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सोमवार, 29 नवंबर 2021

 हिमालयन वुड वैज

भारत स्काउट्स एंड गाइड्स के उच्च स्तरीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण केंद्र नेशनल ट्रेनिंग सेंटर पंचमढ़ी (मध्य प्रदेश) में  दिनांक 19 नवंबर से 25 नवंबर 2021 के मध्य आयोजित हिमालयन वुड वैज कोर्स में जिला संघ वाराणसी के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त स्काउट मास्टर श्री अजीत कुमार श्रीवास्तव एवं स्काउट मास्टर श्री राजकिशोर ने स्काउट एंड गाइड्स के उच्च स्तरीय राष्ट्रीय प्रशिक्षण केंद्र नेशनल ट्रेनिंग सेंटर पंचमढ़ी में  सफलतापूर्वक भाग लेकर हिमालय वुड वैज प्राप्त किया । 23 राज्यों के 110 प्रतिभागियों के बीच पूर्वोत्तर रेलवे के 2 प्रतिभागियों ने विभिन्न प्रकार के कठिन टेस्टिंग स्किल में सफल होने पर हिमालय वुड बैज प्राप्त कर पूर्वोत्तर रेलवे का नाम रोशन किया। 






शनिवार, 27 नवंबर 2021

 भारत का संविधान

    दिनांक 26.11.2021 को प्रमुख मुख्य परिचालन प्रबंधक कार्यालय, पूर्वोत्तर रेलवे/गोरखपुर के गुड्स हाल में मुख्य परिवहन योजना प्रबंधक श्री संजय त्रिपाठी जी ने अधिकारियों एवं कर्मचारियों के समक्ष संविधान दिवस पर "भारत का संविधान" की उद्देशिका का पाठन किया ।सभी अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने संविधान के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की शपथ ली।







            


बुधवार, 24 नवंबर 2021

गरीब नाथ मंदिर

 बाबा गरीबनाथ मंदिर, मुजफ्फरपुर

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   बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में स्थित 'बाबा गरीबनाथ मंदिर आस्था और श्रद्धा का प्रतीक है. मान्यता है कि इस मंदिर में भक्ति-भाव से मांगी गई भक्तों की सभी मुरादें पूरी होती हैं. देश के कोने-कोने से श्रद्धालु इस मंदिर में अपनी मुरादें लेकर जाते हैं. यहां आने वाले सभी भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, इसलिए बाबा गरीबनाथ मंदिर 'मनोकामनालिंग' के नाम से भी मशहूर है.

सावन के महीने में इस मंदिर में बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं. देवघर की तर्ज पर बाबा गरीबनाथ धाम में भी डाक बम गंगा जल लेकर महज 12 घंटे में बाबा का जलाभिषेक करने की परंपरा रही है. 

'बाबा गरीबनाथ मंदिर' ऐतिहासिक मान्यता

           इस मंदिर का इतिहास 300 साल से भी पुराना है. मान्यता है कि इस स्थान पर पहले घना जंगल हुआ करता था. इस जंगल के बीच सात पीपल के पेड़ थे. पेड़ की कटाई के समय अचानक खून जैसा लाल पदार्थ निकलने लगा और जब इस जगह की खुदाई की गई तो यहां से एक विशालकाय शिवलिंग मिला. लोग बताते हैं कि इसके बाद जमीन मालिक को सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए थे. तब से ही यहां पर बाबा भोलेनाथ की पूजा की जाने लगी.

इस तरह पड़ा था 'बाबा गरीबनाथ मंदिर' का नाम: 

          लोगों का मानना है कि एक बेहद ही गरीब व्यक्ति था, उसके एक बेटी थी. बेटी की शादी के लिए घर में कुछ भी नहीं था. एक दिन व्यक्ति को सपने में बाबा के दर्शन हुए. जिसके बाद शादी के सभी सामानों की आपूर्ति अपने आप हो गई. तभी से इस धाम का नाम 'बाबा गरीबनाथ' पड़ गया.

