इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

बुधवार, 24 अगस्त 2022

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

 आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी



     ----भानु प्रकाश नारायण 

हिंदी साहित्य के उत्कृष्ट साहित्यकार, प्रसिध्द आलोचक, निबंधकार एवंं उपन्यासकार  बैजनाथ द्विवेदी जिन्हें हम आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के नाम से जानते हैं।इनका जन्म 19 अगस्त 1907 ( श्रावण शुक्ल एकादशी) को ग्राम आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया, बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ था।द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था। उनके पिता का नाम पंडित अनमोल द्विवेदी था, जो संस्कृत के एक प्रकांड विद्वान थे। उनकी माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती देवी था। उनकी पत्नी का नाम भगवती देवी था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। 

      द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के विद्यालय से हुई। उन्होंने 1920 में बसरिकापुर के मिडिल स्कूल से मिडिल स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। फिर सन् 1923 में वे विद्याध्ययन के लिए काशी चले गए। वहाँ उन्होंने रणवीर संस्कृत पाठशाला, कमच्छा से प्रवेशिका परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान के साथ उत्तीर्ण की। यहाँ रहकर उन्होंने 1927 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1929 में उन्होंने इंटरमीडिएट और

संस्कृत साहित्य में शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण की। फिर 1930 में उन्होंने ज्योतिष विषय में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। शास्त्री तथा आचार्य दोनों ही परीक्षाओं में उन्हें प्रथम श्रेणी प्राप्त हुआ।

पहले वे मिर्जापुर के एक विद्यालय में अध्यापक हुए, वहाँ पर आचार्य क्षितिजमोहन सेन ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और वे उन्हें अपने साथ शांति-निकेतन ले गए।

8 नवंबर, 1930 को हिन्दी शिक्षक के रुप में शांतिनिकेतन में कार्यरंभ किया। आपने शांतिनिकेतन में  20 वर्षों तक 1930 से ‌1950 तक हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष रहे। 

        आपने अभिनव भारती ग्रंथमाला व विश्वभारती पत्रिका का संपादन किया।  हिंदी भवन, विश्वभारती, के संचालक रहे।  लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑव लिट्रेचर की उपाधि पायी। 1950  में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति हुए। विश्वभारती विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव कांउसिल के सदस्य रहे, काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष, साहित्य अकादमी दिल्ली की साधारण सभा और प्रबंध-समिति के सदस्य रहे। नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, के हस्तलेखों की खोज तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल बिब्लियोग्रैफी  के निरीक्षक रहे। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति-मनोनीत सदस्य रहे।  1957 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित किए गए। 1960-67  तक पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में हिंदी प्रोफेसर और विभागध्यक्ष रहे।

1962 में पश्चि बंग साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। 1967  के पश्चात्  पुन: काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद पर भी रहे। 1973 में साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया।

आचार्य द्विवेदी जी की भाषा उनकी रचना के अनुरूप होती है। उनकी भाषा के तीन रूप हैं- तत्सम प्रधान, सरल तद्भव प्रधान एवं उर्दू अंग्रेजी शब्द युक्त।

आपने भाषा को प्रवाह पूर्ण एवं व्यवहारिक बनाने के लिए लोकोक्तियों एवं मुहावरों का सटीक प्रयोग किया है। प्रांजलता, भाव प्रवणता,सुबोधता , अलकरिता,सजीवता और चित्रोपमता आपकी भाषा की विशेषता है।


मुख्य कृतियाँ


आलोचना : हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, साहित्य सहचर, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास, सूर साहित्य, कबीर, कालिदास की लालित्य योजना, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, साहित्य का मर्म, प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद, मेघदूत : एक पुरानी कहानी, मध्यकालीन धर्म साधना, सहज साधना


उपन्यास : बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा, अनामदास का पोथा, चारु चंद्रलेख


निबंध : कल्प लता, विचार और वितर्क, अशोक के फूल, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, कुटज


अन्य : मृत्युंजय रवीन्द्र, महापुरुषों का स्मरण


संपादन : पृथ्वीराज रासो, संदेश रासक, नाथ सिध्दों की बानियाँ, अभिनव भारती ग्रंथमाला व विश्वभारती पत्रिका का संपादन।


       जीवन के अंतिम दिनों में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के उपाध्यक्ष पद को इन्होंने सुशोभित किया ।

               19 मई 1979 को चमकता हुआ सितारा हमेशा हमेशा के लिए हमारी आंखों से ओझल  हो गया।  


**************************

रविवार, 21 अगस्त 2022

विश्व वरिष्ठ नागरिक दिवस

 अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस 

               प्रत्येक वर्ष 21 अगस्त को अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 14 दिसंबर, 1990 में इस दिवस को मनाने की घोषणा की गई थी। पहली बार 1 अक्तूबर, 1991 को अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया गया था। संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने 19 अगस्त, 1988 को प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किए और 21 अगस्त, 1988 को संयुक्त राज्य में पहली बार अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाया गया। यह दिन दुनिया भर में बुजुर्गों की वर्तमान स्थिति के साथ-साथ उनके योगदान की समस्याओं को प्रतिबिंबित करने के लिए मनाया जाता है

1. मुख्य उद्देश्य

2. भारतीय संस्कृति में वृद्धों का महत्त्व

3. वरिष्ठ आज कुंठित क्यों

4 .जीवन का अनिवार्य सत्य 'वृद्धावस्था'

5. व्यावसायिकता की चोट-

मुख्य उद्देश्य-

अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस का आधिकारिक तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन द्वारा श्रीगणेश किया गया था। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य संसार के बुजुर्ग लोगों को सम्मान देने के अलावा उनकी वर्तमान समस्याओं के बारे में जनमानस में जागरूकता बढ़ाना है। प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई हैं? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोकना आवश्यक है। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है। विश्व में इस दिवस को मनाने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परन्तु सभी का मुख्य उद्देश्य यह होता है कि वे अपने बुजुर्गों के योगदान को न भूलें और उनको अकेलेपन की कमी को महसूस न होने दें।

