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बुधवार, 3 अगस्त 2022

धर्म का मर्म

 धर्म का मर्म


    धर्म का पालन करना ही साधना है। जब तक हम साधना पथ पर नहीं बढ़ेंगे तब तक धर्म को अंगीकार नहीं कर सकते। धर्म वह है जो सत्य है, श्रेष्ठ है। श्रेष्ठता का तात्पर्य लोक मंगल की भावना से है। यह जितनी स्पष्ट होगी धर्म उतना ही उन्नत होता है। धर्म 'की श्रेष्ठता उसे मानने वालों के आचरण पर टिकी • होती है। धर्मानुकूल आचरण करने वाले अनुगामी धर्म को श्रेष्ठ एवं लोकप्रिय बनाते हैं। धर्म ही शांति एवं सहिष्णुता का पथ प्रशस्त करता है। यह हमें सभी प्रकार की सिद्धियां प्रदान करता है। नकारात्मकता के तम को हर कर सकारात्मकता का उजास प्रदान करता है। धर्म उजास, उल्लास, मानवता, ममता और करुणा का द्योतक है। यह इन सभी मानवीय गुणों एवं भावनाओं का पोषण करता है।

    यह धर्म ही है जो हमारे विचारों को परिष्कृत करता है। धार्मिक होना शुचिता के पथ पर अग्रसर होना है। मानवीयता के पक्ष को मजबूत करना है। सरलता, सहृदयता एवं सद्भाव को बल देना है। वर्तमान समय में विभिन्न धर्म, मत एवं मजहब को मानने वाले स्वयं की कट्टर छवि प्रदर्शित कर रहे हैं। वे हिंसा के बल पर अपने पंथ अथवा मजहब का वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। ऐसा आचरण सर्वथा धर्म के विपरीत है।

    एक बार किसी आश्रम में धर्म पर चर्चा करते हुए छात्र दो दलों में बंट गए। उनमें बात इतनी बढ़ गई कि वे आपस में झगड़ बैठे। इतने में वहां गुरुजी आ गए। उन्होंनें कहा कि क्रोध और आवेश में जो कुछ कहा जाए वह धर्म होते हुए भी अधर्म है। अगर हम ऐसा करते हैं तो धर्म के मूल तत्व को ठेस पहुंचाते हैं। तब हम निश्चित ही अधर्मी कहलाएंगे। यह सुनकर शिष्यों के क्रोध से तमतमाते हुए चेहरे ठंडे हो गए। उन्होंने गुरुजी समेत एक दूसरे से क्षमा मांगी। वस्तुतः धर्म हिंसा को नहीं नहीं, अपितु अहिंसा, प्रेम, सत्कार और अपनत्व को प्रसारित करता है। हमें निश्चित ही धर्म के वास्तविक मर्म को स्वीकार करते हुए उस पर चलना चाहिए।

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