           बाबा गरीबनाथ शिवलिंग का प्राकट्य कब हुआ इसकी सही जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। सन 2006 ई. में बिहार राज्य धार्मिक न्यास पार्षद ने मंदिर का अधिग्रहण किया और मंदिर की व्यवस्था के लिए ग्यारह सदस्यों का एक ट्रस्ट बनवाया गया।

                    मंदिर प्रांगन में जो कल्पवृक्ष जिनकी पूजा होती है वे शिवलिंग के प्राकट्य से भी ज्यादा पुराना है । श्रावण मास में कांवरियों द्वारा सोनपुर से गंगाजल लाकर बाबा पर अर्पित करने की तीव्र शुरुआत सन्1960 के आस-पास से की गई । 

       बाबा गरीबनाथ धाम जाग्रत शिव-स्थल के रूप में निरंतर प्रसिद्द हो रहा है । यहाँ दूर दूर से आनेवाले श्रद्धालु भक्तों की आस्था इनके दर्शनोपरांत और भी गहरी होती चली जाती है। जन-जन का विश्वास देवाधिदेव महादेव में अकारण ही नहीं है।शिव सबके है ।जो भी शुद्ध मन और विश्वास के साथ इनके द्वार पर आता है,उसे दर्शन से केवल कृतार्थ ही नहीं करते बल्कि उसकी मनोकामना भी पूरी करते है। उसके दुखो को दूर करके उसके जीवन में सुख और आनंद का संचार करते है। जीवन के प्रति अटूट विश्वास और आत्मा के प्रति सजगता का निरंतर सन्देश देते हुए शिव समदर्शी भाव में सहज ही विराजते रहते है। उनके यहाँ कोई विभेद नहीं। जिसने भी उनका स्मरण किया,उनकी पूजा-अर्चना की उसी के वे हो गए । विषम परिस्थिति में भी शांतचित और शांतभाव से रहने की प्रेरणा देते हुए शिव चेतना के उस शिखर पर विराजते रहते है जहा से सबकुछ को सहज ढंग से देखा-समझा जा सकता है। संसार को संकटों से मुक्त कर देने वाला ही 'शंकर' होता है। सबके जीवन की रक्षा करने के लिए कालकूट विष का पान कर लेने वाला ही 'शिवशंकर' होता है । ओधर,आशुतोष भोलेदानी ही सही अर्थ में 'गरीबनाथ' होते है। जिसका कोई नहीं ईश्वर उसका सबसे ज्यादा होता है। शिव सबके अंतर्मन को झंकृत करते हुए आनंदमय वातावरण में जीव को खींच कर ले जाते है।

      बाबा गरीबनाथ जन-जन के महानायक है। दूर-सुदूर से पावन गंगाजल कंधे पर कांवर में सहेज कर कठिन डगर को पार करते हुए आस्था और उल्लास से भरे हुए स्त्री-पुरुष भक्त श्रद्धालु यहाँ आ कर गंगाजल से बाबा का अभिषेक करते है ।बाबा उसकी आस्था को स्वीकार करते हुए उसके मन को तृप्त करते है ।

(संकलन)


सोमवार, 8 नवंबर 2021

राष्ट्रीय अखंडता

     राष्ट्रीय अखंडता का भाव भारतीय संस्कृति के मूल में रहा है। इसके लिए हमारे पूर्वजों ने अपना पूरा जीवन खपाया है। उन्होंने इसे बनाए रखने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग तक किया। राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता भारत की शक्ति है। यही शक्ति हमें अद्वितीय एवं अजय बनाती है। वृहद राष्ट्र भारत अपनी राष्ट्रीय अखंडता के बल पर ही विश्व का सिरमौर बनने की दिशा में अग्रसर है। राष्ट्रीय अखंडता का भाव सनातन भाव है। हमारी संस्कृति ने भारत को केवल एक भौगोलिक इकाई भर नहीं माना है। उसमें इसे 'मां' कहा है। एक मां के नाते इसका सम्मान, सत्कार,पूजन व रक्षण किया है। हमारे पूर्वजों ने मातृत्व भाग से ही स्वीकार किया है। साथ ही वे इसकी रक्षा के लिए संकल्पित रहते हैं। राष्ट्रीय एकता ही हमारी उन्नति का कारक है। जब राष्ट्र पूरब से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण तक एकता के सूत्र में बंधा हुआ है, तभी हम देश को आगे ले जा सकते हैं। राष्ट्रीय अखंडता हमारी निर्भरता का कारण भी है। हम अपनी राष्ट्रीय अखंडता के बल पर ही शत्रुओं के सम्मुख भी अडिग हैं। बांधव भाव से ही राष्ट्र को अखंडता व एकता के सूत्र में पिरोया जा सकता है। इसी बांधव एवं सहोदर भाव को जागृत करने की आवश्यकता है।