भारतीय संस्कृति में वृद्धों का महत्त्व-

भारत तो बुजुर्गों को भगवान के रूप में मानता है। इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण है कि माता-पिता की आज्ञा से भगवान श्रीराम जैसे अवतारी पुरुषों ने राजपाट त्याग कर वनों में विचरण किया, मातृ-पितृ भक्त श्रवण कुमार ने अपने अन्धे माता-पिता को काँवड़ में बैठाकर चारधाम की यात्रा कराई। फिर क्यों आधुनिक समाज में वृद्ध माता-पिता और उनकी संतान के बीच दूरियां बढ़ती जा रही हैं। आज का वृद्ध समाज-परिवार से कटा रहता है और सामान्यतः इस बात से सर्वाधिक दुःखी है कि जीवन का पूर्ण अनुभव होने के बावजूद कोई उनकी राय न तो लेना चाहता है और न ही उनकी राय को महत्व देता है। समाज में अपनी एक तरह से अहमियत न समझे जाने के कारण हमारा वृद्ध समाज दुःखी, उपेक्षित एवं त्रासद जीवन जीने को विवश है। वृद्ध समाज को इस दुःख और कष्ट से छुटकारा दिलाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है। आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करें ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हे प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके।

वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा, जैसाकि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि- यदि वृद्धावस्था की झूर्रियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।

वरिष्ठ आज कुंठित क्यों?

वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है, एक अहम प्रश्न है। अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। वृद्ध समाज को इस दुःख और संत्रास से छुटकारा दिलाने के लिये ठोस प्रयास किये जाने की बहुत आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुर्व्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कह कर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है।

जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं। बुजुर्गों के साथ होने वाले अन्याय के पीछे एक मुख्य वजह सामाजिक प्रतिष्ठा मानी जाती है। तथाकथित व्यक्तिवादी एवं सुविधावादी सोच ने समाज की संरचना को बदसूरत बना दिया है। सब जानते हैं कि आज हर इंसान समाज में खुद को बड़ा दिखाना चाहता है और दिखावे की आड़ में बुजुर्ग लोग उसे अपनी शान-शौकत एवं सुंदरता पर एक काला दाग दिखते हैं। आज बन रहा समाज का सच डरावना एवं संवेदनहीन है। आदमी जीवन मूल्यों को खोकर आखिर कब तक धैर्य रखेगा और क्यों रखेगा जब जीवन के आसपास सबकुछ बिखरता हो, खोता हो, मिटता हो और संवेदनाशून्य होता हो। डिजरायली का मार्मिक कथन है कि यौवन एक भूल है, पूर्ण मनुष्यत्व एक संघर्ष और वार्धक्य एक पश्चाताप।’ वृद्ध जीवन को पश्चाताप का पर्याय न बनने दें।

जीवन का अनिवार्य सत्य 'वृद्धावस्था'-

कटु सत्य है कि वृद्धावस्था जीवन का अनिवार्य सत्य है। जो आज युवा है, वह कल बूढ़ा भी होगा ही, लेकिन समस्या की शुरुआत तब होती है, जब युवा पीढ़ी अपने बुजुर्गों को उपेक्षा की निगाह से देखने लगती है और उन्हें अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से लड़ने के लिए असहाय छोड़ देती है। आज वृद्धों को अकेलापन, परिवार के सदस्यों द्वारा उपेक्षा, तिरस्कार, कटुक्तियां, घर से निकाले जाने का भय या एक छत की तलाश में इधर-उधर भटकने का गम हरदम सालता रहता। वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय अधुनातन बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। इसीलिये सिसरो ने कामना करते हुए कहा था कि- जैसे मैं वृद्धावस्था के कुछ गुणों को अपने अन्दर समाविष्ट रखने वाला युवक को चाहता हूं, उतनी ही प्रसन्नता मुझे युवाकाल के गुणों से युक्त वृद्ध को देखकर भी होती है, जो इस नियम का पालन करता है, शरीर से भले वृद्ध हो जाए, किन्तु दिमाग से कभी वृद्ध नहीं हो सकता। वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे वार्धक्य को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं।

आज जहां अधिकांश परिवारों में भाइयों के मध्य इस बात को लेकर विवाद होता है कि वृद्ध माता-पिता का बोझ कौन उठाए, वहीं बहुत से मामलों में बेटे-बेटियां, धन-संपत्ति के रहते माता-पिता की सेवा का भाव दिखाते हैं, पर जमीन-जायदाद की रजिस्ट्री तथा वसीयतनामा संपन्न होते ही उनकी नजर बदल जाती है। इतना ही नहीं संवेदनशून्य समाज में इन दिनों कई ऐसी घटनाएं प्रकाश में आई हैं, जब संपत्ति मोह में वृद्धों की हत्या कर दी गई। ऐसे में स्वार्थ का यह नंगा खेल स्वयं अपनों से होता देखकर वृद्धजनों को किन मानसिक आघातों से गुजरना पड़ता होगा, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। वृद्धावस्था मानसिक व्यथा के साथ सिर्फ सहानुभूति की आशा जोहती रह जाती है। इसके पीछे मनोवैज्ञानिक परिस्थितियां काम करती हैं। वृद्धजन अव्यवस्था के बोझ और शारीरिक अक्षमता के दौर में अपने अकेलेपन से जूझना चाहते हैं पर इनकी सक्रियता का स्वागत समाज या परिवार नहीं करता और न करना चाहता है। बड़े शहरों में परिवार से उपेक्षित होने पर बूढ़े-बुजुर्गों को ‘ओल्ड होम्स’ में शरण मिल भी जाती है, पर छोटे कस्बों और गांवों में तो ठुकराने, तरसाने, सताए जाने पर भी आजीवन घुट-घुट कर जीने की मजबूरी होती है। यद्यपि ‘ओल्ड होम्स’ की स्थिति भी ठीक नहीं है।

