इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

शुक्रवार, 31 जनवरी 2020

मोक्ष के मार्ग

शास्त्रों में जीवन के चार उद्देश्य- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष बताए गए हैं।

सांसारिक बंधनों से मुक्ति ही मोक्ष का द्वार खोलती है। न्याय दर्शन के अनुसार दुख का आत्यंतिक मुक्ति या मोक्ष है। उसी प्रकार बौद्ध, जैन और मीमांसकों में भी मोक्ष की चर्चा है। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा के निवर्तन तथा निर्मल ज्ञान की उत्पत्ति ही मोक्ष है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म से उत्पन्न आवरण के नाश से जीव का ऊपर उठना ही मोक्ष है। वहीं मीमांसकों के अनुसार वैदिक कर्म द्वारा स्वर्ग की प्राप्ति ही मोक्ष है। भगवान बुद्ध ने निर्वाण (मोक्ष) प्राप्ति के लिए जीवनपर्यंत साधना की। भगवान महावीर को भी कैवल्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या करनी पड़ी। मोक्ष प्राप्ति के कई साधन हैं। इनमें वाणी, संयम, ब्रह्मचर्य, शास्त्र श्रवण, तप, अध्ययन, एकांतवाद, जप और समाधि मुख्य हैं। भारतीय दर्शन केवल मोक्ष की सैद्धांतिक चर्चा ही नहीं, बल्कि उसके व्यवहारिक उपाय भी बताता है। सभी भारतीय दर्शन बंधन और मोक्ष संबंधी विचार से सहमत हैं। यदि कोई अपवाद है तो वह है- चार्वाक दर्शन जो घोर नास्तिक और भौतिकवादी दर्शन है।
इसी प्रकार कुछ लोग समझते हैं मोक्ष मरने के बाद, शरीर रूपी बंधन के छूटने के बाद ही मिलता है, परंतु यह पूर्णत: सत्य नहीं है। हमें स्मरण रखना चाहिए कि मोक्ष देने वाले ज्ञान का स्वरूप भारतीय दर्शन की विभिन्न विचारधाराओं के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है, किंतु लक्ष्य सदी का एक है और वह है जीव को बंधनों से मुक्त करना।
इस लक्ष्य को अनेक साधनों से निरंतर अभ्यास के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। कर्म करते हुए व्यक्ति को अनेक बंधनों को काटना पड़ता है जिनमें लोभ,मोह व अहम तीनों प्रमुख हैं। वास्तव में इन तीन दुष्टप्रवृत्तियों से मनुष्य जीवन में छुटकारा पा लेना ही मोक्ष है जिसके लिए कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग का रास्ता अनेक दार्शनिक प्रणालियों से अपनाया है। इन तीनों दुष्टप्रवृत्तियों से छुटकारा मनुष्य के जीवन को सार्थक सिद्ध करने में सहायता करता है।

गुरुवार, 30 जनवरी 2020

जीवन आनंद

यदि आस-पास के लोगों के व्यवहार और आचरण को गंभीरता से पढ़ने की कोशिश करें तो यह समझने में देर नहीं लगती है कि हम में से बहुत से लोग ऐसे हैं जो अपना संपूर्ण जीवन बिल्कुल नहीं जीते हैं, बल्कि जीवन के जीने को स्थगित करते रहते हैं। ऐसे लोग प्रायः यह सोचते रहते हैं कि अभी तो जीवन में काफी परेशानियां हैं और जब इन से निजात पा लूंगा तो खूब खिलखिला कर हंस लूंगा और सुकून से जीवन जीऊंगा। अधिकांश तो ऐसा भी सोचते हैं कि अभी तो अमुक कार्य काफी जरूरी है, जब वह कार्य आने वाले कल में संपादित हो जाएगा तो फिर वह खूब मौज-मस्ती करेंगे और जीवन जीने का शिद्दत से आनंद लेंगे। आशय यह है कि ऐसे लोग वर्तमान में जीवन को उसके सच्चे स्वरूप में जीते ही नहीं, बल्कि जीवन जीने को स्थगित करते रहते हैं। 