    स्वतंत्रता उपरांत के कालखंड में जब हमारे राष्ट्रीय एकता व अखंडता पर प्रश्नचिन्ह लगे हुए थे तब इसकी रक्षा के लिए सरदार वल्लभभाई पटेल ने है भूमिका का निर्वहन किया। उन्होंने 'एक भारत- श्रेष्ठ भारत'  की महान कल्पना को साकार करने के लिए अपनी पूरी सामर्थ के साथ कार्य किया। उन्होंने मोतियों जैसे विभिन्न के आंसू तो एक माला में पिरो कर राष्ट्र बनाया था। वह कहा करते थे, 'एकता के बिना जनशक्ति, शक्ति नहीं है। जब तक कि उसे उचित प्रकार से सामान्य से मिलाकर एकजुट न किया जाए।' उन्होंने सदैव एकजुटता पर बल दिया। आज हमें इसी एकजुटता के भाव के साथ आगे बढ़ने की आवश्यकता है।


गुरुवार, 4 नवंबर 2021

 दीपावली पर विशेष-

कब जलेगा मन का दीप

                                --भानु प्रकाश नारायण

 प्रशांत का मन आज अशांत था । क्योंकि आज कार्तिक कृष्ण अमावस्या की पावन तिथि है

। आज दीपों का पावन पर्व दीपावली मनाई जाएगी । तम को नाश करने का एक नाटक रचा जाएगा ।यही सब तो प्रशांत पिछले 30 वर्षों से देखता और न चाहते हुए भी उसमें शरीक होता चला आया था। पर ,आज वह सुबह से ही बेचैन है। सोचता है अपने प्यारे वतन के बारे में। अपने बारे में और कह उठता है - 

कांटे सदा चुभे पांवों में 

झोली में कब फूल मिला 

जलता रहा धूप बत्ती सा

 कभी न मन का सुमन मिला। 

यही सब सोचता हुआ आगे बढ़ता जाता है अपने शिष्यों के घरों की ओर।

सोचता है आज जरूर पैसे मिलेंगे। भला क्यों नहीं मिलेंगे?30 दिनों तक पैरों के तलवे घिसे हैं ।तभी  उसकी नजर सड़क के किनारे पत्थर के टुकड़े करते हुए मजदूर करते हैं प्रशांत देखकर सोचता है क्या आज दीपावली है कहीं भूल तो नहीं क्या सोचता है नहीं नहीं मुझे पूरा याद है आज ही दीपावली है पर मेरे जैसे ही भारत से अलग हो 50 करोड़ जनता को क्या मतलब श्लोक दीप जलाएंगे हम भी जला देंगे उनके बच्चे पटाखे की धमाचौकड़ी करेंगे हम लोग के बच्चे लग जाए आंखों से देख कर मन मसोसकर रह जाएंगे तभी एक पटाखे की आवाज सुनकर जाता है बच्चे उठाकर हंसते हैं उन्हें मजा आता है आगे बढ़ जाता है सामाजिक व्यवस्था के बारे में आज हम अंधकार की कोशिश कर रहे हैं क्या पर क्या हम अंधकार बढ़ा सकेंगे हिंसा लूटपाट व स्थिरता की आग में जलाकर अपनी पावन धरती आज मानवता के मरदह संस्कृति और विरासत मूल्यों के सर्वनाश प्रति घटती जा रही है स्वार्थ भ्रष्टाचार का बोलबाला है हमारे समाज में जो की लंबी कतारें देखें

को मिल रही है फ्रेंड प्रशांत की तो सरकारी नौकरी के चक्कर में कहां-कहां आज मानवता अपनी मर्यादा संस्कृति और विरासत मूल्यों के सर्वनाश पर रोती बिलखती जा रही है आज धन एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है हमारे समाज में बेरोजगारी रोक लंबी कतारें देखने को मिल रही है स्वयं प्रशांत भी तो सरकारी नौकरी के चक्कर में कहां-कहां नहीं पड़ता दर की ठोकरें खाई पता है सब जगह निराशा ही हाथ लगी प्रशांत सोचता है आज हम प्रकाश पर्व बनाने जा रहे हैं तमसो मा ज्योतिर्गमय कहा जा रहा है हां सही ही तो है अंधकार में तो दीप जलाने का आवश्यकता होती है जब से हम स्वतंत्र हुए हैं हम आलसी और आराम तलबी होते जा रहे हैं आज के सैनिक हो और में तो बोलो के आगे हमारे टिमटिमाते हुए दीपों के बिल साथ ही क्या रह गई है कितने सपने संजोए थे प्रशांत ने लेकिन कभी अपने सभी सपने भीतर के दफन होते जा रहे हैं ना चाहते हुए भी समाज ने उसके साथ नीलिमा का पल्लू बांध दिया था आज भी दो बच्चे भी आ चुके हैं अपने लिए ना सही उन लोगों के लिए कुछ सोचना ही है कुछ करना ही है कैसे समझाएगा उन लोगों को हम लोगों ही नहीं हम स्थिति में हैं फिर भी मारे मारे हमारा हम आप से भी बदतर स्थिति में है पर क्या बच्चे अपने सामने की हवेली से उड़ते हुए संकट को देखते हुए पटाखों की आवाज को सुनकर समझते हैं दीपावली का हमेशा हमारे संस्कार और जीवन से संबंधित है इतना अच्छा होता है यदि आज का जलता हुआ दीपक के साथ हमारी आत्मा को एक नई रोशनी शक्ति देती है दूसरे के दुख दर्द को समझते हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति का आगमन होता ।

