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सोमवार, 24 अक्तूबर 2022

वास्तविक प्रकाश

 वास्तविक प्रकाश


दीपावली एक लौकिक पर्व है। फिर भी यह केवल बाहरी अंधकार को ही नहीं, बल्कि भीतरी अंधकार को मिटाने का पर्व भी बने। हम भीतर में धर्म का दीप जलाकर मोह के अंधकार को दूर कर सकते हैं। दीपावली पर हम साफ-सफाई कर घर को संवारने - निखारने का प्रयास करते हैं। उसी प्रकार यदि चेतना के आंगन पर जमे कर्म के कचरे को साफ किया जाए, उसे संयम से सजाया-संवारा जाए और उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित किया जाए तो मनुष्य शाश्वत सुख, शांति एवं आनंद को प्राप्त कर सकता है।


जहां धर्म का सूर्य उदित हो गया, वहां का अंधकार टिक नहीं सकता। एक बार अंधकार ने ब्रह्माजी से शिकायत की कि सूरज मेरा पीछा करता है। वह मुझे मिटा देना चाहता है। ब्रह्माजी ने इस बारे में सूरज को बोला तो सूरज ने कहा- मैं अंधकार को जानता तक नहीं, मिटाने की बात तो दूर, आप पहले उसे मेरे सामने उपस्थित करें। मैं उसकी शक्ल-सूरत देखना चाहता हूं। ब्रह्माजी ने उसे सूरज के समक्ष आने के लिए कहा तो अंधकार बोला-मैं उसके पास कैसे आ सकता हूं? यदि आ गया तो मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।


वस्तुतः, जीवन का वास्तविक प्रकाश परिधान, भोजन, भाषा और सांसारिक साधन-सुविधाएं नहीं हैं। वास्तविक उजाला तो मनुष्य में व्याप्त उसके आत्मिक गुणों के माध्यम से ही प्रकट हो सकता है। जीवन की सार्थकता और उसके उजालों का मूल आधार व्यक्ति के वे गुण हैं जो उसे मानवीय बनाते हैं, जिन्हें संवेदना और करुणा के रूप में, दया, सेवा-भावना और परोपकार के रूप में - हम देखते हैं। इन्हीं गुणों के आधार पर मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बनाता है। जिनमें इन गुणों की उपस्थिति होती है, उनकी गरिमा चिरंजीवी रहती है। स्मरण रहे कि जिस तरह दीप से दीप जलता है, वैसे ही प्रेम देने से प्रेम बढ़ता है और यही वास्तविक प्रकाश का निमित्त बनता है।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

धन का अभिनन्दन


धन का अभिनंदन

धनतेरस के साथ ही दीपावली उत्सव का आरंभ हो जाता है। यह पर्व हमारे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके साथ संबद्ध अर्थ हमारी प्रसन्नता और सुख को पोषित करता है। धर्माचरण के समानांतर ही धनाचरण की सीढ़ी आती है, जिसके अभाव में ऊपर चढ़ना असंभव है अर्थ द्वारा धर्म और मोक्ष का मार्ग सहज होता है। अर्थ को मात्र वासनाओं तक सीमित करना उचित नहीं । यह साधना का भी आधार है। उद्देश्य और लक्ष्य पृथक हैं। अर्थ का महत्व ठीक से समझना चाहिए। अर्थोपार्जन धर्म के संरक्षण के लिए हो। दान, परोपकार और सहायता जैसे सद्कर्म धन के अभाव में नहीं हो पाते।

आर्थिक समृद्धि की कामना के साथ हर आस्थावान व्यक्ति धनतेरस पर धातु की एक नई वस्तु लाकर प्रतीकात्मक रूप से लक्ष्मी का वंदन अभिनंदन करता है। निर्धन और धनवान दोनों के लिए इस पर्व का महत्व बराबर है। सभी के लिए खुशी और उल्लास समान है। निर्धन अपने प्रतीकों पर अधिक निर्भर हो सकता है। प्रतीक ही उसकी निर्धनता को ढक लेते हैं। महालक्ष्मी भी भावना की भूखी हैं, न कि अपार आडंबर की आकांक्षी । निर्धन के लिए धनतेरस लक्ष्मी के स्वागत का अवसर है। माता लक्ष्मी महल में नहीं, अपितु नारायण को हृदय में बसाने वाले की झोपड़ी में पदार्पण करती हैं। धनतेरस का मर्म निर्धन एवं धनवान को समझने का मार्ग है। दोनों के मध्य शून्य को भरने का यह अवसर अत्यंत आत्मिक संदेश देता है।

धनतेरस में धन के वितरण का धार्मिक महत्व है। धन पर किसी का सर्वाधिकार अस्वीकार्य है। धन का पथ धर्म से चलना चाहिए। रावण ने अपने भाई कुबेर से सोने की लंका को छीन लिया था। इस अधर्म ने लंका को राख में बदल दिया। निर्धन और धनवान समाज के समान अंग हैं। धनवान से निर्धन को अपनाने का आग्रह है । धनवान वही, जो निर्धन को सराहे। अर्थात, निर्धन को सहारा देना और समर्थन देना-यही रामराज्य का आधार है.  

