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सोमवार, 7 जून 2021

सेवा भाव

    मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज से इतर वह या तो दानव है या फिर देवता ! समाज में बने रहने, उसकी समृद्धि और समुचित विकास के लिए हर मनुष्य के लिए सामाजिक दायित्व निर्धारित होता है। इस दायित्व के केंद्र में जो भावना केंद्रित होती है वह है-' सेवा भाव'।  ईश्वर ने सजीव प्राणियों में मात्र मानव को ही इस भाव से परिपूर्ण बनाया है। इसलिए मनुष्य की जवाबदेही और जिम्मेदारी दोनों बढ़ जाती हैं।    


    गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार दूसरों की भलाई से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं है। वैसे भी मानव जीवन की सार्थकता इसी बात पर निर्धारित होती है कि उसने अपने जीवन को कैसे उपयोगी बनाया है? मानव जीवन की उपयोगिता परहित में ही निहित है, जिसका आधार सेवा भाव है। समाज सेवा के बारे में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है कि 'यही पशु- प्रवृत्ति है कि आप ही चले, वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे।' मतलब एकाकी होकर निज स्वार्थ में जीवन जी लेना वास्तव में अर्थहीन जीवन है। बदले में कुछ पाने की लालसा में मदद या सेवा भी व्यर्थ है। सेवा का प्रतिफल असीम संतुष्टि है जिससे हमें आनंद की प्राप्ति होती है।


    एक कहावत है ,'सेवा स्वयं में पुरस्कार है'। खुशी और आनंद की प्राप्ति हमें दूसरों की सेवा से मिलती है उसे लाखों रुपए खर्च करके भी नहीं पाया जा सकता है। आज जब मानव जाति आपदा से जूझ रही है तो मानवता की पुकार यही सेवा भाव है। अनेक प्रकार से आज हम एक दूसरे के साथ खड़े होकर साथ निभाकर इस  करोना काल को मात दे सकते हैं। आज जब लोग अपनों को खो रहे हैं ऐसे में संवेदना के दो बोल और साथ का भरोसा ही सच्ची सेवा का दर्शन है। निस्वार्थ भाव से योग्य द्वारा प्लाज्मा दान आज कई जीवन को बचाने का आधार बना रहा है। सच में हम सब मिलकर समस्त मानव समाज के लिए सेवा और मदद का भाव रखकर संकटकाल को काट सकते हैं।


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