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गुरुवार, 26 नवंबर 2020

भारत का संविधान

 26 नवंबर पर विशेष

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भारत का संविधान

(विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान)

भारत का संविधान, भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। यह दिन (26 नवम्बर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।भीमराव आम्बेडकर को भारतीय संविधान का प्रधान वास्तुकार या निर्माता कहा जाता है। भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है।

भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों - भारत और पाकिस्तान में बंट गया था। संविधान सभा भी दो हिस्सो में बंट गई- भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा।

भारतीय संविधान लिखने वाली सभा में 299 सदस्य थे जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 में अपना काम पूरा कर लिया और 26 जनवरी 1950 को यह संविधान लागू हुआ। इसी दिन कि याद में हम हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। भारतीय संविधान को पूर्ण रूप से तैयार करने में 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन का समय लगा था।


सोमवार, 23 नवंबर 2020

स्वभाव

                                                                          स्वभाव 

चर और अचर रूप में निर्मित यह सृष्टि विधाता की अनुपम कृति है। इसलिए इसको चराचर जगत कहा जाता है। इसमें सभी प्राणियों का अपना स्वभाव होता है। वे सदैव उसी अनुरूप व्यवहार करते हैं। कभी उसे अलग नहीं होते। जैसे जल का स्वभाव है शीतलता, अग्नि का स्वभाव है जलाना और धरती का गुण है सहनशीलता। ये सभी अपने गुरु के कभी नहीं छोड़ते। इसलिए यह इनका स्वभाव कहलाता है और यही पहचान भी। अपने इसी मूल स्वभाव में रह कर ये अपना जगत का कल्याण करते हैं।

इस जगत में मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, क्योंकि उसने उसे बुद्धि और विवेक से समृद्ध किया है। इसलिए मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी विश्वस्त हैं इसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करना मनुष्य का धर्म है इसकी सीधी में सर्वाधिक योगदान मनुष्य के स्वभाव का होता है भागवत गीता के पंचम अध्याय में स्वभाव को अध्यात्म कहा गया है स्वभाव निर्यात कर्मों को करता हुआ प्राणी बाप की ओर नहीं बढ़ सका अपितु अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेता है वास्तव में मानव जीवन का प्रथम और अंतिम उद्देश्य अभी गए और मोक्ष की प्राप्ति है आता इनकी प्राप्ति में जो सहायक हो वही मानव का स्वभाव हो सकता है इस देश से प्रेम शांति और सद्भाव मानव स्वभाव की आत्मा है और जीवन यात्रा के साथ ही पाथेय भी। 

देखने में आ रहा है कि अन्य प्राणियों के  विपरीत मनुष्य से अपने mul स्वभाव से भी मुख हो रहा है इसी लिए वह न केवल स्वयं के लिए बल्कि दूसरों के लिए भी दुख का कारण बन गया है मानव की यह प्रविधि किसी प्रकार शुभ संकेत नहीं कही जा सकती समझना होगा कि इस दुनिया में सुख और दुख का कारण मानव स्वभाव ही है और दुख निवृत्ति का ही तू भी वही है इसलिए अपने एवं जगत के कल्याण के लिए मनुष्य को अपने मूल स्वभाव की ओर लौटना होगा जगत के कल्याण का इससे इतर कोई मार्ग नहीं।  


सोमवार, 9 नवंबर 2020

आत्मविश्वास

                                                                         आत्मविश्वास


  हमारे जीवन में आत्मविश्वास का होना उतना ही आवश्यक है, जितना किसी पुष्प में सुगंध का होना। यदि किसी व्यक्ति के पास योग्यता, क्षमता और पर्याप्त संसाधन है, परंतु उसे खुद पर विश्वास नहीं, तो उस व्यक्ति से सफलता वास्तव में दूर है। इसके विपरीत तमाम अभाव के बावजूद यदि कोई व्यक्ति स्वयं उसको साबित करने के विश्वास यानी आत्मविश्वास से ओतप्रोत है तो उसकी सफलता सुनिश्चित है। असल में आत्मविश्वास वह ऊर्जा है, जो सफलता की राह में आने वाले प्रत्येक अवरोध को दूर करने का सामर्थ्य प्रदान करती है।