बुधवार, 3 नवंबर 2021

समाधान वृक्ष

समाधान वृक्ष

         अर्चना और रवि परिवार के दो स्तंभ यानि पति और पत्नी के रूप में जीवन यापन कर रहे हैं।  दोनों सुबह ही काम पर निकल जाते थे। दिन भर पति ऑफिस में अपना टारगेट पूरा करने की ‘डेडलाइन’ से जूझते हुए साथियों की होड़ का सामना करता था। बॉस से कभी प्रशंसा तो मिली नहीं और तीखी-कटीली आलोचना चुपचाप सहता रहता था।पत्नी अर्चना भी एक प्राइवेट कम्पनी में जॉब करती थी। वह अपने ऑफिस में दिनभर परेशान रहती थी। ऐसी ही परेशानियों से जूझकर अर्चना लौटती है। खाना बनाती है। शाम को घर में प्रवेश करते ही बच्चों को वे दोनों नाकारा होने के लिए डाँटते थे पति और बच्चों की अलग-अलग फरमाइशें पूरी करते-करते बदहवास और चिड़चिड़ी हो जाती है। घर और बाहर के सारे काम उसी की जिम्मेदारी हैं।

थक-हार कर अर्चना अपने जीवन से निराश होने लगती है। उधर पति दिन पर दिन खूंखार होता जा रहा है। बच्चे विद्रोही हो चले हैं। एक दिन सरला के घर का नल खराब हो जाता है। उसने प्लम्बर को नल ठीक करने के लिए बुलाया। प्लम्बर ने आने में देर कर दी। पूछने पर बताया कि साइकिल में पंक्चर के कारण देर हो गई। घर से लाया खाना मिट्टी में गिर गया, ड्रिल मशीन खराब हो गई, जेब से पर्स गिर गया...।इन सब का बोझ लिए वह नल ठीक करता रहा।

काम पूरा होने पर महिला को दया आ गई और वह उसे गाड़ी में छोड़ने चली गई। प्लंबर ने उसे बहुत आदर से चाय पीने का आग्रह किया। प्लम्बर के घर के बाहर एक पेड़ था। प्लम्बर ने पास जाकर उसके पत्तों को सहलाया, चूमा और अपना थैला उस पर टांग दिया। घर में प्रवेश करते ही उसका चेहरा खिल उठा। बच्चों को प्यार किया, मुस्कराती पत्नी को स्नेह भरी दृष्टि से देखा और चाय बनाने के लिए कहा। 

अर्चना यह देखकर हैरान थी। बाहर आकर पूछने पर प्लंबर ने बताया - यह मेरा परेशानियाँ दूर करने वाला पेड़ है। मैं सारी समस्याओं का बोझा रातभर के लिए इस पर टाँग देता हूं और घर में कदम रखने से पहले मुक्त हो जाता हूँ।चिंताओं को अंदर नहीं ले जाता। सुबह जब थैला उतारता हूं तो वह पिछले दिन से कहीं हलका होता है। काम पर कई परेशानियाँ आती हैं, पर एक बात पक्की है- मेरी पत्नी और बच्चे उनसे अलग ही रहें, यह मेरी कोशिश रहती है। इसीलिए इन समस्याओं को बाहर छोड़ आता हूं। प्रार्थना करता हूँ कि भगवान मेरी मुश्किलें आसान कर दें। मेरे बच्चे मुझे बहुत प्यार करते हैं, पत्नी मुझे बहुत स्नेह देती है, तो भला मैं उन्हें परेशानियों में क्यों रखूँ। उसने राहत पाने के लिए कितना बड़ा दर्शन खोज निकाला था...! 

