूंजी मूल्य और संस्कार बन युगों तक मानवता का दिशाबोध करने की क्षमता रखती है। हमारे अर्जित धन में से वास्तविक श्रम-साधना वाले कितने हैं, हम वस्तुतः उसी के स्वामी हैं, शेष चालाकी से अर्जित पूंजी के हम उन-उन के कर्जदार हैं, जिनकी उनमें श्रम-साधना निवेशित है।

    कर्म का फल जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ता। स्वयं को अत्यधिक चतुर समझने वालों की चालाकी की कीमत प्रभु समय आते ही पूरे समायोजन के साथ वसूल लेते हैं। अपनी शाश्वत संपत्ति वही है, जिस पर मौलिक श्रम - साधना का कण-कण तथा क्षण-क्षण व्यय हुआ हो। अतः यह विशेष रूप से विचारणीय है कि हमारी वास्तविक उपलब्धि क्या है? क्या वह, जिसे हमने जबरन दूसरों की श्रम शक्ति का दोहन करके आहरित किया है, जिसमें रंचमात्र भी हमारे श्रम का अंश समाहित नहीं है। या फिर वह, जो हमारे खून-पसीने की कमाई है। यदि इसका सही मूल्यांकन कर लें तो जीवन स्वयं नए क्षितिज की ओर अग्रसर हो, नए प्रतिमान गढ़ना प्रारंभ कर लेगा। ईश्वर पवित्रता और मौलिकता के पक्षधर हैं। इस प्रकार के व्यक्ति के जीवन में संघर्ष भले ही हों, लेकिन ईश्वर सदैव बड़ी आपदाओं से उसकी रक्षा करते हैं। ईश अनुकंपा से उसके बड़े से बड़े कार्य भी अत्यंत सहजता से स्वयमेव हो जाते हैं

ईश्वर प्राप्ति का मार्ग

 ईश्वर प्राप्ति का मार्ग


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ईश्वर प्राप्ति के तीन -ज्ञान, कर्म तथा भक्ति मार्ग बताए हैं। ज्ञान मार्ग में सांख्य की सहायता से मनुष्य तर्क-वितर्क द्वारा तत्व ज्ञान प्राप्त करने की कोशिश करता है, परंतु अक्सर तर्क-वितर्क में वह अपने मार्ग से भटक जाता है। कर्म मार्ग में भी मनुष्य को निष्काम भाव से कर्म करना होता है। अपने कर्म को ईश्वर को समर्पित करना पड़ता है। इसलिए इसमें भी भटकने की पूरी संभावना होती है। वहीं भक्ति मार्ग में वह अपने आप को पूर्णतया ईश्वर भक्ति में समर्पित कर देता है। वह स्वयं को विचलित नहीं करता है। इसलिए भक्ति मार्ग में ईश्वर प्राप्ति की पूरी संभावना होती है।

इन तीनों मार्गों पर चलकर सफल होने के लिए मनुष्य को अष्टांग योग के पहले दो चरणों को जीवन में अपनाना जरूरी है। यह हैं यम और नियम । यम में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह आते हैं। सत्य शब्द से तात्पर्य है सत्यता का जीवन में हर समय पालन करना। अहिंसा केवल जीव हिंसा से ही संबंधित नहीं है, इसमें दूसरों की भावनाओं को आहत नहीं करना भी आता है। अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना और अपरिग्रह से तात्पर्य है कि आवश्यकता से ज्यादा किसी वस्तु या धन का संग्रह न करना। वहीं नियम में शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान आते हैं। शौच से मतलब मन की सफाई होता है। इसके लिए मनुष्य को स्वाध्याय को अपनाना चाहिए।यम और नियम को जीवन में अपनाने के लिए सर्वप्रथम ज्ञानेंद्रियों पर नियंत्रण करना जरूरी है।इस प्रकार मन को भटकाने वाली सूचनाएं प्राप्त नहीं होंगी। मन इन सूचनाओं के अभाव में आसानी से स्वयं नियंत्रित हो जाएगा। यदि मन नियंत्रित हो गया तो फिर वह निर्मल हो जाएगा। मन के निर्मल होते ही मनुष्य को ईश्वर प्राप्ति की पूरी संभावना होती है,क्योंकि ईश्वर स्वयं निर्गुण और निर्मल है। इसलिए निर्मल आत्मा ईश्वर प्राप्ति कर लेती है। ईश्वर की  प्राप्ति ही तो जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है।