व्यावसायिकता की चोट-

पहले जहां वृद्धाश्रम में सेवा-भाव प्रधान था, पर आज व्यावसायिकता की चोट में यहां अमीरों को ही प्रवेश मिल पा रहा है। ऐसे में मध्यमवर्गीय परिवार के वृद्धों के लिए जीवन का उत्तरार्द्ध पहाड़ बन जाता है। वर्किंग बहुओं के ताने, बच्चों को टहलाने-घुमाने की जिम्मेदारी की फिक्र में प्रायः जहां पुरुष वृद्धों की सुबह-शाम खप जाती है, वहीं महिला वृद्ध एक नौकरानी से अधिक हैसियत नहीं रखती। यदि परिवार के वृद्ध कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे हैं, रुग्णावस्था में बिस्तर पर पड़े कराह रहे हैं, भरण-पोषण को तरस रहे हैं तो यह हमारे लिए वास्तव में लज्जा एवं शर्म का विषय है। पर कौन सोचता है, किसे फुर्सत है, वृद्धों की फिक्र किसे हैं? भौतिक जिंदगी की भागदौड़ में नई पीढ़ी नए-नए मुकाम ढूंढने में लगी है, आज वृद्धजन अपनों से दूर जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर कवीन्द्र-रवीन्द्र की पंक्तियां गुनगुनाने को क्यों विवश है- दीर्घ जीवन एकटा दीर्घ अभिशाप’, दीर्घ जीवन एक दीर्घ अभिशाप है।

हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजर अंदाज़ किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे, जो इन लोगों के पास है। अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम अपने वृद्धों को परिवार में सम्मानजनक जीवन देंगे, उनके शुभ एवं मंगल की कामना करेंगे।

***************************************

शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

राम और कृष्ण

 संकलन

रामत्व से कृष्णत्व की ओर





----------------------------------


         भारतीय जनमानस के परम आदर्श राम भी हैं और कृष्ण भी।ये दोनों भारतीय धर्म-परंपरा के ऐसे प्रज्ञा-पुरुष हैं जिनसे हर देश-काल का व्यक्ति प्रेरणा लेता है-मर्यादा   की भी और असीमता की भी।

           भगवान राम का जीवन मर्यादाओं को कभी तोड़ता नहीं है, जबकि कृष्ण समय आने पर इसका अनुसरण नहीं करते हैं। राम का जीवन एक आदर्श है तो कृष्ण का जीवन एक उत्सव।    

           पुत्र    के रूप में वनवास, भाई के रूप में पादुका -त्याग और पति के रूप में सीता- वियोग  ......    राम के दुखों का ना ओर ना छोर। सत्य के पथ पर अटल राम कभी अपनी मर्यादा नहीं त्यागते। दूसरी तरफ कृष्ण हैं जो परिस्थिति खराब होने पर मैदान को छोड़ना भी बुरा नहीं मानते और रणछोड़ कहलाते हैं।

राम राजा हैं, कृष्ण राजनीति।                                        राम रण हैं , कृष्ण रणनीति।

            राम ऋषियों के रक्षार्थ असुरों का वध करते हैं जबकि बंदी गृह में जन्मे कृष्ण को शैशव में ही दांवपेच की विभीषिका से जूझना पड़ता है। मर्यादा का पालन करते हुए राम एक -पत्नीवव्रत धारण करते हैं। उन्होंने सीता जी से प्रेम किया और उन्हीं से विवाह भी। परंतु कृष्ण ने प्रेम तो राधा से किया लेकिन विवाह रुक्मणी से। राम का नाम उनकी पत्नी के साथ लिया जाता है जबकि कृष्ण का उनकी प्रेमिका के साथ।

        राम को मारीच भ्रमित कर सकता है पर कृष्ण को पूतना की ममता भी उलझा नहीं सकती।

राम लक्ष्मण को मूर्छित देखकर बिलख पड़ते हैं लेकिन कृष्ण अभिमन्यु को दांव पर लगाने से भी नहीं हिचकते।

        व्यक्ति का कृष्ण होना भी उतना ही जरूरी है जितना राम होना।

   एक कंस पापी संहारे एक दुष्ट रावण को मारे

दोनों अधिन दुखहर्ता दोनों बल के धाम।

          राम आदर्शों को निभाते हुए कष्ट सहते है ,कृष्ण स्थापित आदर्शों को चुनौती देते हुए एक नई परिपाटी को जन्म देते हैं।

         राम मानवीय मूल्यों के लिए लड़ते हैं, कृष्ण मानवता के लिए।       

         राम अनुकरणीय हैं, कृष्ण चिंतनीय।

************************"**********

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

वर्ष १९५९ (1959) की पुरातन स्‍टेशन संचालन नियमावली - मुर्तिहा स्‍टेशन, गोण्‍डा डिस्‍ट्रिक्‍ट, पूर्वोत्‍तर रेलवे

