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शुक्रवार, 18 जून 2021

अंत: शक्ति

     किसी समय इस सृष्टि का परम हेतु परमात्मा अकेला होने पर विचार करने लगा कि मैं अब एक से अनेक हो जाऊं। उसने जैसे ही यह विचार किया, उसकी वही इच्छा तत्काल एक युवती का रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। परमात्मा स्वयं पुरुष बन गया और उस युवती के साथ मिलकर सृष्टि-सृजन करने लगा, यहां यह अवश्य जाना चाहिए कि परमात्मा अव्यक्त और अकर्ता है इसीलिए सृष्टि का संपूर्ण कार्य शक्ति स्वरूपा उस युक्ति से ही हुआ पुरुष केवल दृष्टा मात्र ही रहा।


    शक्ति इस सृष्टि के मूल में है और यही मनुष्य के जीवन -संचालन की एकमात्र हेतु भी है। विचारकों ने आगे चलकर यह कहा है कि मनुष्य में यह शक्ति भाई शक्ति तथा अंतः शक्ति के रूप में दो प्रकार से होती है। बाहर शक्ति में तन,जन और धन होते हैं, जिनसे यह अपना जीवन व्यवहार चलाता है। यदि व्यक्ति का तन पुष्ट है और इसके पास पर्याप्त जन बल है तो वह समाज में अपना दबदबा बनाकर चलता है। आवश्यकता होने पर धन का प्रयोग करके और अधिक बलवान हो जाता है।


    इसकी दूसरी शक्ति है अंत: र्शक्ति। यह शक्ति नीति-नियम, सत्य, दया-दान तथा सभी के प्रति अपनापन का भाव रखने से प्राप्त होती है। यह शक्ति प्रत्यक्ष में तो दिखाई नहीं देती, किंतु इसके प्रभाव से बड़े से बड़ा शक्तिमान भी अभिभूत होकर अंतर्शक्ति रखने वाले के सामने प्रणत हो जाता है। इसी शक्ति के प्रभाव से हमारे पूर्व   ऋषियों ने बड़े से बड़े प्रभावी और समर्थ राजाओं को भी अपने सामने प्रणत करा कर सदा उन पर न केवल अनुशासन किया, अपितु उन्हें प्रजा के हित में कार्य करने के लिए विवश भी किया। इसीलिए विचार वन पुरुष सदा यही कहते हैं कि व्यक्ति के पास यदि बाहृय शक्ति है तो वह उसका प्रयोग विवेक और विचार से करे। इसी के साथ वह अधिक से अधिक अंत:र्शक्ति को बढ़ाकर अपनी और समाज के कल्याण में सहयोगी हो।


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