  इतिहास साक्षी है कि आत्मविश्वास के दम पर साधारण व्यक्तियों ने भी असाधारण उपलब्धियों को अपने नाम किया। यदि आत्मविश्वास ना होता तो एक मामूली सा बालक चंद्रगुप्त कभी एक महान साम्राज्य का सम्राट नहीं बनता। स्पष्ट है कि आत्मविश्वास और चरित्र के बल पर एक साधन रहित व्यक्ति भी महान सफलता प्राप्त कर सकता है। यह सिद्ध है कि स्वयं पर विश्वास होने पर हम बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर सकते हैं। यदि आपको विश्वास हो कि आप यह काम कर सकते हैं तो आपका वह प्रयोजन अवश्य पूर्ण होता है। यह भी प्रमाणित होता है कि मनुष्य उसी कार्य को उचित प्रकार से कर सकता है, जिसकी सिद्धि में उसका सच्चा विश्वास हो।


यदि किसी व्यक्ति को अपने पर भरोसा है तो वह पहले ही आधी लड़ाई जीत चुका होता है। प्रसिद्ध अमेरिकी कवि और लेखक इमर्सन कहते हैं, 'दुनिया के सारे युद्धों में इतने लोग नहीं पराजित होते, जितने सिर्फ घबराहट से प्राप्त हो जाते हैं।' ऐसे में किसी भी व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रथम सर्वप्रथम स्वयं पर विश्वास करें। उसके विपरीत उसके लिए कोई लक्ष्य निर्धारित करे। फिर निश्चय कर ले कि उसे प्राप्त किया जा सकता है तो उसमें सफलता शत-प्रतिशत निश्चित है। वास्तव में आत्मविश्वास ही सफलता की कुंजी है, जिसे सफलता की चाह रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति  को अपने पास रखना चाहिए।


बुधवार, 4 नवंबर 2020

कामकाज की भाषा-हिन्दी


कामकाज की भाषा-हिन्दी

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             हिंदी केवल साहित्य की भाषा नहीं है वह कामकाज की भी भाषा है, हिंदी के समक्ष जब हम चुनौतियों की चिंता करें तब हिंदी की इस भूमिका को भी गम्भीरता से देखना चाहिए. लगभग दो सौ वर्षोँ के लंबे ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के बाद स्वाधीन भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को निर्णय लिया कि संघ के राजकाज की आधिकारिक भाषा यानी राजभाषा हिंदी होगी. यह तय किया गया कि 15 वर्षों तक देश में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भी चलती रहेगी. इसके पीछे यह मासूम अवधारणा थी कि इस 15 वर्ष की पर्याप्त अवधि में शासन-प्रशासन का समस्त कामकाज राजभाषा हिंदी में होने लगेगा. लेकिन अनेक अवांछित कारणों और कटु कारकों के चलते इस निर्धारित अवधि में यह संभव नहीं हो सका. परिणामत: सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया गया ताकि संघ के राजकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को अमल में लाया जा सके. राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) में यह आदेशपूर्वक निर्दिष्ट किया गया कि सर्वसाधारण को लक्ष्य कर तैयार किए जाने वाले सभी दस्तावेज, नामत: आदेश, ज्ञापन, परिपत्र, सूचना, अधिसूचना, विज्ञापन, निविदा, संविदा, अनुज्ञप्ति, करार, संसद के दोनों सदनों में पेश किए जाने वाले प्रशासनिक और अन्य प्रतिवेदन आदि अंग्रेजी के साथ-साथ अनिवार्यत: हिंदी में भी जारी किए जाएँ. अर्थात् ये सभी सरकारी दस्तावेज अनिवार्यत: द्विभाषी रूप में ही जारी किए जाएँ और इसका दृढ़तापूर्वक पालन किया जाए. इसका उल्लंघन होने पर इन दस्तावेजों पर अंतिम रूप से हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा.