वन्दे मातरम्

 राष्ट्रीय-गीत

वन्दे मातरम्, वन्दे मातरम्।

सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम्।

शस्य श्यामलाम् मातरम्।

वन्दे मातरम्।।

शुभ्रज्योत्स्नाम् पुलकित यामिनीम्।

फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्॥

सुहासिनीम् सुमधुरभाषिणीम्।

सुखदाम् वरदाम् मातरम्।

वन्दे मातरम्।

हम अपनी मातृभूमि की वन्दना करते हैं, हे माँ तुम्हे नमस्कार, हे माँ तुम्हे नमस्कार। मेरी यह मातृभूमि शीतल जल और सुस्वादु फलों से युक्त है। मेरी मातृभूमि मलयागिरि के चन्दन के समान शीतलता प्रदान करने वाली है। मेरी मातृभूमि अपनी फसलों (खाद्यान्न) एवं वनस्पतियों से हरी-भरी है। मैं इस मातृभूमि को वन्दन करता हूँ। इस धरती माता की रात्रि स्वच्छ चाँदनी में विहँसती (खिलखिलाती) है तथा खिले हुए पुष्पों एवं लताओं से सुशोभित होकर प्रसन्न है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस धरती माँ की प्राकृतिक सम्पदा को पाकर मातृभूमि हम सभी से मधुर संभाषण (वार्तालाप) करने को उत्कंठित (आतुर) है।

**********†***************

बुधवार, 17 अगस्त 2022

स्वतंत्रता का उपभोग

 

स्वतंत्रता का उपभोग

    मनुष्य कामना करता है कि उसके विचारों, आचरण को किसी प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। मनुष्य स्वयं निर्णय करना चाहता है कि उसे कैसे विचार धारण करने हैं और कैसा आचरण करना है। इसे वह पूर्ण स्वतंत्रता मानता है। हालांकि पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई अवधारणा व्यावहारिक नहीं है। पूर्ण स्वतंत्र मनुष्य भी कम से कम स्व हित के अंकुश में रहता ही है। जब स्व हित को केंद्र में रख कर मनुष्य अपने विचारों और आचरण का निर्धारण करता है तब उसमें दायित्व की भावना जन्म लेती है।

    स्वहित सुनिश्चित करना है तो अवगुण त्यागने होंगे, क्योंकि उनका कुफल भोगना पड़ता है। अवगुणी, कदाचारी की स्वतंत्रता सर्वप्रथम स्वयं उसके लिए अभिशाप बनती है। नदी का पानी बहने को स्वतंत्र है, किंतु जब वह किनारे तोड़ देता है तो अपना मोल खो देता है। वायु प्रवाह की गति सामान्य सीमा लांघ जाती है तो धूल से भर जाती है। मनुष्य के घर से बाहर खड़े रहने पर कोई रोक नहीं है, किंतु जब वह लंबे समय तक निष्प्रयोज्य धूप में खड़ा रहे तो उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। स्वतंत्रता . स्व हित से ही आरंभ होनी चाहिए। यदि मनुष्य का व्यवहार संयमित, शिष्ट एवं सद्भावपूर्ण होगा तो उसे आत्मसंतुष्टि प्राप्त होगी। यदि उसमें लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, अनुदारता, संकीर्णता होगी तो वह सहज नहीं रह सकेगा और स्वयं ही संताप सहेगा। अपने किसी विचार, किसी कर्म की परख सर्वप्रथम आत्मिक अनुभूति की कसौटी पर ही करनी चाहिए। आत्मसंतुष्टि स्वाधीनता है और संताप पराधीनता है। अंतर्मन की स्वतंत्रता ही बाहर प्रकट होती है। यह मन से मानव समाज तक की यात्रा है। मनुष्य के विचार एवं आचरण समाज तथा देश को पूर्णता में प्रभावित करते हैं। जब तक अपने मन की निर्मलता
अक्षुण्ण रहेगी, स्वतंत्रता का आनंदपूर्ण उपभोग करने की योग्यता बनी रहेगी। जब स्वहित के साथ सर्वहित का सुयोग हो जाता है, तब स्वतंत्रता के आनंदित उपभोग का अवसर बन जाता है।


अहंकार का परित्याग

 अहंकार का परित्याग


    अहंकार किसी भी व्यक्ति का पतन सुनिश्चित कर देता है। जहां अहंकार होता है वहां विनम्रता, बुद्धि, विवेक और चातुर्य का लोप हो जाता है। वस्तुतः अहंकार मनुष्य के मस्तिष्क द्वार पर जड़ा ऐसा ताला है, जो सद्गुणों का भीतर प्रवेश नहीं होने देता। कहा भी गया है कि 'अहंकार में तीनों गए बल, बुद्धि और वंश, ना मानो तो देख लो कौरव, रावण और कंस।' अहंकारी व्यक्ति अपने मद में दूसरों को तुच्छ समझता है। अहंकार मनुष्य को आत्मघाती दलदल में धकेल देता है और उसे यह आभास भी नहीं होता। वह मनुष्य को न केवल सच्चाई से परे एक कल्पना लोक में ले जाता है, बल्कि जीवन के साथ सामंजस्य स्थापित करने वाली परिस्थितियों से भी दूर कर देता है। जो लोग अहंकार करते हैं, उनके सभी गुण विलुप्त हो जाते हैं। रूप-सौंदर्य हो या उच्च पद या बहुत ज्यादा धन, मनुष्य को कभी भी उन पर अहंकार नहीं करना चाहिए। ये सभी शाश्वत नहीं है तो फिर गुमान किस बात का ।

    अहंकार के उलट स्वाभिमानी होना अच्छा गुण है। लोगों में यह गुण विद्यमान होना चाहिए, परंतु आज तमाम लोग इन दोनों में तार्किक विभेद नहीं कर पाते। लोग अहंकार के वशीभूत होकर आवेश में लिए फ़ैसलों को स्वाभिमान से जोड़कर देखने लगे हैं, जो कदापि उचित नहीं। वे अपनी सफलता पर अहंकार करने लगते हैं। इससे उनकी योग्यता कम होने लगती है। अभिमान में फूलना स्वयं को भूलना ही है।

