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गुरुवार, 4 नवंबर 2021

 दीपावली पर विशेष-

कब जलेगा मन का दीप

                                --भानु प्रकाश नारायण

 प्रशांत का मन आज अशांत था । क्योंकि आज कार्तिक कृष्ण अमावस्या की पावन तिथि है

। आज दीपों का पावन पर्व दीपावली मनाई जाएगी । तम को नाश करने का एक नाटक रचा जाएगा ।यही सब तो प्रशांत पिछले 30 वर्षों से देखता और न चाहते हुए भी उसमें शरीक होता चला आया था। पर ,आज वह सुबह से ही बेचैन है। सोचता है अपने प्यारे वतन के बारे में। अपने बारे में और कह उठता है - 

कांटे सदा चुभे पांवों में 

झोली में कब फूल मिला 

जलता रहा धूप बत्ती सा

 कभी न मन का सुमन मिला। 

यही सब सोचता हुआ आगे बढ़ता जाता है अपने शिष्यों के घरों की ओर।

सोचता है आज जरूर पैसे मिलेंगे। भला क्यों नहीं मिलेंगे?30 दिनों तक पैरों के तलवे घिसे हैं ।तभी  उसकी नजर सड़क के किनारे पत्थर के टुकड़े करते हुए मजदूर करते हैं प्रशांत देखकर सोचता है क्या आज दीपावली है कहीं भूल तो नहीं क्या सोचता है नहीं नहीं मुझे पूरा याद है आज ही दीपावली है पर मेरे जैसे ही भारत से अलग हो 50 करोड़ जनता को क्या मतलब श्लोक दीप जलाएंगे हम भी जला देंगे उनके बच्चे पटाखे की धमाचौकड़ी करेंगे हम लोग के बच्चे लग जाए आंखों से देख कर मन मसोसकर रह जाएंगे तभी एक पटाखे की आवाज सुनकर जाता है बच्चे उठाकर हंसते हैं उन्हें मजा आता है आगे बढ़ जाता है सामाजिक व्यवस्था के बारे में आज हम अंधकार की कोशिश कर रहे हैं क्या पर क्या हम अंधकार बढ़ा सकेंगे हिंसा लूटपाट व स्थिरता की आग में जलाकर अपनी पावन धरती आज मानवता के मरदह संस्कृति और विरासत मूल्यों के सर्वनाश प्रति घटती जा रही है स्वार्थ भ्रष्टाचार का बोलबाला है हमारे समाज में जो की लंबी कतारें देखें

को मिल रही है फ्रेंड प्रशांत की तो सरकारी नौकरी के चक्कर में कहां-कहां आज मानवता अपनी मर्यादा संस्कृति और विरासत मूल्यों के सर्वनाश पर रोती बिलखती जा रही है आज धन एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला है हमारे समाज में बेरोजगारी रोक लंबी कतारें देखने को मिल रही है स्वयं प्रशांत भी तो सरकारी नौकरी के चक्कर में कहां-कहां नहीं पड़ता दर की ठोकरें खाई पता है सब जगह निराशा ही हाथ लगी प्रशांत सोचता है आज हम प्रकाश पर्व बनाने जा रहे हैं तमसो मा ज्योतिर्गमय कहा जा रहा है हां सही ही तो है अंधकार में तो दीप जलाने का आवश्यकता होती है जब से हम स्वतंत्र हुए हैं हम आलसी और आराम तलबी होते जा रहे हैं आज के सैनिक हो और में तो बोलो के आगे हमारे टिमटिमाते हुए दीपों के बिल साथ ही क्या रह गई है कितने सपने संजोए थे प्रशांत ने लेकिन कभी अपने सभी सपने भीतर के दफन होते जा रहे हैं ना चाहते हुए भी समाज ने उसके साथ नीलिमा का पल्लू बांध दिया था आज भी दो बच्चे भी आ चुके हैं अपने लिए ना सही उन लोगों के लिए कुछ सोचना ही है कुछ करना ही है कैसे समझाएगा उन लोगों को हम लोगों ही नहीं हम स्थिति में हैं फिर भी मारे मारे हमारा हम आप से भी बदतर स्थिति में है पर क्या बच्चे अपने सामने की हवेली से उड़ते हुए संकट को देखते हुए पटाखों की आवाज को सुनकर समझते हैं दीपावली का हमेशा हमारे संस्कार और जीवन से संबंधित है इतना अच्छा होता है यदि आज का जलता हुआ दीपक के साथ हमारी आत्मा को एक नई रोशनी शक्ति देती है दूसरे के दुख दर्द को समझते हमारी पुरानी सभ्यता और संस्कृति का आगमन होता ।

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