सच पूछिए तो जीवन जीने को स्थगित करने के बारे में मानव मन की यही घातक प्रवृत्ति उसके दुखों का सबब होती है, क्योंकि हकीकत यही है कि कल कभी नहीं आता है। हर आने वाला कल उस अगले दिन के लिए आज होता है। इस सत्य से इंकार करना कदाचित आसान नहीं होगा कि मानव जीवन क्षणभंगुर और अनिश्चित है। पल में प्रलय होता है और इंसान के सुनियोजित और खूबसूरत सपने पलक झपकते ही टूट कर बिखर जाते हैं। प्रसिद्ध अमरीकी कूटनीतिज्ञ उज्जवल ने कहा था, 'भविष्य उसी व्यक्ति का साथ देता है जो अपने सपनों की खूबसूरती में विश्वास रखता है।' सपने हैं तो जीवन है, जीवन की दिशाएं है, जीवन का उद्देश्य है, जीवन का साध्य है। सपनों से महरूम जीवन की कोई सार्थकता नहीं होती है। वर्तमान में जीना सार्थक जीवन जीने की सबसे खूबसूरत कला है। 

हर सुबह यदि यह मानकर जिएं कि आज जीवन का आखिरी दिन है तो जीवन अपने सबसे सुंदर और सार्थक रूप में ढलता जाता है। जीवन को मुकम्मल तौर पर जीने वाले उम्रदराज लोगों का भी यही मानना है कि जीवन के सभी लम्हे बेशकीमती मोतियों सरीखे होते हैं। इन्हें या तो जीवन जीकर हासिल कर ले या फिर जीवन जीना स्थगित करके व्यर्थ कर दें। इसी निर्णय पर हमारा भविष्य और जीवन के वर्षों से संजोए सपनों का साकार होना निर्भर करता है।

बुधवार, 29 जनवरी 2020

संबंधों का इंद्रजाल

संबंधों का इंद्रजाल

परमात्मा हर जीव को जन्म देता है। उसके पोषण की व्यवस्था करता है और नियत अवधि के बाद उसका जीवन हर लेता है। सृष्टि का सारा चक्र इन तीन बिंदुओं पर ही टिका हुआ है। इस दृष्टि से एक ही शाश्वत संबंध है जो परमात्मा और जीव के मध्य स्थापित होता है। परमात्मा ना चाहे तो जीव का जन्म ही ना हो। जीव के जन्म की जिस शारीरिक क्रिया के बाद की जाती है उसमें भी परमात्मा की इच्छा निहित है। इस इच्छा के लिए परमात्मा से दिन-रात प्रार्थना करने वालों की कमी नहीं है। विडंबना यह है कि जीव जन्म लेते ही उस शाश्वत संबंध को भुला देता है और अपने बनाए संबंधों के जाल में उलझकर रह जाता है। उसे माता -पिता ,भाई -बहन ,पत्नी ,बेटा-बेटी , मित्र आदि ही दिखाई देने लगते हैं। इन संबंधों की औपचारिकता निभाने में इतना समय निकल जाता है कि परमात्मा से संबंध निभाना तो दूर याद करने का समय नहीं बचता। यदि हम अपने मूल संबंध के प्रति निष्ठावान नहीं है तो हम किसी अन्य संबंध को भी निष्ठा से निभाने योग्य नहीं हैं। परमात्मा से संबंध की चिंता ना करने का ही फल है कि आज निकट से निकट संबंध में खोट दिखाई दे रहा है। सारे संबंध स्वार्थों पर टिके हैं जब वे स्वार्थ पूरे नहीं होते तो संबंध पल भर में ध्वस्त हो जाते हैं। बाहर से सामान्य दिखने वाले सारे संबंध मन की गहराइयों में कहीं ना कहीं दरके हुए हैं। जब यह दरके संबंध दबाव नहीं सह पाते तो सामाजिक विघटन दिखने लगता है। जब जड़े सूखने लगे तो पेड़ कितने दिनों तक हरा-भरा रह सकता है। निश्चय ही हम एक भयावह स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं। इसका एक ही समाधान है अपने मूल संबंध की जड़ों को फिर से हरा-भरा करना। परमात्मा ने जीवन दिया। जीवित रहने के लिए सांसे दे रहा है। इससे बड़ा कारण और क्या हो सकता है उसके प्रति आभारी होने का। हर एक सांस के लिए उसका आभारी होना ही परमात्मा से संबंध की निष्ठा का निर्वहन करना है। इसे संसार और जीवन को देखने की दृष्टि बदल जाएगी।

