स्वच्छता का अर्थ है हमारे शरीर , मन और चारो तरफ विद्मान वस्तुओं एवं स्थानों की यथोचित सफाई सुनिश्चित रखना।
सोमवार, 28 जून 2021
स्वच्छता
शुक्रवार, 25 जून 2021
शुक्रवार, 18 जून 2021
अंत: शक्ति
किसी समय इस सृष्टि का परम हेतु परमात्मा अकेला होने पर विचार करने लगा कि मैं अब एक से अनेक हो जाऊं। उसने जैसे ही यह विचार किया, उसकी वही इच्छा तत्काल एक युवती का रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। परमात्मा स्वयं पुरुष बन गया और उस युवती के साथ मिलकर सृष्टि-सृजन करने लगा, यहां यह अवश्य जाना चाहिए कि परमात्मा अव्यक्त और अकर्ता है इसीलिए सृष्टि का संपूर्ण कार्य शक्ति स्वरूपा उस युक्ति से ही हुआ पुरुष केवल दृष्टा मात्र ही रहा।
शक्ति इस सृष्टि के मूल में है और यही मनुष्य के जीवन -संचालन की एकमात्र हेतु भी है। विचारकों ने आगे चलकर यह कहा है कि मनुष्य में यह शक्ति भाई शक्ति तथा अंतः शक्ति के रूप में दो प्रकार से होती है। बाहर शक्ति में तन,जन और धन होते हैं, जिनसे यह अपना जीवन व्यवहार चलाता है। यदि व्यक्ति का तन पुष्ट है और इसके पास पर्याप्त जन बल है तो वह समाज में अपना दबदबा बनाकर चलता है। आवश्यकता होने पर धन का प्रयोग करके और अधिक बलवान हो जाता है।
इसकी दूसरी शक्ति है अंत: र्शक्ति। यह शक्ति नीति-नियम, सत्य, दया-दान तथा सभी के प्रति अपनापन का भाव रखने से प्राप्त होती है। यह शक्ति प्रत्यक्ष में तो दिखाई नहीं देती, किंतु इसके प्रभाव से बड़े से बड़ा शक्तिमान भी अभिभूत होकर अंतर्शक्ति रखने वाले के सामने प्रणत हो जाता है। इसी शक्ति के प्रभाव से हमारे पूर्व ऋषियों ने बड़े से बड़े प्रभावी और समर्थ राजाओं को भी अपने सामने प्रणत करा कर सदा उन पर न केवल अनुशासन किया, अपितु उन्हें प्रजा के हित में कार्य करने के लिए विवश भी किया। इसीलिए विचार वन पुरुष सदा यही कहते हैं कि व्यक्ति के पास यदि बाहृय शक्ति है तो वह उसका प्रयोग विवेक और विचार से करे। इसी के साथ वह अधिक से अधिक अंत:र्शक्ति को बढ़ाकर अपनी और समाज के कल्याण में सहयोगी हो।
सोमवार, 7 जून 2021
सेवा भाव
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से इतर वह या तो दानव है या फिर देवता ! समाज में बने रहने, उसकी समृद्धि और समुचित विकास के लिए हर मनुष्य के लिए सामाजिक दायित्व निर्धारित होता है। इस दायित्व के केंद्र में जो भावना केंद्रित होती है वह है-' सेवा भाव'। ईश्वर ने सजीव प्राणियों में मात्र मानव को ही इस भाव से परिपूर्ण बनाया है। इसलिए मनुष्य की जवाबदेही और जिम्मेदारी दोनों बढ़ जाती हैं।
गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं है। वैसे भी मानव जीवन की सार्थकता इसी बात पर निर्धारित होती है कि उसने अपने जीवन को कैसे उपयोगी बनाया है? मानव जीवन की उपयोगिता परहित में ही निहित है, जिसका आधार सेवा भाव है। समाज सेवा के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि 'यही पशु- प्रवृत्ति है कि आप ही चले, वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।' मतलब एकाकी होकर निज स्वार्थ में जीवन जी लेना वास्तव में अर्थहीन जीवन है। बदले में कुछ पाने की लालसा में मदद या सेवा भी व्यर्थ है। सेवा का प्रतिफल असीम संतुष्टि है जिससे हमें आनंद की प्राप्ति होती है।
एक कहावत है ,'सेवा स्वयं में पुरस्कार है'। खुशी और आनंद की प्राप्ति हमें दूसरों की सेवा से मिलती है उसे लाखों रुपए खर्च करके भी नहीं पाया जा सकता है। आज जब मानव जाति आपदा से जूझ रही है तो मानवता की पुकार यही सेवा भाव है। अनेक प्रकार से आज हम एक दूसरे के साथ खड़े होकर साथ निभाकर इस करोना काल को मात दे सकते हैं। आज जब लोग अपनों को खो रहे हैं ऐसे में संवेदना के दो बोल और साथ का भरोसा ही सच्ची सेवा का दर्शन है। निस्वार्थ भाव से योग्य द्वारा प्लाज्मा दान आज कई जीवन को बचाने का आधार बना रहा है। सच में हम सब मिलकर समस्त मानव समाज के लिए सेवा और मदद का भाव रखकर संकटकाल को काट सकते हैं।