  हिंदी की स्थिति         

संघ की राजभाषा नीति के सतत क्रियान्वयन में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. और यहीं से सरकारी कार्यालयों में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और सरकार को संसद के दोनों सदनों समेत सभी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, अधीनस्थ कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों, बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की पूर्णकालिक और स्थायी नियुक्ति, और वह भी पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की तत्काल आवश्यकता बेहद शिद्दत से महसूस हुई. यों तो विशेष प्रकार के अनुवादों यथा नियमों, कोडों, मैन्युअलों, तकनीकी व विधिक साहित्य, शोध, अनुसंधान आदि जैसे दस्तावेजों के केंद्रीकृत अनुवाद के लिए विधि मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो भी सक्रिय था. लेकिन सांविधिक, विधिक और तकनीकी अनुवादों के अलावा सामान्य अनुवादों के लिए भी भारत सरकार के हरेक मंत्रालय, विभाग, कार्यालय, संगठन, बैंक, उपक्रम आदि में हिंदी अनुवादकों की भर्ती शुरू हुई और राजभाषा नीति के व्यापक कार्यान्वयन और राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा संकल्प, 1968 तथा राजभाषा नियम, 1976 के अनुपालन की निगरानी के लिए राजभाषा अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों यथा सहायक निदेशक (राजभाषा), निदेशक (राजभाषा) इत्यादि की नियुक्तियों को गति मिली. फलस्वरूप, हरेक मंत्रालय, विभाग, अधीनस्थ कार्यालय, संगठन, बैंक इत्यादि में उनकी कुल स्टाफ संख्या के एक निश्चित अनुपात के रूप में न केवल हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों की, वरन् कनिष्ठ हिंदी अनुवादकों, वरिष्ठ हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों, सहायक निदेशकों, निदेशकों आदि के पदों का पर्याप्त संख्या में सृजन भी किया गया. लेकिन ये सृजित पद कभी भी पूरे के पूरे नहीं भरे गए.

हाँ, नीतिगत तौर पर हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों समेत हिंदी अनुवादकों, हिंदी अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों आदि की नियमित नियुक्तियों की शुरूआत से संघ की राजभाषा नीति की अपेक्षाओं की आंशिक पूर्ति तो अवश्य हुई. कार्यालयों में रोजमर्रे के कामकाज और नेमी किस्म के पत्राचार, टिप्पण, प्रविष्टि आदि हिंदी में करने का दबाव भी बढ़ा और कार्यालयों के नाम, नामपट्ट, सूचनापट्ट, मोहर, सील, पत्रशीर्ष, लिफाफे आदि ही नहीं बल्कि नेमी किस्म के प्रपत्रों, फॉर्मों, पर्चियों आदि समेत रेलवेज, एयरवेज आदि के आरक्षण-फॉर्म, टिकट, बैंकों की निकासी व जमा पर्चियाँ, चेकबुक, पासबुक इत्यादि भी हिंदी में प्रदर्शित, प्रकाशित और मुद्रित होने लगे. इतना ही नहीं, सरकारी सेवाओं के लिए ली जाने वाली समस्त भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी अनिवार्यत: तैयार किए जाने लगे और इन भर्तियों के लिए आयोजित होने वाले साक्षात्कारों में भी हिंदी में उत्तर देने का प्रावधान किया गया. इनके अलावा मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि की वार्षिक रिपोर्टें भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी तैयार की जाने लगीं और सभी प्रदर्शित, प्रकाशित व मुद्रित दस्तावेजों व नामपट्ट, पत्रशीर्ष, मोहर इत्यादि में हिंदी को वरीयता प्रदान की गई, अर्थात् पहले हिंदी और फिर अंग्रेजी. जहाँ तीन भाषाएँ हैं, वहाँ सर्वप्रथम प्रांतीय भाषा, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेजी. यहाँ विशेष रूप से यह भी निर्दिष्ट किया गया कि तीनों भाषाओं के अक्षर के आकार एक समान हों, रंग एक समान हों और उनमें प्रयुक्त सामग्री (यथा धातु) अनिवार्यत: एक हों. आशय यह कि प्रांतीय भाषा को ताँबे में, हिंदी को पीतल में और अंग्रेजी को सोने के अक्षरों में नहीं दर्शाएँ.    

