मोक्ष एक परम आकांक्षा है परन्तु उसके लिये पात्रता भी आवश्यक है। इस पात्रता की परिभाषा भी समझनी होगी। मोक्ष का वास्तविक अर्थ है जन्म और मृत्यु के आवागमन से मुक्ति और परमब्रम्ह में विलीन होना। यह भी तथ्य है कि एक जैसे तत्व ही एक दूसरे में विलय हो सकते हैं। ईश्वर यानी बम्ह निर्गुण तथा सम स्थिति में है। इसका अर्थ है कि वह काम, क्रोध लोभ, मोह और अहंकार मुक्त है। यदि प्राणी भी उसमें विलीन होना चाहता है तो उसे भी इसी स्थिति में आना पड़ेगा तभी वह मोक्ष का पात्र बनने में सक्षम हो सकेगा। इसीलिये संसार के प्रत्येक धर्म में यही शिक्षा दी गई है कि यदि ईश्वर की प्राप्ति करनी है तो पहले बुराईयों से मुक्ति पानी होगी।
सनातन धर्म में जीवन को व्यवस्थित करने के
लिये उसे चार भागों में विभाजित किया गया है। ये हैं- ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। वर्तमान में साठ
वर्ष की आयु के बाद मनुष्य का एक प्रकार से वानप्रस्थ आरम्भ हो जाता है। जीवन के इस पड़ाव पर उसे सांसारिक बुराईयों से
दूर होने का प्रयास करना चाहिये। इसके
लिये उसे पतंजलि के अष्टांग योग का सहारा लेना चाहिये। यदि वह इसके पहले दो कदम अर्थात सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, असते और अपरिग्रह तथा
नियम-ईश्वर की उपासना, स्वाध्याय, शौच, तप, सन्तोष और स्वाध्याय को
ही अपना ले तो बहुत हितकारी होगा। इसमें अपरिग्रह से
तात्पर्य है आवश्यकता से अधिक भंडारण न करना।
असते अर्थात किसी प्रकार की चोरी न करना।
इन दोनों कदमों से ही मनुष्य की मानसिकता बदल जायेगी और परम शान्ति तथा सम
स्थिति का अनुभव होगा। ऐसी अवस्था जिसमें
कोई कामना या भय नही रहेगा। यदि यह अवस्था
स्थाई रूप से प्राप्त हो जाती है तो मनुष्य को यह आभास हो जाना चाहिये कि वह मोक्ष
का पात्र बन गया है और अब उसे सर्वशक्तिमान स्वयं अपने में विलीन करके परम शान्ति
प्रदान करेंगे। इसी को मोक्ष का आभास भी
कहा जाता है। यही पूर्वाभास मोक्ष
प्राप्ति का मार्ग बनता है।