नीति का आचरण
भारतीय चिंतन में उन लोगों को ही राक्षस, असुर या दैत्य कहा गया है, जो समाज में तरह-तरह से अशांति फैलाते हैं। असल में इस तरह के दानवी सोच वाले लोग सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं। ऐसे लोग धन-संपत्ति आदि के जरिये सिर्फ अपना ही उत्थान करना चाहते हैं, भले ही इस कारण दूसरे लोगों और पूरे समाज का कोई अहित क्यों न हो रहा हो। धर्म कहता है कि विश्व को श्रेष्ठ बनाओ। यह श्रेष्ठता तब ही आएगी जब कुटिल चालों से मानवता की रक्षा की जाएगी। आज भौतिक मूल्य समाज में अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा चुके हैं कि उन्हें निर्मूल करना आसान नहीं है। मनुष्य का कर्म दूषित हो गया है। यदि धर्म को उसके स्थान पर सुरक्षित रखा गया होता तो इतनी मारकाट न होती । संतों का कहना है कि समाज की बुनियादी इकाई मनुष्य है। मनुष्यों के मेल से समाज और समाजों के मेल से राष्ट्र बनता है। यदि मनुष्य अपने को सुधार ले तो समाज और राष्ट्र अपनेआप सुधर जाएंगे। इसलिए संतों ने पंच महाव्रत की महिमा बताई। मनुष्यों के जीवन और कृत्य के परिष्कार 'के लिए इससे बढ़कर रास्ता हो नहीं सकता। अगर मनुष्य का आचरण सत्य, करुणा, प्रेम, अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर आधारित होगा तो वह अपने धंधे में किसी प्रकार की बुराई नहीं करेगा । जीवन की शुद्धता कर्म की शुद्धता की आधारशिला है। धर्म मनुष्य के भीतर की गंदगी को दूर करता है और जिसके भीतर निर्मलता होगी, उसके हाथ कभी दूषित कर्म नहीं करेंगे।
मनुष्य अब समझने लगा है कि धर्म के बिना उसका विस्तार नहीं है, किंतु भोगवादी जीवन का वह अब इतना अभ्यस्त हो गया है कि बाह्य आडंबर की मजबूत डोर को तोड़कर सादा और सात्विक जीवन अपनाना उसके लिए कठिन हो रहा है। इस कठिनता से उबारने के लिए नीति बल यानी धर्म की शक्ति सर्वोपरि है। अतः मनुष्य मात्र परमार्थ और परोपकार रूपी नीति का आचरण करे।
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