    मनुष्य को सदैव अपने संघर्ष के समय को याद रखना चाहिए। कुछ लोगों में सफलता के उपरांत अहंकार की भावना घर कर जाती है। ऐसे लोगों की सफलता अधिक दिनों तक नहीं रहती। सदैव स्मरण रखना चाहिए कि सफलता के बाद अहंकार का नहीं, अपितु विनम्रता के भाव को पोषित करना चाहिए । इसमें कोई दो राय नहीं कि अहंकार और अकड़ वास्तव में ऐसी दौड़ है, जहां हर जीतने वाला हार जाता है। इसीलिए जीवन में अहंकार का परित्याग कर विनम्र होना ही श्रेयस्कर है।

सबसे बड़ा शिक्षक

 सबसे बड़ा शिक्षक


जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि। जहां न पहुंचे कवि, वहां पहुंचे अनुभवी । और जहां न पहुंचे अनुभवी, वहां पहुंचे स्वानुभवी । उक्त कहावत से इतना अवश्य ही सिद्ध होता है कि हमारे जीवन का सबसे बड़ा शिक्षक है हमारा अनुभव, क्योंकि बाकी सभी शिक्षाएं तो हम स्कूली किताबों से प्राप्त कर लेते हैं, परंतु जीवन रूपी यात्रा में तो सीखने के लिए कोई किताब साथ नहीं होती। ऐसे में हमारा अपना अनुभव ही हमें सिखाता है कि क्या करें और क्या न करें।

हममें से ज्यादातर लोग कोशिश करने पर भी अतीत में किए हुए कर्मों को भुला नहीं पाते, पर क्या भूतकाल की स्मृतियों में रहने से हमारा वर्तमान या भविष्य सुधर पाएगा? नहीं। बीते समय के बारे में सोचने से हमारे भीतर केवल क्रोध, प्रतिशोध और असंतोष की भावना ही उत्पन्न होगी, जिससे न हमारा और न हमारे आसपास रहने वालों का कोई फायदा होगा। हर विफलता के पीछे सफलता का एक सुअवसर छुपा हुआ होता है। यह जीवन का सबसे बड़ा सत्य है। अतः असफलता के लिए पूर्व जन्म के कर्मों को दोष देना छोड़ कर राह में आई बाधाओं को दूर कर अपने कदम आगे बढ़ाते रहने में समझदारी हैं। उसी में हमारा और अन्य लोगों का कल्याण है।

विश्व में ऐसा कोई भी मानव नहीं है जिसने कष्ट न भोगे हों, क्योंकि हर एक को दर्द, पीड़ा एवं हार अपनी जीवन यात्रा के दौरान सहन करने ही पड़ते हैं। तो अपने अतीत के बारे में दुखी होकर सोचने के बजाय क्यों न हम यह सोचें कि हमने कितने दर्द भरे रास्तों पर चलकर आज यह लक्ष्य हासिल किया और आगे भी ऐसे ही सफलताओं को हासिल करते. रहेंगे। याद रखें ! ईश्वर कठिन परीक्षा उन्हीं की लेते हैं, जो उसमें उत्तीर्ण होने की योग्यता रखते हैं। यह आत्मविश्वास ही हमारे जीवन में अनंत खुशी का संचार करेगा और हम अपनी भूमिका को और सुदृढ़ रूप से निश्चिंत होकर निभा पाएंगे।


सोमवार, 8 अगस्त 2022

अवसर

 

अवसर

 

समय साधारण भी होते हैं और असाधारण भी। साधारण समय को जिस-तिस प्रकार काटा जाता है, पर जब निर्णायक समय हो तो फैसला करने में असमंजस में अवसर गंवा देना बहुत भारी पड़ता है। कहते हैं कि महानता अपनाने के लिए बायां हाथ सक्रिय हो तो उसी से अवसर को पकड़ लें। ऐसा न हो कि दाहिना हाथ संभालने की थोड़ी-सी ही अवधि में ही जो सुयोग बन रहा थाउसे सदा के लिए गंवा बैठें। आदि शंकराचार्य, समर्थ गुरु रामदास, विवेकानंद, दयानंद आदि ने भी अपना लक्ष्य निर्धारित करने में वर्षों का समय नहीं गंवाया था।

 

प्रसवकाल की थोड़ी सी लापरवाही जच्चा और बच्चा दोनों के प्राण हरण कर सकती है। ड्राइवर की तनिक सी असावधानी वाहन दुर्घटना को निमंत्रण देने जैसा है। निशाना साधने वाले का हाथ जरा सा हिल जाए तो तीर कहीं से कहीं चला जाएगा। मनुष्य का जीवन ऐसा ही अलभ्य अवसर है, यह किसके पास कितने दिन ठहरेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। कौन जाने आज का सोया व्यक्ति कल उठने से पूर्व ही सदा सर्वदा के लिए आंखें बंद कर ले। जब शंकराचार्य, विवेकानंद, रामतीर्थ जैसे महामानव अल्पायु में ही प्रयाण कर गए तो कौन इस बात को विश्वासपूर्वक कह सकता है कि किसे कितने दिन जीने का अवसर मिल ही जाएगा। ऐसे दुर्लभ अवसर का निर्णायक निर्धारण कर लेने में ही बुद्धिमानी है।

 

यह युग संधि की बेला है। बीसवीं सदी विदा हो गई और इक्कीसवीं सदी का भी एक भाग बीत गया है। यह अवसर असाधारण है। जन्म का आरंभ और मरण का समापन भी कुछ विचित्र प्रकार का माहौल बनाते और नई तरह के संवेदन  उभारते हैं। इन दिनों भी ऐसा ही कुछ होना है। जागृत आत्माओं को कुछ ऐसे निर्णय करने पड़े रहे हैं, जो उनकी गरिमा के अनुरूप हैं। इन दिनों मनुष्य जाति का भाग्य एक नए. कागज पर, नई स्याही से, नए सिरे से लिखा जा रहा है। इस उथल-पुथल में हमारा स्थान कहां हो, यह चयन करने का यही उचित अवसर है।

 