यदि आप इन प्रावधानों की बारीकियों पर गौर करें तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि संघ की राजभाषा नीति बेहद संवेदनशील एवं सर्वसमावेशी है और यहाँ किसी भी भाषा को कमतर या बेहतर नहीं बताया गया है. संविधान के 17वें भाग में अनुच्छेद 351 में यह स्पष्ट कहा गया है कि "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्दभंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे." यदि आप थोड़ा और गौर करें तो आप पाएँगे कि सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों, इकाइयों आदि में, सरकारी कामकाज में, नामपट्टों, मोहरों, साइनबोर्डोँ, पत्रशीर्षों, लिफाफों आदि से लेकर सरकारी सूचनाओं, विज्ञापनों, परीक्षा के प्रश्नपत्रों, नेमी फॉर्मों, टिकटों, बैंक की आहरण व निकासी पर्चियों आदि में अंग्रेजी के अलावा जो प्रचुर हिंदी या थोड़ी-बहुत हिंदी दिखती है, वह संघ की इसी राजभाषा नीति के बूते और बदौलत है!        

यों तो संघ के राजकाज में हिंदी की स्थिति और संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन में हुई प्रगति संतोषजनक ही नहीं बल्कि पर्याप्त उत्साहजनक प्रतीत होती है. लेकिन सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग की स्थिति न तो संतोषजनक है और न ही उत्साहवर्धक. इसके साथ-साथ, मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि में  राजभाषा नीति के कार्यान्वयन को गति देने के मूलभूत उद्देश्य से सुगमकर्ता के रूप में नियुक्त किए हिंदी अनुवादकों, राजभाषा अधिकारियों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. कार्यालयों में उनके सृजित पद पर्याप्त संख्या में या तो भरे ही नहीं गए हैं या फिर उन पदों पर स्थायी नियुक्तियाँ लंबे समय से अवरूद्ध हैं. जो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी नियुक्त किए भी गए हैं, उन्हें अपने बैठने और तल्लीनता से कामकाज करने के वास्ते समुचित स्थान पाने तक के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है. उनके करियर, पदोन्नति आदि के मार्ग अत्यंत हताशाजनक रूप से सुस्त और अवरूद्ध हैं. कार्यालयों में स्टाफ की कमी के कारण या जानबूझकर उन्हें उनके मूल काम की बजाय कार्यालय के अन्य कामों में लगा दिया जा रहा है. संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन से जुड़े राजभाषा कर्मियों के साथ ऐसे प्रतिकूल व्यवहार और ऐसे प्रतिकूल माहौल को देखकर संसदीय राजभाषा समिति को अपनी हालिया रिपोर्टों तक में यह सख्ती से कहना पड़ा है कि राजभाषा हिंदी से जुड़े कर्मियों को उनके बैठने, कामकाज करने हेतु समुचित और सम्मानजनक स्थान और साजो-सामान मुहैया कराया जाए. उन्हें समुचित और समयबद्ध पदोन्नति प्रदान की जाए और जहाँ उनके अपने संवर्ग में अवसर नहीं हो तो ऐसी स्थिति में उन्हें सामान्य संवर्ग में पदोन्नति देने की व्यवस्था की जाए ताकि उनका करियर बाधित नहीं हो और वे हताशा और उपेक्षा के शिकार नहीं होने पाएँ.