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

विनम्रता की शक्ति


विनम्रता की शक्ति

मनुष्य में विनम्रता का भाव उसे हमेशा श्रेष्ठ बनाता है। संस्कृत में श्लोक है कि 'विद्या ददाति विनयम्" । ज्ञानवान होने का मतलब ही है कि अनर्गल और नकारात्मक आचरण से दूरी बनाना। पढ़ा-लिखा है व्यक्ति यदि अनर्गल आचरण कर रहा है तब इसका अर्थ है कि उसने पुस्तकें जरूर पढ़ लीं, लेकिन वैशिष्ट्य बनाने वाली विद्या अभी उसके पास नहीं आई है, क्योंकि जिसने विनम्रता की शक्ति पहचान ली, उसे नकारात्मक कार्य करना बोझिल सा लगने लगेगा। रामचरितमानस में प्रसंग आता है कि जब माता सीता की खोज के लिए श्रीराम की सेना को चतुर्दिक भेजने की बारी आई तब ज्ञानियों में अग्रगण्य तथा मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के विशेष कृपापात्र हनुमान जी चुपचाप खड़े थे । यहाँ हनुमान जी का चुपचाप खड़े रहना विनम्रता का भाव परिलक्षित करता है । विनम्र व्यक्ति कायर नहीं होता। वह यत्र-तत्र अपना दंभ नहीं प्रकट करता, बल्कि विनम्रता के भाव को संजोकर रखता है और जब कोई विपरीत परिस्थिति आती है तब संजोकर रखी गई संचित शक्ति के बल पर जटिल और विपरीत हालात का मुकाबला करता है तथा उसे सफलता भी मिलती है।


हनुमान जी पवन पुत्र हैं। पवन यानी वायु । वायु में सर्वाधिक उपयोगी प्राणवायु होती है। हनुमान जी प्रकारांतर से खुद को प्राणवायु का प्रतिनिधि बताते हुए यह संदेश देते हैं कि मनुष्य भले नकारात्मकता में क्यों न जीवन जीता हो, यदि प्रातःकाल योग प्राणायाम करके अधिक से अधिक प्राणवायु हृदय में संचित कर ले, तब काम, क्रोध, मद और लोभ जैसे विकार से वह मुक्त हो जाएगा। यही वे विकार हैं, जो किसी व्यक्ति को रावण बनाते हैं। प्राणायाम के जरिये जब कोई साधक शरीर में अधिकाधिक प्राणवायु संचित कर लेता है तब उसके अंदर कै विजातीय पदार्थ जलकर नष्ट हो जाते हैं। लंका जलाने के पीछे हनुमान जी का यह संदेश भी निहित है।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022


नीति का आचरण


भारतीय चिंतन में उन लोगों को ही राक्षस, असुर या दैत्य कहा गया है, जो समाज में तरह-तरह से अशांति फैलाते हैं। असल में इस तरह के दानवी सोच वाले लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। ऐसे लोग धन-संपत्ति आदि के जरिये सिर्फ अपना ही उत्थान करना चाहते हैं, भले ही इस कारण दूसरे लोगों और पूरे समाज का कोई अहित क्यों न हो रहा हो। धर्म कहता है कि विश्व को श्रेष्ठ बनाओ। यह श्रेष्ठता तब ही आएगी जब कुटिल चालों से मानवता की रक्षा की जाएगी। आज भौतिक मूल्य समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुके हैं कि उन्हें निर्मूल करना आसान नहीं है। मनुष्य का कर्म दूषित हो गया है। यदि धर्म को उसके स्थान पर सुरक्षित रखा गया होता तो इतनी मारकाट न होती । संतों का कहना है कि समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य है। मनुष्यों के मेल से समाज और समाजों के मेल से राष्ट्र बनता है। यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो समाज और राष्ट्र अपनेआप सुधर जाएंगे। इसलिए संतों ने पंच महाव्रत की महिमा बताई। मनुष्यों के जीवन और कृत्य के परिष्कार 'के लिए इससे बढ़कर रास्ता हो नहीं सकता। अगर मनुष्य का आचरण सत्य, करुणा, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर आधारित होगा तो वह अपने धंधे में किसी प्रकार की बुराई नहीं करेगा । जीवन की शुद्धता कर्म की शुद्धता की आधारशिला है। धर्म मनुष्य के भीतर की गंदगी को दूर करता है और जिसके भीतर निर्मलता होगी, उसके हाथ कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे।