मिथ्याभिमान

 मिथ्याभिमान


    जीवन में मनुष्य पद-प्रतिष्ठा चाहता है। परिश्रम पुरुषार्थ से वह उन्हें अर्जित भी कर लेता है। उनकी प्राप्ति पर आत्मगौरव उचित है, किंतु मिथ्याभिमान नहीं। वस्तुतः अभिमानी व्यक्ति स्वयं को आकाश सदृश ऊंचा मानता है, परंतु वह यह नहीं समझ पाता कि आकाश पर परिदृश्य निरंतर परिवर्तित होता रहता है। वास्तव में अभिमान का अतिरेक व्यक्ति को निष्ठुर और अग्रहणशील बना देता है। जैसे बरसात के मौसम में सूखे तालाब और पोखर जल से लबालब भर जाते हैं। नदियों की धारा भी जल को ग्रहण कर वेगवती हो जाती हैं। इसके विपरीत ऊंचे टीलों और मरुस्थलों पर अतिवृष्टि का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे ज्यों के त्यों शुष्क बने रहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिनके अंतःकरण मिथ्याभिमान के ऊंचे टीले या मरुस्थल सरीखे हैं, उन्हें कभी संतुष्टि की अनुभूति नहीं होती। मिथ्याभिमान से उपजी अहंकारिता सहज स्वीकार्यता को घटा देती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की कीर्ति का ह्रास होने लगता है। इस दृष्टि से अभिमान पतन का मूल है।

    अभिमानी व्यक्ति दूसरों को अपने बराबर खड़ा देखना नहीं चाहता। दूसरा प्राप्त न कर ले, इस चिंता में वह सदैव दुबला होता जाता है। उसकी प्रकृति वर्षा काल में सूख जाने वाले अकौआ या जबासा सी होती है। वर्षा ऋतु में जब समूची प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़ लेती है, तब अकौआ सूख जाता है। वहीं लू चलने पर वह फलता-फूलता है। मिथ्याभिमानी भी दूसरे की उपलब्धियों पर मुरझा जाता है, जबकि दूसरे के कष्टों में उसे परपीड़क आनंद मिलने लगता है। मिथ्याभिमान आत्मघाती प्रवृत्ति है। हम विचार करें तो देखेंगे की बुढ़ापा व्यक्ति से रूप छीन लेता है। निराशा व्यक्ति से धीरज छीन लेती है मृत्यु प्राणों का हरण कर लेती है। निंदा से धर्म का पतन होता है। क्रोध से लक्ष्मी नहीं ठहरती । कुसंग से सदाचार नहीं रहता, परंतु अभिमान कुछ भी नहीं छोड़ता । इसीलिए व्यक्ति को मिथ्याभिमान छोड़ देना चाहिए। अन्यथा मिथ्याभिमान व्यक्ति को कहीं का भी नहीं छोड़ता ।

विनम्रता की शक्ति

 विनम्रता की शक्ति


मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी होती है उसका अहम् । अहंकार के वशीभूत हुआ व्यक्ति यह सोचता है कि यदि मैं झुक गया और सह लिया तो लोग मुझे छोटा एवं कमजोर समझकर मेरी उपेक्षा करेंगे, परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। झुकने वाला व्यक्ति कभी छोटा या कमजोर नहीं होता, बल्कि वह बड़ा और मजबूत होता है। विनम्रता स्वयं में एक शक्ति है। फल से लदी हुई डाल झुकी हुई होती है साथ ही सहनशील भी। अहंकार और दंभ के कारण ही राजकुमार होते हुए भी दुर्योधन अपनी प्रभुता को स्थापित नहीं कर सका। पद के अनुरूप प्रतिष्ठा अर्जित करना तो दूर वह लोगों की नजर में भी गिर गया था। बड़ा तो वह है, जो दूसरे के अधिकार की रक्षा करता है। दूसरे को सम्मान प्रदान करके अपने सम्मान की अभिवृद्धि करता है। दूसरे को नीचा दिखाकर हम कभी बड़े नहीं बन सकते।

एक बार रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्यों में विवाद हो गया कि हममें बड़ा कौन है? कोई निर्णय नहीं हो पाने पर दोनों शिष्य उनके पास पहुंचे और फैसला करने का निवेदन किया। परमहंस बोले- 'इस बात का निर्णय करना तो बहुत आसान है और वह यही है कि आपस में जो दूसरे को बड़ा समझता है, वास्तव में वही व्यक्ति बड़ा होता है।' हममें से कितने लोग ऐसे हैं, जो इस कटु सत्य को मन से स्वीकार करने लिए तत्पर होते हैं। वास्तव में नीचे रहकर ही किसी वस्तु को प्राप्त किया जा सकता है। सच है विनम्रता किसी भी महान व्यक्ति के चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता होती है।

अपने को बहुत विशिष्ट और असाधारण मानकर विनय नहीं आ सकता। अपने को बहुत साधारण और सामान्य मानकर ही संभव है कि हमारे भीतर विनय आ सके। वाणी का विनय है-मधुर विचार, मन का विनय है- श्रेष्ठ विचार, शरीर का विनय है-अच्छे कार्य। ये हमारे अंदर बढ़ते जाएं तो हम आसानी से मृदुता को, कोमलता को प्राप्त कर सकते हैं।


रविवार, 7 अगस्त 2022

आईये हम जाने

 आईये हम जाने_______



स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस में झंडा फहराने में क्या अंतर है ?