लेकिन इन सबके बावजूद, सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी को अपनाने और इसे समुचित बढ़ावा देने के प्रति वांछित उत्साह प्राय: देखने को नहीं मिलता है. वरिष्ठ प्रबंधन से लेकर निचले पायदान तक हिंदी में काम करने की मानसिकता पर्याप्त रूप से अबतक नहीं बन पाई है. इस कंप्यूटर युग में "कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर" के हावी हो जाने के कारण अब यह और भी कठिन हो गया है! कार्यालयों में सामान्यत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि हिंदी में काम का मतलब हिंदी अधिकारी का काम! अब उन्हें कौन समझाए कि अगर किसी कार्यालय में कुल कर्मचारियों और अधिकारियों की औसत संख्या तीन सौ है तो उनके द्वारा प्रतिदिन किया गया सारा कामकाज हिंदी के नाम पर वहाँ नियुक्त मात्र दो या तीन हिंदी आधिकारियों को नहीं सौंपा जा सकता है! यदि मान लें कि तीन सौ स्टाफ में से एक सौ स्टाफ भी प्रतिदिन अंग्रेजी में एक-एक पृष्ठ के एक सौ पत्र तैयार करते हैं तो दो-तीन राजभाषा अधिकारी को प्रतिदिन एक सौ पृष्ठ हिंदीं में अनुवाद करने होंगे! यह न सिर्फ संघ की राजभाषा नीति की मूल भावना के विपरीत है, बल्कि यह संघ की राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा नियम, 1976 और भारत सरकार द्वारा राजभाषा हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए हर वर्ष जारी किए जाने वाले वार्षिक कार्यक्रम का सरासर उल्लंघन भी है! इस वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार भाषायी आबादी के आधार पर विभाजित 'क', 'ख' और 'ग' क्षेत्र में स्थित कार्यालयों को क्रमश: 100 प्रतिशत, 90 प्रतिशत और 55 प्रतिशत मूल पत्राचार हिंदी में करना है. लेकिन इस आँकड़े को जैसे-तैसे हासिल करने के लिए हर बार पहले अंग्रेजी में तैयार पत्रों का हिंदी में अनुवाद करा लेने और इससे भी बदतर कि इसी की आड़ में राजभाषा अधिकारी को बार-बार हिंदी टाइपिस्ट में 'रिडिक्यूलसली रिड्यूस' कर देने का रिवाज बना लिया गया है! ऐसे में व्यावहारिक रूप में मूल पत्राचार हिंदी में होता ही नहीं है क्योंकि सभी पत्र सीधे हिंदी में नहीं बल्कि पहले अंग्रेजी में सृजित किए जाते हैं! जो कुछ हिंदी में तैरता है, वह मूल हिंदी पत्राचार नहीं, बल्कि हिंदी अनुवाद है.

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि कार्यालयों में इस प्रकार हिंदी में जो कुछ भी कामकाज होता या आँकड़ों में दर्शाया जाता है, वह दरअसल पूरे कार्यालय के सभी स्टाफ द्वारा किया गया न होकर, महज हिंदी अधिकारियों द्वारा ही किया गया होता है! ऐसे में विभागों को हिंदी में सर्वाधिक कामकाज के लिए मिलने वाले राजभाषा शील्ड या हिंदी में अधिकाधिक कामकाज करने के लिए कर्मचारियों को मिलने वाले प्रशंसा-पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कारों के असली हकदार तो राजभाषा अधिकारी ही हैं क्योंकि हिंदी में जो कुछ भी हुआ, वह बस उन्होंने ही तो किया है! लेकिन ऐसा कहाँ होता है? हाँ, अगर हिंदी में कामकाज के प्रतिशत में तनिक भी गिरावट दर्ज हुई तो फौरन उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है! जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी में कामकाज का यह प्रतिशत विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए कामकाज का पैमाना है, न कि राजभाषा अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए काम का पैमाना! और इस प्रतिशत में जो भी घट-बढ़ होती है, वह विभागों में हिंदी में कामकाज किए-न किए जाने से सीधे-सीधे जुड़ा है, न कि राजभाषा अधिकारियों के काम करने, न करने से!

लेकिन जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है, दफ्तर में हिंदी का काम मतलब अमूमन हिंदी अधिकारी का काम ही मान लिया जाता है. ऐसे में संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन को गति देने की गरज से भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम प्रशिक्षण योजनाओं और प्रोत्साहन योजनाओं यथा; हिंदी शिक्षण योजना के तहत प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ, प्रशंसा पत्र, नकद प्रोत्साहन पुरस्कार, राजभाषा शील्ड आदि-आदि का मूल उद्देश्य ही भंग हो जाता है क्योंकि ये योजनाएँ राजभाषा अधिकारियों के लिए नहीं बल्कि विभागों के समस्त कर्मचारियों-अधिकारियों को हिंदी में कामकाज करने में सक्षम बनाने और इस दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ही चलाई जाती हैं. लेकिन व्यावहारिक रूप में इन योजनाओं का नकदी पक्ष ही एकमात्र आकर्षण बन जाता है, हिंदी में कामकाज का पक्ष सर्वथा और सर्वत्र गौण ही हो जाता है! हाँ, इतना अवश्य है कि आम धारणा के उलट, हिंदी भाषाभाषी लोगों की तुलना में अहिंदी भाषाभाषी और विशेषकर दक्षिण भारतीय लोगों में हिंदी सीखने और हिंदी में कामकाज करने को लेकर कहीं अपेक्षाकृत ज्यादा उत्साह और समर्पण हर जगह देखने को मिलता है और हिंदी जानने वाले लोगों की तुलना में वे हिंदी में कामकाज नहीं करने के तर्क कम गढ़ते पाए गए हैं! यह स्थिति सुखद तो है ही!

