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सोमवार, 8 अगस्त 2022

मिथ्याभिमान

 मिथ्याभिमान


    जीवन में मनुष्य पद-प्रतिष्ठा चाहता है। परिश्रम पुरुषार्थ से वह उन्हें अर्जित भी कर लेता है। उनकी प्राप्ति पर आत्मगौरव उचित है, किंतु मिथ्याभिमान नहीं। वस्तुतः अभिमानी व्यक्ति स्वयं को आकाश सदृश ऊंचा मानता है, परंतु वह यह नहीं समझ पाता कि आकाश पर परिदृश्य निरंतर परिवर्तित होता रहता है। वास्तव में अभिमान का अतिरेक व्यक्ति को निष्ठुर और अग्रहणशील बना देता है। जैसे बरसात के मौसम में सूखे तालाब और पोखर जल से लबालब भर जाते हैं। नदियों की धारा भी जल को ग्रहण कर वेगवती हो जाती हैं। इसके विपरीत ऊंचे टीलों और मरुस्थलों पर अतिवृष्टि का भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वे ज्यों के त्यों शुष्क बने रहते हैं। ठीक इसी प्रकार जिनके अंतःकरण मिथ्याभिमान के ऊंचे टीले या मरुस्थल सरीखे हैं, उन्हें कभी संतुष्टि की अनुभूति नहीं होती। मिथ्याभिमान से उपजी अहंकारिता सहज स्वीकार्यता को घटा देती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति की कीर्ति का ह्रास होने लगता है। इस दृष्टि से अभिमान पतन का मूल है।

    अभिमानी व्यक्ति दूसरों को अपने बराबर खड़ा देखना नहीं चाहता। दूसरा प्राप्त न कर ले, इस चिंता में वह सदैव दुबला होता जाता है। उसकी प्रकृति वर्षा काल में सूख जाने वाले अकौआ या जबासा सी होती है। वर्षा ऋतु में जब समूची प्रकृति हरियाली की चादर ओढ़ लेती है, तब अकौआ सूख जाता है। वहीं लू चलने पर वह फलता-फूलता है। मिथ्याभिमानी भी दूसरे की उपलब्धियों पर मुरझा जाता है, जबकि दूसरे के कष्टों में उसे परपीड़क आनंद मिलने लगता है। मिथ्याभिमान आत्मघाती प्रवृत्ति है। हम विचार करें तो देखेंगे की बुढ़ापा व्यक्ति से रूप छीन लेता है। निराशा व्यक्ति से धीरज छीन लेती है मृत्यु प्राणों का हरण कर लेती है। निंदा से धर्म का पतन होता है। क्रोध से लक्ष्मी नहीं ठहरती । कुसंग से सदाचार नहीं रहता, परंतु अभिमान कुछ भी नहीं छोड़ता । इसीलिए व्यक्ति को मिथ्याभिमान छोड़ देना चाहिए। अन्यथा मिथ्याभिमान व्यक्ति को कहीं का भी नहीं छोड़ता ।

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