यह घर-घर की हकीकत है। गृहस्थ का घर एक तपोभूमि है। सहनशीलता और संयम खोकर कोई भी इसमें सुखी नहीं रह सकता। जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं, हमारी समस्याएं भी नहीं। प्लंबर का वह ‘समाधान-वृक्ष’ एक प्रतीक है। क्यों न हम सब भी एक-एक वृक्ष ढूँढ लें ताकि घर की दहलीज पार करने से पहले अपनी सारी चिंताएं बाहर ही टाँग आए।

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(संकलन)

मंगलवार, 2 नवंबर 2021

66 वॉं रेल सप्‍ताह पुरस्‍कार वितरण समारोह (महाप्रबन्‍धक पुरस्‍कार) 2020 - 21

         महाप्रबन्‍धक महोदय द्वारा दिनांक 29-10-2021 को सैयद मोदी रेलवे स्‍टेडियम में खुले समारोह में 66 वॉं रेल सप्‍ताह पुरस्‍कार का वितरण किया गया। 

        महाप्रबन्‍धक महोदय द्वारा इस अवसर पर परिचालन विभाग के 02 अधिकारियों तथा 08 कर्मचारियों को पुरस्‍कृृतकिया गया जिसमें मुख्‍यालय में कार्यरत सचिव/प्रमुख मुख्‍य परिचालन प्रबन्‍धक श्री एस. के.कन्‍नौजिया, मुख्‍य यातायात निरीक्षक श्री भानु प्रकाश नारायण एवं श्री सत्‍य प्रकाश सत्‍संगी सम्मिलित हैं।






सोमवार, 1 नवंबर 2021

निबंध प्रतियोगिता

 केन्द्रीय सतर्कता आयोग,नई दिल्ली के निर्देशानुसार दिनांक 26. 10 .21 से लेकर 01 .11.21 तक सतर्कता विभाग पूर्वोत्तर रेलवे/गोरखपुर में  सतर्कता जागरूकता सप्ताह 2021 के अंतर्गत आयोजित आन लाइन  निबंध प्रतियोगिता ,विषय- स्वतंत्र भारत @ 75: सत्य निष्ठा से आत्मनिर्भरता, में प्रमुख मुख्य परिचालन प्रबंधक कार्यालय/गोरखपुर के श्री प्रदीप कुमार दुबे , मुख्य यातायात निरीक्षक (माल) को प्रथम पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया।




इसके अलावा

यांत्रिक कारखाना, गोरखपुर के श्री मती ज्योति चौरसिया,सी. से.इंजी./विद्युत,को द्वितीय पुरस्कार एवं श्री सुरेश महतो, वरिष्ठ अनुवादक/ निर्माण, गोरखपुर को तृतीय पुरस्कार प्राप्त हुआ


परिवर्तन

 परिवर्तन

-         मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में जिस तरह से छोटा-मोटा परिवर्तन समय-समय पर होता रहा है तथा किसी-किसी समय पर एक बड़ा परिवर्तन भी हो जाता है। इसी तरह मनुष्य के सामाजिक जीवन में भी छोटा-मोटा परिवर्तन होता आ रहा है ।

 जब कोई छोटा-मोटा परिवर्तन आता है तब मनुष्य व्यक्तिगत या सामूहिक प्रयास से उस परिवर्तन (नवीनता) के साथ अपने को मिला लेता है अथवा जरूरत पड़ने पर मनुष्य छोटा-मोटा परिवर्तन खुद ही करता रहता है और आगे बढ़ता जाता है। इन छोटे-मोटे परिवर्तनों की जब जरूरत पड़ती है अथवा परिवर्तित परिस्थिति में स्वयं को मिला लेने की आवश्यकता होती है। तब मनुष्य समाज में नाना प्रकार के नायक आते हैं जो मनुष्य को उसी तरह से कंधे से कंधा मिलाकर चलना सिखाते हैं ऐसे ही अग्रपुरुष प्राचीन काल में ऋषि कहे जाते थे। इन ऋषि मुनियों का युग अतीत में भी था. आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। देखा जाए तो अतीत के गणमान्य ऋषियों के नाम से आज भी मनुष्य अपना परिचय देकर गौरवान्वित होते हैं जैसे कोई अपने को भार्गव बताता है तो कोई भारद्वाज, कोई कश्यप बताता है तो कोई गर्ग, कोई वशिष्ठ बताता है तो कोई कुछ और। अतीत के प्रधान पुरुष ऋषि मुनि के रूप में माने जाने वाले की अपेक्षा आज के प्रधान नायक समाज के नेता या पुरोधा कहे जाते हैं ये वही अग्रपुरुष हैं जो समाज की बेहतरी के लिए आगे आते हैं .... कहते हैं .... चलो मैं तुम लोगों के साथ हूँ। तुम लोगों की उन्नति में बाधा-विपद आए तो आए, पहले मेरे ऊपर ही आएगी। यदि आकाश टूट पड़े तो मेरे ऊपर ही पहले टूटेगा, सबका सामना पहले मैं ही करूँगा। ऐसे सामर्थ्य शील व्यक्ति ही 'सदविप्र' हैं।