 अनुवाद की स्थिति और अनुवाद की चुनौतियाँ           

सरकारी दायरे के बाहर देखें तो हिंदी को न तो बाजार से चुनौती है और न ही अंग्रेजी से कोई खतरा. बाजार हिंदी को हाथों-हाथ ले रहा है और अपने कारोबार दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ाता जा रहा है. फिल्म, मनोरंजन और विज्ञापन की दुनिया से लेकर बिजनेसिया अखबारों, बिजनेस चैनलों और स्पोर्ट्स चैनलों आदि तक में अब हिंदी की ही धूम है. लेकिन सरकारी दायरे में देखें तो संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन की दिशा में हुई तमाम सकारात्मक प्रगतियों व उपलब्धियों को मनन करने की आवश्यकता है।

नियमत: कार्यालयों में अनुवाद की आवश्यकता वहाँ पड़ती है जहाँ भाषायी, तकनीकी, कानूनी आदि जैसी जटिलताओं, पेंचों, कोणों से लबरेज दस्तावेज, शोधपत्र, अनुसंधान, वार्षिक रिपोर्ट, आदेश, परिपत्र, विनियमावली, अधिसूचना, अधिनियम इत्यादि जैसे कागजात पहले अंग्रेजी में तैयार किए गए होते हैं. यहीं से अनुवादक और राजभाषा अधिकारी की वास्तविक भूमिका आरंभ होती है. इसलिए ही सन् 1960 में तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय के आदेश पर ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों के अंग्रेजी से हिंदी में विधिवत अनुवाद के लिए अनुवादकों की स्थायी नियुक्ति शुरू की गई थी.

समस्या और चुनौतियाँ बड़ी हों तो इनकी पड़ताल और चीरफाड़ भी पूरे विस्तार से करनी होगी. इनके प्रति कोई 'शॉर्टकट' या 'कैप्सूल अप्रोच' नहीं बल्कि 'माइक्रोस्कोपिक अप्रोच' अपनाना होगा. समस्या और चुनौतियाँ- दोनों का ही एक्सरे, एमआरआई, एनाटॉमी करनी पड़ेगी. तभी हम इस समस्या के असली कारणों की शिनाख्त कर पाएँगे और चुनौतियों का मजबूती से सामना कर पाएँगे.

  अंग्रेजी बनाम स्मार्ट हिंदी        

दरअसल, हमारी कार्यालयी अंग्रेजी अभी भी क्वीन्स इंगलिश, विक्टोरियन इंगलिश, ब्रिटिश इंगलिश के अतीतानुरागी प्रभाव यानी 'नॉस्टेल्जिया' से बाहर नहीं निकल पाई है या हम ही उसे बाहर नहीं निकाल रहे ताकि अंग्रेजी की थोथी धौंस बनी रहे! परिणामत: यह पुरानी अंग्रेजी अब भी जबरन ढोए जा रहे लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, डच मुहावरों, आयतित जारगनों समेत तमाम तरह के दुहरावों, अवांछित उलझावों आदि-आदि से बुरी तरह ग्रस्त है और इसलिए भी वह स्वयं त्रस्त है. अब इस अंग्रेजी को बाजार की अंग्रेजी की तरह "क्रिस्पी, क्रंची, शॉर्ट एंड स्ट्रेट और टू दी प्वाईंट" होने की जरूरत है! संतोष की बात यह है कि भारत सरकार के शीर्ष स्तरों पर यानी मंत्रालयों आदि के वरिष्ठ अधिकारियों आदि के पत्राचार आदि में अब चुस्त-दुरूस्त अंग्रेजी देखने को मिलने लगी है. हालाँकि अब बतौर भाषा अंग्रेजी को भी यह समझ में आ गया है कि यदि शासन-तंत्र और बाजार में आ रहे बदलावों के डिजिटल दौर में अपने पाँव टिकाए रखना है तो उसे भी लंबे-लंबे वाक्यों, लैटिन-फ्रेंच-ग्रीक पदावलियों-शब्दावलियों और लच्छेदार, घुमावदार, पेंचदार, मगजमार बुनावट-बनावट से बाहर आना ही होगा, खुद को छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों और "मॉडर्न-क्रिस्पी-क्रंची-स्ट्रेट इंगलिश" के शब्दों-पदों से लैस करना होगा और दुहराव-तिहरावग्रस्त शब्दों, वाक्यों और विन्यासों से खुद को मुक्त करना होगा!