हिन्दी की व्यथा -भानु प्रकाश नारायण

हिन्दी की व्यथा 

 *भानु प्रकाश नारायण
 हिन्दी की समीक्षा बैठक में जैसे ही,
 कुछ बोलने का मन मैंने बनाया, 
तो किसी ने प्यार से समझाया, 
दर्द अपना कुछ इस तरह सुनाया। 
 बोला ,वैसे तीन महीने मे एक बार
 अपने सहकर्मियो के साथ आता है, 
 कुछ करता भी है या
 दिखावे की तिमाही समीक्षा बैठक करता है । 
 प्यार भरे लफ्रजो में उसे समझाया
 हिन्दी का हम सम्मा्न करते हैं, 
अपने अधिकारियों के साथ 
हिन्दी का गुणगान करते हैं।
 हिन्दी में किये गये कार्यों को 
 तत्परता से गिना जाते हैं, 
 आगे भी हिन्दी में कार्य करने की 
 वादों की झडी् लगा जाते हैं।
 साथ ही,
 हिन्दी के सम्मांन में मीठा जलपान करते हैं,
 तभी लगा,
 बनावटी हंसी के साथ हिन्दी मुस्कुराई, 
 बयां करते हुए अपने दर्द की
 पूरी दास्तां यूं सुनाई, 
 तुम्हे केवल एक ही दिन 
मेरे गुणगान के लिए मिलता है। 
बाकी दिनों में तो अंग्रेंजी के अतिरिक्त 
कुछ भी तुझे नहीं दिखता है। 
अब तो अपनी ही धरती पर 
अनजाने में मेहमान हो गई हूं। 
 धीरे-धीरे अपने बच्चों में 
 अल्प ज्ञान हो गई हूं 
 चलते फिरते हर जुबां से
 अनजान सी हो गई हों।
 मैंने अपने मनमस्तिंष्क को झकझोरा, 
अपने ज्ञान की पोटली में टटोला, 
सच ही कहती हो तुम 
हिन्दी सम्बोधन से गायब हो गई हो।
 ज्ञानी लोगों के बीच 
हिन्दी बोलते हम हिचकिचातें हैं, 
 अपनी हिन्दी को पराया कर अंग्रेजी को गले लगाते हैं। **********************

मंगलवार, 28 जनवरी 2020

राजभाषा वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का खजाना Collection of Rajbhasha Objective Questions


आप सभी को मालूम होगा कि नियमानुसार विभागीय पदोन्नति परीक्षा (Departmental Promotion Exams) में कुल अंकों का 10% राजभाषा संबंधी प्रश्न (Rajbhasha Questions) दिया जाना अनिवार्य है। विभागीय पदोन्नति परीक्षा में राजभाषा संबंधी प्रश्न दिया जाना अनिवार्य है, परन्तु इसे हल करना ऐच्छिक है। 

पूर्वोत्तर रेलवे के महाप्रबंधक महोदय के आदेशानुसार पूर्वोत्तर रेलवे के राजभाषा विभाग द्वारा राजभाषा नीति (Rajbhasha Policy), संवैधानिक व्यवस्थाओं (Constitutional Provisions), नियम-अधिनियम (Rules-Act), प्रोत्साहन - पुरस्कार योजनाओं (Incentives-Reward Schemes) आदि से संबंधित 160 वस्तुनिष्ठ प्रश्नों (Objective Questions) का एक संग्रह तैयार किया है। निश्चित रूप से ये संग्रह सभी सरकारी कार्मिकों एवं अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभ्यर्थियों के लिए लाभप्रद सिद्ध होगा।

कृपया इस पुस्तक पर क्लिक करें और इसे डाउनलोड करें। यह संग्रह आपको कैसा लगा? अपना फीडबैक अवश्य दीजिएगा।

रविवार, 26 जनवरी 2020

अमर रहे गणतंत्र हमारा

अमर रहे गणतंत्र हमारा गणतंत्र दिवस हमारा राष्ट्रीय पर्व है इस पर्व को सभी धर्मों के लोग साथ मिलकर मनाते हैं। यह पर्व किसी धर्म, जाति या समुदाय से जुड़ा नहीं है। हर साल 26 जनवरी को इस पर्व को मनाया जाता है। भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ था इसलिए इस पर्व को हर साल 26 जनवरी के दिन ही मनाते हैं। इस पर्व को राजधानी दिल्ली में राजपथ पर खासतौर से मनाया जाता है जिसमें देश के गणमान्य व्यक्ति जैसे, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रिमंडल के सदस्य भाग लेते हैं। राजपथ पर राज्यों की झांकियों के अलावा भारत की सैन्य ताकत का प्रदर्शन की झलक भी दिखाई जाती है। राजपथ पर होने वाली परेड और झांकी के दौरान हर साल एक विदेशी मेहमान भारत का खास अतिथि होता है। पहले गणतंत्र दिवस पर इंडोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णों थे। इस बार 71 वें गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अतिथि ब्राजील के राष्ट्रपति बोलसोनारो हैं।गणतंत्र दिवस का आयोजन राजपथ पर पहली बार 1955 में किया गया था। गणतंत्र दिवस भारत के दो अन्य प्रमुख राष्ट्रीय पर्वों स्वंतत्रता दिवस और गांधी जयंती में शामिल है। यूं तो भारत 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया था लेकिन इसे पूर्ण रूप से आजादी 26 जनवरी 1950 को मिली जब भारत का संविधान लागू किया गया।