      मनुष्य का अस्तित्व एक भाववाही प्रवाह है, भाव मुखीन प्रवाह है अर्थात् इसमें एक सामग्रिक गतिशीलता है। जो जड़ है, जो स्थिर है, जो परिवर्तन पसन्द नहीं करते, वे इस गतिशीलता के विरुद्ध चलते हैं, गतिशीलता के विरुद्ध जाकर कोई ठीक नहीं रह सकता, कोई बच नहीं सकता क्योंकि गतिशीलता का विरोध करने का अर्थ है- मृत्यु का वरण करना, मृत्यु का आह्वान करना इसलिए चलना ही होगा लेकिन कहाँ? मानव -धर्म की धूरी पर। अतीत में देखा गया है जो शिथिल हो रुक जाते हैं, भटक जाते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। हालांकि सब समय धर्म की गति एक सी नहीं रहती। कभी कम होती है तो कभी बढ़ती है, जब गति कम होती है तब समाज पंक कुण्ड में जा धंसता है और जब बहुत ही कम हो जाती है तब समाज में गंदगियों का पहाड़ खड़ा हो जाता है। इस कारण दूसरे स्तर पर गति की द्रुति को बहुत बढ़ाना पड़ता है क्योंकि स्वाभाविकता लाना ही यथेष्ट नहीं होता क्योंकि अगति के कारण जो गंदगियां जम गई थी उन्हें भी दूर करना आवश्यक हो जाता है। हर इंसान का यह फर्ज है कि वे जब देखेंगे कि समाज की गति में द्रुति रुक गई है तो गति में द्रुति लाने के लिए धक्का लगाएंगे धक्का लगाने वाले ही सद्विप्र हैं, वही है समाज के वरेण्य, समाज के पूजनीय समाज के पथ प्रदर्शक ।   

           प्राचीन काल के मनुष्य को आग का आविष्कार करने में लाखों वर्ष लग गये, बैलगाड़ी का आविष्कार करने में लाखों वर्ष लगे थे। इसलिए अनेक प्राचीन सभ्यताएं अतीत में इतिहास के पन्नों से अवलुप्त हो गयी हैं। इसका एकमात्र कारण है, वे पहिये का आविष्कार नहीं कर पाये थे। उन्होंने नाव का आविष्कार किया था किन्तु पहिये का आविष्कार न कर सकने के कारण गाड़ी का आविष्कार नहीं कर पाये थे। दक्षिण अमेरिका की 'माया सभ्यता' का पतन इसी तरह से हुआ था ।

   जीव की मृत्यु होती है। मृत्यु भी हुआ एक विशेष परिवर्तन है, वह ऐसा परिवर्तन है कि पूर्व के आदिम रूप के साथ वर्तमान रूप का कोई सामंजस्य नहीं है। एक शिशु की (रूपगत) मृत्यु हो गई- एक परिवर्तन हुआ। किन्तु हम लोग सामान्य रूप से समझते हैं कि यही शिशु बालक हुआ है। वह ही युवक हुआ है, वह ही प्रौढ़ हुआ तथा वह ही वृद्ध हुआ– इसे हम लोग सामान्य रूप से समझ लेते हैं, किन्तु वही वृद्ध जब फिर से शिशु होकर आया, तब पार्थक्य इतना अधिक हो गया है कि हम उस सम्बन्ध को फिर से खोज नहीं पाते। मृत्यु भी एक परिवर्तन है, और जन्म ग्रहण करना भी एक परिवर्तन है ।