*पहला अंतर*

15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडे को नीचे से रस्सी द्वारा खींच कर ऊपर ले जाया जाता है, फिर खोल कर फहराया जाता है, जिसे *ध्वजारोहण कहा जाता है क्योंकि यह 15 अगस्त 1947 की ऐतिहासिक घटना को सम्मान देने हेतु किया जाता है जब प्रधानमंत्री जी ने ऐसा किया था। संविधान में इसे अंग्रेजी में Flag Hoisting (ध्वजारोहण) कहा जाता है।

जबकि

26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर झंडा ऊपर ही बंधा रहता है, जिसे खोल कर फहराया जाता है, संविधान में इसे Flag Unfurling (झंडा फहराना) कहा जाता है।

*दूसरा अंतर*

15 अगस्त के दिन प्रधानमंत्री जो कि केंद्र सरकार के प्रमुख होते हैं वो ध्वजारोहण करते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता के दिन भारत का संविधान लागू नहीं हुआ था और राष्ट्रपति जो कि राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख होते है, उन्होंने पदभार ग्रहण नहीं किया था। इस दिन शाम को राष्ट्रपति अपना सन्देश राष्ट्र के नाम देते हैं।

जबकि

26 जनवरी जो कि देश में संविधान लागू होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, इस दिन संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं

*तीसरा अंतर*

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से ध्वजारोहण किया जाता है।

जबकि

गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर झंडा फहराया जाता है।

 जय हिन्द

शनिवार, 6 अगस्त 2022

सावन का अध्यात्म

                                                                                सावन का अध्यात्म


भगवान श्रीकृष्ण ने कदंब की डालों पर झूलों का आनंद राधा के साथ, गोपियों के साथ, ग्वाल बालों के साथ ब्रजभूमि में उठाया था। वह तो स्वयं आनंद स्वरूप परमानंद हैं, उनका सान्निध्य ही परम सुख कारक है, लेकिन सावन में झूले का महत्व श्रीकृष्ण से अधिक कोई नहीं जानता । यह गूढ़ आध्यात्मिक विषय है। सावन में समस्त देवलोक, भूलोक, नागलोक और पाताललोक आध्यात्ममय हो जाते हैं। अर्थात आत्मानुभूति से डूब जाते हैं। यह आत्मानुभूति का पवित्र माह भगवान शंकर और माता पार्वती को भी सबसे अधिक प्रिय है। देवगण इस माह में अत्यधिक प्रसन्न और आनंदित होते हैं। समस्त धरा पर प्रकृति अपनी नवीन छटा के साथ नृत्य करती है। यह कामना का माह है, वासना का नहीं। पवित्र कामना को धारण करता हुआ जो मानव इस लोक में सावन के अवसर पर प्रभु का सहज तथा सुलभ प्रसाद ग्रहण करता है, वह सदैव ऐश्वर्यवान और संपन्न होता है।

सावन सभी माहों में सबसे श्रेष्ठ, ऊर्जावान तथा सृजनात्मक काल है। यह हर प्राणी में नव उत्स एवं धारणा का संचार करता है। सबको इसका लाभ उठाना चाहिए। सावन में अनोखी प्रभुता है, अलौकिक क्षमता है। कोई ग्रहण करने वाला तो हो, जो सावन का वरदान आत्मवश कर सके। भगवान शंकर ने इस माह को जागृत किया। तभी से यह पृथ्वी को अपने सरस भावों से प्रवाहित करता आ रहा है। वर्ष भर कठिन प्रतीक्षा के पश्चात यह माह आता है। समस्त प्रकार के आध्यात्मिक संसाधनों का भंडार सावन माह सबको संतुष्ट करने वाला है। इसे भक्ति मार्ग की सर्वोत्तम अवधि कहा जा सकता है। प्रेम की अनुभूति का यह विशेष समय है। शुभ है, सुगम. है, कल्याणकारी है, हितबद्ध है और भावनाओं के अनुकूल है। यह सावन पृथ्वी पर नया संदेश लेकर आया है कि दुखों की तपिस अब नहीं सताएगी। अब तो सुखों की रिमझिम से यह संसार नहा उठेगा। प्रकृति के संतुलन को ही सावन कहा जाता है।


बुधवार, 3 अगस्त 2022

धूप के अभाव में कैसे मिले विटामिन-डी

                                             

                         धूप के अभाव में कैसे मिले विटामिन-डी

रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ रोगों से बचाता है विटामिन-डी और इसका मुख्य स्रोत है धूप जानते हैं कि बारिश व ठंड में कैसे उठा सकते हैं इसका लाभ ...हड्डियों की बीमारी, रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी, चेहरे में झुर्रियां...। ऐसी एक नहीं ढेर सारी शारीरिक समस्याएं हैंजिन्हें दूर करने में विटामिन-डी की अहम भूमिका है। आमतौर पर सभी जानते हैं कि धूप खानपान से महज 20 फीसद और शेष सेंककर विटामिन-डी की कमी को धूप से प्राप्त होता है। विटामिन-डी वसा पूरा किया जा सकता है, लेकिन धूप से में घुलनशील विटामिन है और मानसिक विटामिन-डी सुबह सूर्य उगने से लेकर स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। सुबह आठ बजे तक ही मिलता है। शरीर में इसकी मात्रा पर्याप्त होने पर इसलिए इस धारणा से बचिए कि धूप में मस्तिष्क में सेरोटोनिन मेलाटोनिन कभी भी बैठकर विटामिन-डी ले सकते व डोपामाइन की सक्रियता बढ़ती है, हैं। ये ही एक ऐसा विटामिन है, जो हमें जिससे अवसाद की आशंका कम होती है। इसके साथ ही ये शरीर में कई पोषक तत्वों के निर्माण व पाचन में फास्फेट और कैल्शियम जैसे खनिजों का अवशोषण करता है। शरीर में इसका नियंत्रित होना बहुत आवश्यक है। इसलिए चिकित्सक विभिन्न बीमारियों में उपचार के साथ सुबह धूप में बैठने की सलाह देते हैं।मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी जरूरी है ठंड व बारिश में इस तरह लें लाभः बारिश व ठंड में हर दिन सुबह की धूप नहीं मिलती। यदि शाम को सूर्यास्त के आधा घंटे पहले धूप में बैठने को मिले तो मौका न छोड़ें। इस समय भी धूप से विटामिन-डी मिलता है। हालांकि इसकी मात्रा सुबह की अपेक्षा कम होती है। इसके अलावा इन दोनों मौसम में ओट्स, अंकुरित अनाज, मशरूम, सोया मिल्क, बादाम आदि के पर्याप्त सेवन से विटामिन-डी की पूर्ति की जा सकती हैं।