मंगलवार, 21 जनवरी 2020

दोषपूर्ण उपलब्धियां

दोषपूर्ण उपलब्धियां

जीवन में सफलता, उच्च स्तरीय रहन-सहन, प्रचुर धन-दौलत की इच्छा अधिकांश लोगों की होती है। ऐसे लोग चाहते हैं कि उनका समाज में खुब दबदबा रहे, उनकी जयजयकार होती रहे, उनके पास सर्वाधिक भौतिक संसाधन हो। इस तरह की इच्छा का होना कोई खराब तो नहीं, लेकिन इसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। प्रायः देखने में आता है कि अधिकांश लोग इसी मामले में विफल हो जाते हैं। वे इस तरह की सारी उपलब्धियां रातों-रात प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे लोग इस भाव के चलते परिश्रम, धैर्य की जगह उतावले होकर नकारात्मक रास्ता अपनाने लगते हैं और छल, धोखा, अनैतिक ढंग से कुछ हासिल कर तो लेते हैं, लेकिन धीरे-धीरे उनमें एक अज्ञात भय भी समाने लगता है। वैसे भी कहा गया है कि किसी भी उपलब्धि के लिए ठोस आधार उसी प्रकार होना जरूरी है जिस प्रकार किसी भवन या महल के लिए मजबूत आधार की जरूरत होती है। जीवन में विभिन्न प्रकार की उपलब्धियों के लिए धर्म का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। दूसरों का हिस्सा हड़प कर प्राप्त उपलब्धि दोषपूर्ण है। इससे परिवार से लोग लेकर समाज तक में कटुता और वैमनस्य का वातावरण बनता है। कोई भी सांसारिक सुख प्राप्त करने के पहले खुद बात करनी चाहिए। जो ऐसा नहीं करता है, उसे दुख और कष्ट मिलता है। इसी के लिए क्या कहा गया है कि 'बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय'। स्थिति यह है कि हर कोई एक-दूसरे का विश्लेषण तो कर रहा है पर खुद आत्म- विश्लेषण पर उसका ध्यान नहीं जा रहा है। यदि कोई व्यक्ति है तो उस व्यक्ति का घर साफ हो जाएगा, अपने घर में गंदगी बनी रहेगी। जबकि हर व्यक्ति को अपना घर साफ करना चाहिए। यही बात आचरण के लिए भी जरूरी है। इस बात की चिंता छोड़कर ही कि कौन कैसा है, वह अपने आचरण को बनाए तो उसकी उत्तम होगी। एक ना एक दिन उसकी ख्याति अवश्य बढ़ेगी।

सोमवार, 20 जनवरी 2020

48 वीं महिला राष्ट्रीय हैंडबॉल प्रतियोगिता 2019



48वीं महिला राष्ट्रीय हैंडबॉल प्रतियोगिता 2019 

       भारतीय रेल खेल प्रमोशन बोर्ड के द्वारा इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम नई दिल्‍ली में दिनांक 22.12.2019 से 27.12.2019 तक आयोजित 48वीं राष्ट्रीय महिला हैंडबॉल चैंपियनशिप में भारतीय रेलवे महिला टीम ने लगातार तीसरी बार खिताब जीता। इस महिला टीम में पूर्वोत्‍तर रेलवे,गोरखपुर के परिचालन विभाग की नवोदित खिलाडी सुश्री ज्‍योति  ने दो गोल कर शानदार योगदान दिया।
       खिताब के लिए हुए संघर्षपूर्ण मैच में रेलवे की टीम ने हिमाचल प्रदेश की टीम को 35-31 से पराजित किया।
रेलवे की टीम से मेनिका ने 12, सुषमा ने 6, बबीता ने 8, ज्योति ने 2, सन्थिया ने 2 गोल किए ।
    विजेता टीम को रेल मंत्री श्री पियूष गोयल ने स्‍वर्ण पदक तथा प्रशस्ति पत्र से सम्‍मानित किया। 







  