-       इतिहास बताता है, ऐसा छोटा मोटा परिवर्तन चलता ही रहता है। किन्तु बीच-बीच में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आता है। जैसे प्राचीन काल के मनुष्य को जब कुछ जरूरत पड़ती, उसे सूर्य के ताप से काम चला लेते अर्थात् धूप में गर्म करके काम चला लेते। तब आग का आविष्कार नहीं हुआ था। परवर्ती काल में मनुष्य ने आग का आविष्कार किया; वह भी विराट परिवर्तन कह कर माना गया। मनुष्य के इतिहास में प्राचीन काल के मनुष्य ने जब बैलगाड़ी का आविष्कार किया, तो वह भी एक विराट परिवर्तन था। यह एक बड़े प्रकार का वैज्ञानिक आविष्कार था ।

    मनुष्य समाज के प्रागैतिहासिक युग के बाद सभ्यता का आगमन कह सकते हैं, आज से पन्द्रह हजार वर्ष पहले अर्थात् ऋगवेद के समय में हुआ। किन्तु ऋगवेद की रचना चल रही थी गत पन्द्रह हजार वर्षों से गत पाँच हजार वर्षों के बीच तक- अर्थात् दस हजार वर्षों तक। ऋक् वेदीय युग के अन्त में सदाशिव के समय अब, बड़ा परिवर्तन आया।

 तो सदाशिव के समय में हम पाते हैं-उन्होंने मनुष्य के जीवन के धारा प्रवाह को, विभिन्न अभिव्यक्तियों को विभिन्न रूप दिया-नृत्य में, गान में, चिकित्सा में, सभ्यता में सभी कुछ में। अतः यह हुआ एक बड़ा परिवर्तन, अतिवृहत् परिवर्तन-जो परिवर्तन इसके पहले कभी नहीं हुआ था।

     एक बड़ा परिवर्तन, विराट विप्लव-यह सब साधारण नेता या साधारण ऋषि के द्वारा सम्भव नहीं है। इस तरह का परिवर्तन जो लाते हैं, मैं उन्हें ही कहता हूँ सदविप्र-जो वास्तविक रूप से इस परिवर्तन के साथ मनुष्य को सम्भाल कर ले चलना जानते हैं, चल सकते हैं तथा पथ निर्देशना देते हैं। किन्तु ऐसा विराट परिवर्तन जब आता है जैसे सदाशिव ने लाया-वह सदविप्र का काम नहीं है। 

  दार्शनिक परिभाषा में  लोग उस नेता को कहते हैं- महासदविप्र, किन्तु शास्त्र की भाषा में उन्हें कहा जाता है तारक ब्रह्म। सदाशिव थे 'तारक ब्रह्म', 'महासदविप्र'-जो मनुष्य जाति के सर्वात्मक नेता हैं।

       फिर इस परिवर्तन के बाद धीरे-धीरे गति में शिथिलता आई, गति का वेग कम हो गया-नाना आविलता, आवर्जना आई। विभिन्न यन्त्रों में जंग पकड़ लिया। तब आवश्यकता पड़ी पुनः महासद्विप्र के आने की-जो फिर से धक्का देकर ठीक ढंग से ठीक पथ पर मनुष्य को चला सकें। 

      आज से अनुमानिक साढ़े तीन हजार वर्ष पहले श्रीकृष्ण आए। उन्होंने भी ठीक ऐसा ही परिवर्तन लाकर मानव समाज में नया एक प्राण स्पन्दन जगा दिया था। कृष्ण के समय भी क्या हुआ ? कृष्ण मानव समाज में विराट परिवर्तन लाए। किन्तु उनके जो सहायक थे वे सभी लोग ज्ञानी गुणी, महामहोपाध्याय पण्डित थे ? ऐसी बात नहीं, वे साधारण मनुष्यों में से ही आए थे। वे थे भक्त, वे मनुष्य के कल्याण करने हेतु कृष्ण का निर्देश चाहते थे। वे ब्रज के गोप बालक थे, व्रज की गोपियाँ थीं। उनकी एकमात्र पूँजी थी इष्ट निष्ठा। कृष्ण के प्रति निष्ठा। वे इसीलिए सार्थक हो उठे थे। विद्या बुद्धि से उतना अधिक कार्य नहीं होता है, जितना कि आन्तरिकता से।