भक्ति भाव

 भक्ति भाव


    जब ईश्वर का वास हृदय में माना गया है तो मंदिर जैसे उपासना स्थल क्यों बनाएं जाते हैं? मंदिरों की. स्थापना के पीछे उद्देश्य था कि पूजा, अर्चना और यज्ञ आदि द्वारा पवित्र तन्मात्राओं यानी पंचभूतों के सूक्ष्म रूप की सृष्टि की जाए। किसी साधु हृदय व्यक्ति को पूजा का कार्यभार सौंपा जाए। स्थान का मन पर अदृश्य प्रभाव पड़ता है। चिकित्सालय में व्यक्ति को हर तरफ रोग और रोगी ही दिखते हैं। स्वस्थ व्यक्ति भी वहां अशक्त महसूस करने लगता है।

    हमारे शरीर से प्रतिदिन शुभ या अशुभ अदृश्य सूक्ष्म शक्ति - राशि का उत्सर्जन होता रहता है। मंदिर जाने वाला व्यक्ति काम, क्रोध और आलस्य बाहर छोड़कर ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से जाता है। यह सामूहिक भक्ति या उपासना शुभ तन्मात्राओं व तरंगों का सृजन करती है। अतः यहां आगमन दुर्बल मन वाले मनुष्यों में ऊर्जा का संचार करता है। सज्जनों से ही प्रार्थना स्थलों की पवित्रता बनी रहती है। यदि मंदिर प्रांगण में असाधु व्यक्तियों का आवागमन बढ़ जाए तो स्थान अपनी पवित्रता खोने लगता है।

    पवित्र श्रावण मास में शिवलिंग पर दुग्ध, बेलपत्र, फल-फूल आदि चढ़ाकर पुण्य अर्जित करने की होड़ लगी रहती है। यदि ईश्वर है और वह हमारी प्रार्थना से प्रसन्न होता है तो वह एक बेलपत्र, अंजुली भर दूध या एक पुष्प से भी प्रसन्न हो जाएगा। सावन महीने से इतर भी ये दृश्य आमतौर पर मंदिरों में आम होते हैं। यदि यह व्यवस्था सुचारु न हो तो अव्यवस्था स्वाभाविक है। इसी कारण कई मंदिरों में व्यक्तिगत रूप से भोग-अर्पण की मनाही है। यदि पूजा स्थल हमें पवित्र बनाता है तो हमारा भी उत्तरदायित्व बनता है कि हम उन्हें पवित्र बनाए रखें। वहां भौतिक कचरा नहीं, अपितु दूषित विचार और दूषित भावनाओं को ही तिलांजलि देकर आएं। ईश्वर अस्वच्छता फैलाने वाले मनुष्य द्वारा अर्पित किया गया कितना ही महंगा भोग क्यों न हो, कितना ही दुर्लभ पुष्प क्यों न हो, वह स्वीकार ही नहीं करते। भगवान तो मात्र भाव के भूखे होते हैं।

अध्ययन का महत्व

 अध्ययन का महत्व


    सृष्टि में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो अपनी बुद्धि द्वारा सूझ-बूझ से सही और गलत में भेद कर सकता है। मनुष्य में बुद्धि की कुशाग्रता निरंतर अध्ययन से आती है। अध्ययन एक ऐसी आदत है जिससे हम अपनी सभी समस्याओं का हल प्राप्त कर सकते हैं। किंतु वर्तमान समय में लोगों में अध्ययन की आदत का ह्रास होता जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है सूचना प्रौद्योगिकी का निरंतर समृद्ध होना । आज किसी भी विषय पर जानकारी के लिए हम इंटरनेट का सहारा लेते हैं। यह अच्छी बात है समय के साथ परिवर्तन सदा से होता आया है। किंतु इससे हमें विषय पर जानकारी तो तुरंत मिल जाती है, परंतु हमारी अध्ययन की आदत का ह्रास होता है।
    
    जिस तरह शरीर को स्वस्थ रखने के लिए व्यायाम की आवश्यकता होती है, वैसे ही मस्तिष्क को स्वस्थ रखने के लिए अध्ययन की आवश्यकता होती है। वास्तव में निरंतर अध्ययनशीलता से हम अज्ञानता के अंधकार से निकल कर ज्ञान के प्रकाश की ओर बढ़ते जाते हैं। मनीषियों का मत है कि हम जितना अध्ययन करते हैं हमें उतनी ही अपनी अज्ञानता का ज्ञान होता जाता है। किंतु अध्ययन के लिए हमें सही साहित्य अर्थात पठनीय साहित्य या पुस्तकों का चुनाव करना चाहिए। अन्यथा अज्ञानतावश अपठनीय पुस्तकों का अध्ययन हमें जीवन में गलत राह पर लेकर जा सकता है। पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी मित्र और मार्गदर्शक हैं। व्यक्ति के एकांत में उसकी सच्ची साथी हैं। पुस्तकों के साथ आप कभी अकेले नहीं हो सकते। एक विस्तृत संसार हमेशा आपके साथ रहता है।

    प्रायः लोग एकांत भाव की वजह से दुखी रहते हैं, लेकिन जो व्यक्ति अध्ययनशील रहते हैं, उनके जीवन में एकांत भाव का कोई भी स्थान नहीं रहता है। विद्वान व्यक्ति सदैव ही अध्ययन को महत्व देते हैं। उनका कहना है कि अध्ययन से हम अपनी समस्याओं का निवारण कर सकते हैं और अपने निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति कर सकते हैं।