मनुष्य अब समझने लगा है कि धर्म के बिना उसका विस्तार नहीं है, किंतु भोगवादी जीवन का वह अब इतना अभ्यस्त हो गया है कि बाह्य आडंबर की मजबूत डोर को तोड़कर सादा और सात्विक जीवन अपनाना उसके लिए कठिन हो रहा है। इस कठिनता से उबारने के लिए नीति बल यानी धर्म की शक्ति सर्वोपरि है। अतः मनुष्य मात्र परमार्थ और परोपकार रूपी नीति का आचरण करे।

सोमवार, 10 अक्तूबर 2022

शाश्वत सत्य

 शाश्वत सत्य

इस समय धर्म ग्रंथों के शाश्वत वचन भाषण तक ही सीमित होकर रह गए हैं। भाषण देने वाले अधिकांश लोग भी धर्म ग्रंथों के ज्ञान एवं अनुभव से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि समाज पर इसका कोई सकारात्मक असर नहीं हो रहा है। इससे व्यक्ति की पीड़ा कम होने के स्थान पर बढ़ती ही जा रही है, जिससे जीवन तमाम समस्याओं में डूबता जा रहा है। यह सत्य है कि हर धर्म ग्रंथ में कहे गए शाश्वत वचन दैवीय वचन ही हैं, जो उसकी प्रेरणा स्वरूप लिखे गए हैं, लेकिन इनकी गहराई का अहसास तभी हो सकता है जब इनको पढ़ने एवं सुनने वालों में इन्हें अनुभव करने की शक्ति विकसित हो। बिना इसके शाश्वत वचनों का प्रचार-प्रसार, कथा एवं प्रवचन सब निरर्थक हैं।


धर्म का आचरण यदि सही ढंग से नहीं किया जाता तो यह केवल आडंबर बनकर रह जाता है। इसका सही आचरण निश्चित ही व्यक्ति को देवत्व प्रदान करता है, किंतु गलत आचरण नर्क की ओर ले जाता है। इन दिनों ऐसा भी देखा जा रहा है कि धर्म का एक ऐसा अन्यायी भूत लोगों के मन में घुस गया है जिसे वे बाहर निकालना नहीं चाहते. और न ही इसकी सूक्ष्मता पर विचार करते हैं। वास्तव में धर्म के वास्तविक अर्थ को समझने वाले बहुत ही कम हैं और जो हैं उनमें भी अधिकांश सही तरह से इसका अनुसरण नहीं कर रहे हैं। ये लोगों की नासमझी का लाभ उठाकर अपनी-अपनी दुकान चला रहे हैं तथा धर्म के नाम पर मनुष्य को ऐसे तोते के समान बना देना चाहते हैं, जो केवल वही भाषा बोलें जो उन्हें बताई जाए।

प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान का अकूत भंडार है, जो दुनिया के हर धर्म-पंथ के बारे में समझ सकता है। इसे बस थोड़ा सा प्रयास करके जागृत करना होता है। जो ऐसा करने में सफल हो जाते हैं उन्हें सभी धर्म-पंथ एक जैसे ही दिखते हैं, न तो कोई छोटा और न ही कोई बड़ा, क्योंकि शाश्वत सत्य तो हर धर्म ग्रंथ में एक ही है। व

ओशो कहते हैं कि आप मानसिक साधना करिए ,ध्यान करिए, प्राणायाम करिए। आप कुछ समय अंधेरे में बैठें और अपने साथ रहे ,अपने मन में जो विचार आ रहे हैं ,उन्हें सिनेमा हॉल में बैठे हुए दर्शक की तरह देखते रहे। उसके साथ मत चले  कुछ समय बाद ऐसा होगा आपके मन में उठने वाले विचार भी कम होते जाएंगे और एक समय ऐसा आएगा कि आप मन की अतल गहराइयों में पहुँच जाएंगे और आपका मन शांत होने लगेगा और आपको सच्चा आनंद आने लगेगा। 

शनिवार, 8 अक्तूबर 2022

अंतर्मन की शांति


अंतर्मन की शांति

प्रत्येक मनुष्य जीवन में शांति की कामना करता है, किंतु उसकी प्राप्ति सरल नहीं। शांति को यदि - सुख का पर्याय माना जाए तो सर्वथा उचित होगा। शांति का अर्थ है कि हम बाहर से शांत दिखने के अतिरिक्त अंतर्मन को भी शांत रखें। बाहर से शांत दिखना अपेक्षाकृत सरल है, किंतु अंतर्मन की शांति अर्थात वास्तविक शांति को प्राप्त करना उतना ही कठिन। किसी प्रकट शांति के भीतर प्रायः एक अप्रकट कोलाहल विद्यमान होता है। इस कोलाहल की तीव्रता अत्यंत उच्च, किंतु प्रभावक्षेत्र अति सीमित होता है। भौतिकशात्र की दृष्टि से देखें तो इस कोलाहल का घनत्व अत्यधिक होता है।