हाथियों का बचाव -प्लान बी

हाथी ना हों रेल हादसों के शिकार,
 रेलवे ने चलाया 'Plan Be
हाथियों के ट्रेन से टकराने के हादसे कई बार होते हैं. जिनसे हाथियों को काफी चोट पहुंचती है. ऐसे में भारतीय रेलवे की ओर से नए प्लान पर काम किया जा रहा है, जिससे हाथियों को पहुंच रहे नुकसान में कमी आ सकती है.
देश के कई हिस्से ऐसे हैं जहां पर रेलवे जंगल के क्षेत्रों से होकर गुजरती है. कई बार ऐसे हादसे भी हुए हैं जिनमें पटरियों को पार करते हुए हाथी या अन्य कई जानवर ट्रेन से टकरा जाते हैं. बीते समय में भी ये हादसे हुए हैं और हाथियों को अपनी जान गंवानी पड़ी है.लेकिन इन घटनाओं को रोकने के लिए भारतीय रेलवे ने नई पहल की शुरुआत की है.
रेलमंत्री पीयूष गोयल ने 07 सितंबर 2018 को अपने ट्विटर अकाउंट पर एक वीडियो साझा करते हुए इस बात की जानकारी दी. रेलमंत्री ने लिखा, ''रेलवे ने हाथियों को ट्रेन हादसों से बचाने के लिए "Plan Bee" के तहत रेलवे-क्रासिंग पर ऐसे ध्वनि यंत्र लगाए हैं जिनसे निकलने वाली मधुमक्खियों की आवाज से हाथी रेल पटरियों से दूर रहते हैं और ट्रेन हादसों की चपेट में आने से बचते हैं.''
वीडियो में बताया गया है कि अभी PLAN BEE का इस्तेमाल असम के गुवाहाटी के पास किया गया है. गुवाहाटी के पास रेलवे ट्रैकों के पास एक ऐसी डिवाइस लगाई गई है, जिसमें से मधुमक्खी के झुंड की आवाज़ आती है. ऐसे कुछ स्पीकर लगाए गए हैं, जिनसे 600 मीटर की दूरी तक ये आवाज़ जाती है. इनकी कीमत मात्र 2000 रुपए है.
.##.क्यों कारगर साबित हुई ये तकनीक?
वीडियो में दावा किया गया है कि हाथियों को मधुमक्खियों की ऐसी आवाज़ से चिढ़ होती है और वह इससे दूर भागते हैं. यही कारण है कि जब ट्रेन आस-पास होती है तो इस सायरन को बजा दिया जाता है और हाथी पटरी से दूर रहते हैं.

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

मनोवृति

मनोवृति

दया, क्षमा,परोपकार और दान - ये हमारी सहज मनोवृत्तियां हैं। सहज वह है जिसे समझने अथवा प्राप्त करने के लिए किसी विशेष प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती। उल्लेखनीय है कि प्रभु ने हमारे शरीर के अंगों और मन की संरचना इस प्रकार से की है कि यदि वे सहज अथवा आसानी से प्राप्त चीजों पर ध्यान लगाएँ इससे तो उनमें श्रेय अथवा शरण की प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी उत्तरजीविता बढ़ जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि हम दया, क्षमा , परोपकार और दान जैसी सात्विक, सहज प्रवृत्तियों को अंगीकार करते हैं तो हमारे दीर्घजीवी होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में हम अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का बेहतर तरीके से निर्वहन करेंगे। यह सचमुच बड़ी आनंददायक स्थिति है। यह सही है कि वर्तमान भौतिकवादी संसार में अधिसंख्य लोग केवल पाना चाहते हैं। पाने अथवा लेने वालों की पंक्ति बड़ी लंबी है, जबकि देने वालों की पंक्ति खाली-खाली सी, लेकिन जो थोड़े लोग इस देने वाले पंक्ति में शामिल हैं, उनसे जाकर पूछिए, उनका आनंद। येन-केन प्रकारेण पाने की होड़ में कई बार असफलता हाथ लगती है। यह सफलता तनाव का कारण बनती है और फिर तनाव व्याधियों का कारण बनती है। व्याधियों से घिरा शरीर परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होता जाता है और अंत में अनुपयोगता कि इस पीड़ा को लिए व्याधियुक्त शरीर अल्पायु में ही काल कवलित हो जाता है। हम ना भूलें कि दुनिया जिसे आज सफलता मान रही है, वह अधिक-से-अधिक भौतिक है। काल विशेष से आबद्ध है। कई मामलों में तो यह क्षणिक भी होती है। इसके साथ असफलता का भय भी बराबर बना रहता है, जबकि संतुष्टि, जो हमारी उक्त  सहज मनोवृत्तियों का परिणाम है, हमारे अंतर्मन का द्वार खोलती है। इसमें असफलता का भय नहीं होता, यह क्षणिक नहीं है, भौतिक नहीं है। यह पराभौतिक है, सतत है, चिदानंद की अवस्था है। दीर्घजीविता का सूत्र है।