     युग बदल गया है। आज नाना प्रकार की समस्यायें आई हैं। नये-नये प्रकार की प्रस्तुति की आवश्यकता दिखाई पड़ रही है- मानसिक प्रस्तुति, शारीरिक प्रस्तुति-सर्वात्मक प्रस्तुति। समाज के रोम रोम में आविलता अणुप्रविष्ट हो गई है। इनके विरुद्ध में सच्चे मनुष्य को एकजुट होकर परिवर्तन संसाधित करना होगा। इतना ही नहीं परिवर्तन लाने के लिए मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से स्वयं को तैयार करना होगा। जिस प्रकार बुरा कार्य करने के लिए भी मनुष्य को तैयार होना पड़ता है, उसी प्रकार अच्छा कार्य करने के लिए भी मनुष्य को तैयार होना पड़ता है। उसका एक प्रस्तुति पर्व होता है। दीर्घ काल से प्रस्तुति पर्व चल रहा है, आज परिवर्तन अवश्यम्भावी हो गया है। और देर करना मानो बर्दास्त नहीं हो रहा है ।

   आज श्री कृष्ण के समय के बाद प्रायः साढे तीन हजार वर्ष हो गये हैं। शिव के समय से प्रायः आज सात हजार वर्ष हो गये हैं। आज के मनुष्य को भी उसी तरह से तैयार होना पड़ेगा। नये आदर्श को लेकर नवतर संग्राम में कूद पड़ना होगा, मनुष्य जाति के सामूहिक कल्याण के लिए। जब ऐसा विराट परिवर्तन अतीत में आया है जिस तरह से शिव के समय में आया था, कृष्ण के समय में आया था तब नये दर्शन, नये जीवनवाद से प्रकाश प्रदीप्त करने की प्रेरणा लेकर मनुष्य प्रस्तुत हुआ था। इसीलिए उन्होंने थोड़े समय में ही अपने कार्य को पूरा कर लिया था। परिवर्तन लाने के लिए संग्राम करना ही होगा। और वह संग्राम कभी अधिक समय लेता है, तो कभी कम समय लेता है। जहाँ पर किसी विराट पुरुष से प्रेरणा लेकर मनुष्य कार्य में लगता है, तब कुछ ही समय में ही वह हो जाता है। तब मनुष्य को सोच-समझ कर देखना पड़ता है कि उनके समक्ष कौन-कौन सी समस्यायें हैं। और उसी के मुताबिक अपनी उन समस्याओं के समाधान के लिए तैयार होना पड़ता है। तैयार हो जाने पर काफी कम समय में ही वह अभीष्ट सिद्धि हो सकती है। तो आज के इस मनुष्य समाज को खण्डित रूप में न देख अखण्ड रूप में देखना होगा तथा जिन बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता आई है, आवश्यकता तो आ ही गई है- तथा उनमें कौन कौन अत्यन्त मुख्य हैं और कौन गौण हैं, उन्हें छाँटकर मुख्य समस्याओं के समाधान के लिए तुरन्त ही, इसी मुहूर्त से ही मनुष्य को तैयारी करनी होगी, क्योंकि जितनी देर होती है, की जाती है, मनुष्य जाति के दुःख का दिन उतना ही दीर्घायत, होगा। इसलिए विलम्ब करने से नहीं चलेगा।  मनुष्य जाति के सामूहिक कल्याण के लिए सामाजिक अर्थ नैतिक मानव-दर्शन (Socio Economic Human Philosophy)  लेकर हमें  सत्कर्म में अपना- अपना योगदान सुनिश्चत करना चाहिए। कहावत है 'शुभस्य शीघ्रम्' अशुभस्य कालहरणम् । शुभ कार्य जब करना ही है, तब पोथीपत्रा, तिथि, नक्षत्र देखकर करने की जरूरत नहीं। इसी मुहूर्त से जुट जाने की जरूरत है। और जब अशुभ कार्य करना पड़े, तब जितना हो सके देरी कर दो, जिससे देर करते-करते मनोभाव में परिवर्तन आ जाता है- मन सोचता है- नहीं, यह सब बुरा काम है, वह सब मैं नहीं करूँगा ।तो सत्कार्य में जब हमलोगों को जुटना है, और सत्कार्य जब कर रहे हैं  तब थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए क्योंकि इस व्यावहारिक जगत् में, इस आपेक्षिक जगत् में सबसे मूल्यवान् आपेक्षिक तत्त्व है 'समय'। समय एक बार बीत जाने पर और फिर वापस नहीं आता। इसलिए समय का अपव्यवहार या अव्यवहार नहीं करना चाहिए।

   #  (संकलन)