जहाँ तक राजभाषा हिंदी का सवाल है तो इस मामले में यानी अपने को चुस्त-दुरूस्त, सरल-सहज-पठनीय बनाने में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी सरकारी अंग्रेजी से बहुत आगे निकल गई है और वह बोलचाल की हिंदी के बहुत करीब आ गई है. जो लोग राजभाषा हिंदी पर क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ट और दुरूह होने का लांछन लगाते हैं, उनसे मैं बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि सरलता-सहजता के नाम पर सरकारी कामकाज में हम 'letter' को 'पत्र' की जगह 'पाती' लिखें, 'Correspondence' को 'पत्राचार' की जगह 'चिट्ठी-पतरी' लिखें, 'Dance & Music' को 'नृत्य-संगीत' की जगह 'नाच-गाना' लिखें, 'Dance & Drama' को 'नृत्य एवं नाटक' की जगह 'नाच-नौटंकी' लिखें, 'Order' को 'आदेश' की जगह 'फरमान' लिखें या इसी तर्ज पर सबकुछ तो बोलचाल की हिंदी के नाम पर यह न केवल राजभाषा का मजाक बनाना होगा बल्कि एक सुपरिभाषित कार्यपद्धति और प्रणाली का भी अपमान होगा क्योंकि हरेक 'सिस्टम' का एक 'डेकोरम' होता है और हरेक क्षेत्र-विशेष (यथा, बैंकिंग, प्रशासन, विज्ञान, विधि, अनुसंधान, उड्डयन, प्रौद्यगिकी, चिकित्सा आदि-आदि) में प्रयुक्त होने वाली भाषा की अपनी एक विशिष्ट शब्दावली और पदावली होती है, उसका अपना एक 'डिक्शन' होता है, अपना एक 'लिंग्विस्टिक-रजिस्टर' (विशिष्ट शब्द-चयन एवं लेखन-शैली) होता है. मतलब यह कि आप राजभाषा हिंदी में सोलह आने सहजता-सरलता की अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ भी आदेश, ज्ञापन, निर्णय, नियम, उप-नियम, विनियम, अधिनियम, कानून, विधि, प्रावधान, राजपत्र, परिपत्र, शुद्धिपत्र, प्रतिवेदन, विज्ञप्ति, अनुज्ञप्ति, निविदा, संविदा, समझौते, करार, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ, प्रक्रियाएँ, संहिताएँ, कार्रवाई, सिद्धांत, सूचना, अधिसूचना, प्रतिसूचना, संकल्पनाएँ, विधान-संविधान इत्यादि-इत्यादि होते हैं! ये सब के सब तथ्य और कथ्य में गूढ़-गंभीर ही नहीं, बल्कि तकनीकी और कानूनी निहितार्थों से आदि से अंत तक लैस होते हैं! तो इसकी हिंदी भी न चाहते हुए भी कुछ तो जटिल होगी ही! बावजूद इसके मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि इस तरह के दस्तावेजों को लद्धड़ अंग्रेजी से मुक्त कर दी जाए तो इनके हिंदी पाठ भी समतल-सपाट हो जाएँगे! लेकिन इससे भी सुंदर बात तब होगी जब इन दस्तावेजों को सीधे हिंदी में तैयार की जाए और जैसा हम सोचते हैं, जो हम कहना चाहते हैं, वही जस का तस कहा जाए. तभी राजभाषा नीति का वास्तविक अमलीकरण हो पाएगा.

##(संकलन)

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