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

संयम का महत्व

संयम का महत्व

संयम व गुण है जिससे व्यक्ति सफलता के शीर्ष को स्पर्श कर सकता है। यह गुण हमारे आत्मिक शक्ति को सफलता प्रदान करता है। यह चरित्त्रिक परिष्कार का कारक है। संयमी व्यक्ति के भीतर अथाह सामर्थ्य का भंडार संग्रहित होता है। संयम का पोषण सद्विचारों एवं सत्संगति से ही संभव है। अच्छे परिवेश , भद्रजनों के सामीप्य से संयम प्राणवान होता है। संयम का गुण इस नश्वर शरीर को अमरता प्रदान करता है,क्योंकि संयम व्यक्ति को सद्कार्यों के लिए उद्वेलित करता है। यह नकारात्मकता को पास नहीं फटकने देता। संयम एवं नकारात्मक विचारों का आपस में बैर है। महात्मा गांधी ने संयम पर अपने विचार रखते हुए कहा था 'जब साहस के साथ संयम और शिष्टाचार जुड़ जाता है,तो वह व्यक्ति अनूठा हो जाता है।' अर्थात व्यक्तित्व में अनूठे पन के लिए संयम का होना अति आवश्यक है। व्यक्ति में मौलिक विशेषता उसके संयम से पोषित होती रहती है। पश्चिमी विचारक रूसो से जब स्वयं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने नियम के बारे में बताया कि 'संयम मनुष्य के जीवन में नई रोशनी उत्पन्न कर देता है।' स्पष्ट है कि संयम में वह शक्ति है जो व्यक्ति के जीवन को प्रकाशमान बना सके। वाणी का संयम व्यक्ति को प्रखर बना देता है। वाणी संयम एक तरह से वाक् सिद्धि है। जिसने अपनी वाणी को संयमित कर लिया वह व्यक्ति अद्वितीय हो जाता है। लोग उसकी ओर आकृष्ट होने लगते हैं । वही इंद्रिय संयम व्यक्ति के प्रकृति को अजय बना देता है । जितेंद्रिय व्यक्ति स्वतः संस्कारों की खान में प्रवर्तित हो जाता है। ऐसे व्यक्तित्व सदैव अनुकरणीय एवं प्रेरणादाई होते हैं। संयमी जीवनचर्या एक आदर्श जीवनचर्या है । नवयुग का निर्माण संयमी युवा शक्ति के सहयोग से संभव है । किसी भी राष्ट्र की युवा पीढ़ी यदि संयमी है तो निश्चित ही उसका सामाजिक परिवेश पावन होगा और वह राष्ट्र प्रगति के मार्ग पर अग्रसर रहेगा। 

सुख- दुख

सुख- दुख


सुख और दुख दोनों ही मनुष्य के अपने कर्मों के फल होते हैं। सुख के लिए वह भरपूर प्रयास करता है और दुख जाने- अनजाने किए पापों के कारण उसके सिर का बोझ बनते जाते हैं। अपने सुख का आनंद वही जान पाता है जिसने सुख प्राप्त किया है। अपने कर्मों का सुख भोगना उसका अधिकार है। यदि वह सुख अन्य के साथ बैठता है तब भी अपने सुख पर उसका अधिकार वैसा ही अक्षुण्ण रहता है। इसी तरह दुख जिस सघनता से आया है वैसा ही रहेगा चाहें जितने लोगों से चर्चा कर ली जाए। सुख का बढ़ जाना और दुख का कम हो जाना मात्र एक भ्रम है। यह अवश्य होता है कि जब मनुष्य अपने सुख की अभिव्यक्ति करता है तो उसका हम संतुष्ट होता है। उसे अन्य की अपेक्षा ऊपर उठते होने की अनुभूति होती है। दुख में प्राप्त होने वाली संवेदनाएं भी एक तरह से उसके अहम को संबल देने का कार्य करती हैं जिससे अपने पाप कर्मों, अवगुणों का पश्चाताप कम होता लगता है। दुःख और सुख वास्तव में अंतर की अवस्था है। इन्हें अंतर तल पर ही भोगना श्रेयस्कर होता है। सुख की अनुभूति को यदि पूर्ण रूप से अंतर्गत ग्राम किया जाए तो सत्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है। दुःख की सघनता को यदि पूर्णता में आत्मसात किया जाए तो पश्चाताप पूर्ण होता है और मन सचेत होता है। सुख और दुख दोनों ईश्वर ने दिए हैं। यह मनुष्य और ईश्वर के मध्य का आदान-प्रदान है। इसे सार्वजनिक करना ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करना है। यह भी समझना होगा कि आपका सुख ना कोई अन्य भोग सकता है ना कोई आपके हिस्से का दुख सहन कर सकता है। आज जीवन में अंतरग कुछ नहीं नहीं गया है। मन की भावनाएं जिन्हें मन की शक्ति बननी चाहिए अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती जा रही हैं। इसे  खुलेपन का नाम दे दिया गया है। इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। लोग टूट रहे हैं। हताश, निराश हो रहे हैं। इससे बचना है तो मन की भावनाओं को आत्मसात करना आना चाहिए। भावनाओं को किस से और किस स्तर पर बैठना है यह विवेक होना चाहिए।