चूंकि कोलाहल कहीं न कहीं ऊर्जा का ही एक अव्यवस्थित रूप है तो कहा जा सकता है कि उस सीमित क्षेत्र में उच्च ऊर्जा घनत्व विद्यमान होता है। ऊर्जा के इस अव्यवस्थित रूप का किसी अन्य व्यवस्थित रूप में परिवर्तन यद्यपि मुश्किल है, किंतु यदि संभव हो जाए तो आश्चर्यजनक रूप से सकारात्मक परिणाम प्राप्त होंगे। अंतर्मन की शांति हेतु यह अनिवार्य है कि आपके भीतर वैचारिक उथल-पुथल अथवा चिंता, तनाव एवं दुख जैसे मनोभाव उत्पन्न न हो रहे हों। वस्तुतः किसी भी मनोभाव की अति अथवा असंतुलन ही अंतर्मन 'में अशांति को जन्म देता है। मन में उत्पन्न कोई विचार ठहरे हुए जल में उत्पन्न एक तरंग के समान है। जिस प्रकार तरंग के उत्पन्न होते ही जल की शांति भंग हो जाती है, ठीक उसी प्रकार मन में किसी विचार के उत्पन्न होने पर मन की शांति का स्तर गिर जाता है।


हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान को मानसिक शांति हेतु एक अमोघ अस्त्रं बताया है। ध्यान  के नियमित अभ्यास द्वारा अंतर्मन की शांति का अपेक्षित स्तर प्राप्त किया जा सकता है।

आप जीवन जीने की कला के प्रणेता श्री श्री रविशंकर जी की सुदर्शन क्रिया सीख सकते हैं। आप जग्गी वासुदेव की इनर इंजीनियरिंग क्रिया ,जिसे ईशा योग कहते हैं उसे भी सीख सकते हैं।  लेकिन आंतरिक सफ़ाई के लिए जब तक आप कुछ नहीं करेंगे, जब तक आप अपने मन में झाड़ू नहीं लगाएंगे ,तब तक आपको आंतरिक शांति नहीं मिलेगी। मन में झाड़ू लगाने हेतु ये क्रियाएँ बहुत प्रभावशाली है। 

शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

ज्ञान और श्रद्धा

 ज्ञान और श्रद्धा


भगवान कृष्ण ने गीता में ज्ञान और श्रद्धा का विस्तार से वर्णन किया है। श्रद्धा वस्तुतः क्रमबद्ध ज्ञान, बुद्धि और मन की सीढ़ियों को पार करके प्राप्त होती है। कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार अर्जुन दुविधाग्रस्त थे, उसी तरह आज भी तमाम लोग जीवन-रण में जूझ रहे हैं। इस संघर्ष के मूल में है ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव। यदि मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त है तो वह मन को नियंत्रण कर दैवीय मार्ग पर उन्मुख हो सकता है, परंतु यदि मनुष्य को ज्ञान ही नहीं तो वह अच्छे-बुरे का निर्णय नहीं कर पाता। अपनी इंद्रियों के भोग में लिप्त होकर पतन के मार्ग पर चला जाता है। इसलिए मनुष्य को संसार में उचित ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होकर गुरु की शरण में जाना चाहिए ।


बुद्धि ज्ञान द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रित करती है, जिससे वे अनैतिक एवं अपवित्र अनुभव मन तक न पहुंचा सकें। यदि ऐसे अनुभव मन तक पहुंच भी जाते हैं, तो बुद्धि उन्हें ज्ञान की शक्ति द्वारा वहां से निकाल देती है। इस प्रकार मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है और वह स्वयं को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम हो पाता है। इसी निर्मल मन से वह अपना जीवन युद्ध ईश्वर को समर्पित करके लड़ता है। इसमें कर्म योग के ज्ञान द्वारा वह निष्काम कर्म करके कर्मफल ईश्वर को समर्पित करता है। इस प्रकार मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसने पहले ही उसे ईश्वर को समर्पित किया होता है। यानी कर्म योग की सिद्धि भी ज्ञान की शक्ति से ही संभव हो सकती है।


जीवन के महाभारत युद्ध रूपी रण को जीतने के लिए मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति का ही प्रयास करना चाहिए, क्योंकि ज्ञान की शक्ति द्वारा ही वह अर्जुन की भांति अपने जीवन युद्ध में सफल हो सकता है। ज्ञान की इस प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति श्रद्धा के पथ का अनुगमन आवश्यक होता है।