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

चिरंतन सत्य मृत्यु

 चिरंतन सत्य मृत्यु

मृत्यु शब्द का नाम सुनते ही प्रत्येक प्राणी भयभीत हो जाता है. शरीर की  
आंतरिक  एवं व्हाय  क्रियाओं का रुक जाना ही मृत्यु है.शास्त्रीय भाषा में 
ऐसा भी कहा जाता है, कि जब जीवात्मा के इस शरीर के साथ  भोग समाप्त 
हो जाते हैं तो वह इस भौतिक शरीर को त्याग देता है,  जिसे मृत्यु कहा जाता है. 
 मृत्यु इस सृष्टि का नियम है.  सृष्टि का क्रम जन्म मरण की धुरी  पर घूम रहा है. 
मृत्यु की चलती चक्की में   अन्न के दाने की तरह हमें आज नहीं तो कल पिस कर
  ही रहना है. 
 इस शाश्वत सत्य को न तो  झूठलाया जा सकता है कि हमें परम प्रिय लगने 
वाले आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महा शून्य में विलीन होकर रहेगा  ही.  
हमारे  दार्शनिक  ग्रंथों का भी यही कहना है की, मृत्यु अनिवार्य घटना है.
 परंतु मृत्यु की वास्तविकता इतनी भयानक नहीं है, जितनी कल्पनाओं ने 
कर ली है. इस अनंत जीवन की प्रवाह में मरण को सुखद विश्राम माना
 जाता है. मृत्यु से जीवन का पूर्ण रूप से  अंत नहीं होता, बल्कि एक 
नए जीवन का आगाज भी होता है.  हमारे ऋषि यों का भी यही चिंतन 
था कि रात्रि में जिस तरह से  शयन किया जाता है और दूसरे दिन सुबह 
 जाग कर  नया कार्यक्रम बनाया जाता है ,उसी प्रकार मरण का विश्राम 
लेकर हर बार नए जीवन में नए दिवस का आरंभ होता है. जीवन और 
मृत्यु अनवरत रूप से चलने वाली ईश्वरी व्यवस्था है. 

 अगर मृत्यु ना होती तो जीवन के महत्व का आभास हमें ना हो पाता. 
मृत्यु मनुष्य को सजग एवं विवेकी बनने की प्रेरणा देती है . 
परंतु सांसारिक भोग हमें मृत्यु के वास्तविक अर्थ को समझने 
में बाधा उत्पन्न करता है . हमारी आध्यात्मिक विरासत में 
यही शिक्षा दी जाती है कि जिस प्रकार मनुष्य उज्जवल 
जीवन के लिए प्रतिदिन प्रयत्नशील रहता है ,उसे अपनी 
मृत्यु के क्षण को भी कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न करना 
चाहिए. मृत्यु  एक चेतावनी है जो मनुष्य को भोग विलास 
 के  पाप के पथ पर बढ़ने से रोकती है . जो व्यक्ति इस

 चेतावनी को आत्मसात कर लेता है वही वैराग्य के पथ पर बढ़ने लगता है. 

बुधवार, 8 जनवरी 2020

गुरु शिष्य परंपरा cftm ner

गुरु शिष्य परंपरा 
 सदियों से भारत भूमि पर गुरु शिष्य का स्नेहिल संबंध रहा है. 
सनातन परंपरा में गुरु अपनी दयालुता, सद्भावना, और आत्मीयता
के विलक्षण स्वरूप से हर एक मानव मन में चरित्र निर्माण ,आपसी प्रेम
और भाईचारे का बीज बोता रहता है.   सशरीर होते हुए भी गुरु तत्व है.
संसार सबसे पवित्र ईश्वरीय देन है. वह मनुष्य के जन्म जन्मांतर के
अंध तमस को दूर कर, उसे दिव्य प्रकाश देता है. गुरु के बिना मनुष्य का
जीवन बिना पतवार की नौका जैसा है.  गुरु के बिना ज्ञान मिलना कठिन है.
गुरु के बिना मोक्ष नहीं मिलता . गुरु के बिना सत्य को पहचानना कठिन है.
गुरु बिना मन के विकारों का मिटना मुश्किल है. अलौकिक जगत में महा पथ
का पथिक गुरु धार्मिकता का प्रथम पुरुष होता है,  जो अपने दिव्य ज्ञान से
शिष्य के अंतः करण के तारों को झंकृत कर देता है. मनुष्य को जीवन जीने
की कला सिखाता है , गुरु शिष्य की उलझी हुई समस्या का समाधान करता है.
महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया ही नहीं दिया बल्कि हर
समय उन्हें उचित निर्देश दिया , जब वे दिग्भ्रमित नजर आए . गुरु के
श्री मुख से निकला हर एक शब्द ब्रह्म वाक्य होता है.  जो सत्य की गहराई
से निकलता है. अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है .
शास्त्रों में गुरु को ईश्वर के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है, क्योंकि
वह शिष्य को नया जन्म देते हैं, गुरु- विष्णु भी हैं हैं क्योंकि वह मनुष्य की रक्षा करते. 

 गुरु साक्षात महेश्वर भी हैं ,क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संघार  भी करते हैं.
उपनिषदों में कहा गया है कि गुरु के प्राण शिष्यों में और शिष्यों के प्राण
गुरु में बसते हैं.  गुरु मानव चेतना के विकास के हर एक पहलू को जागृत करता है.
शिष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है. एक समबुध गुरु को  यदि एक
चेतना वान शिष्य मिल जाए तो वह अपने परम संबोधी के विस्फोट से
नए युग का निर्माण कर सकता है. उसके जीवन में नई संगीत भर सकता है.
आज के समय में एक बार पुनः गुरु शिष्य परंपरा श्रृंखला को कायम होने
की बड़ी आवश्यकता है.  यदि सही गुरु मिल जाए तो जीवन की दिशा
सुधारी जा सकती है .

मंगलवार, 7 जनवरी 2020

संघर्ष By Bijay Kumar

संघर्ष
    हमारे जीवन में कुछ भी सरल नहीं है.   हर व्यक्ति को अपनी मंजिल को पाने
के लिए संघर्ष का सहारा लेना पड़ता है,  हालांकि जब जीवन में बुनियादी समस्याएं हो,
तो संघर्ष करने की इच्छा शक्ति को बनाए रखना थोड़ा कठिन होता है.
क्योंकि ऐसे में लक्ष्य के साथ बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति के
लिए भी संघर्ष करना पड़ता है.   इस तरह से जीवन का संघर्ष दोगुना हो जाता है.
ऐसे में यदि व्यक्ति के
अंदर आंतरिक बल है, पर्याप्त शारीरिक और मानसिक क्षमता है, तो दोगुनी
संघर्ष में भी कोई दिक्कत नहीं आती.
इसके लिए सिर्फ जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण  चाहत और लक्ष्य को
पाने की मन में ललक होनी चाहिए.
संघर्ष करने की लगन ही व्यक्ति की लक्ष्य की ओर गति को थमने नहीं देती है,
आशा की किरण को टूटने नहीं देती है,
बल्कि उत्साह, उमंग को निरंतर बढ़ाती है. यही कारण है कि आज देश में
अभाव के  अंधेरों के बीच भी
सफलता की रोशन राहैं निकल रही है. 
 संतो के बीच जीवन जीकर मुकाम बनाना ही सब कुछ नहीं है,  बल्कि
अभावों के बीच जीवन जीना
भी जरूरी है . तभी जीवन के सही मर्म का पता चलता है. अगर जीवन में
संघर्ष ना हो, तो मनुष्य के
व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता है. बिना कड़ी मेहनत के जो
सफलता पाई जाती है,
वह महत्वहीन होती है. परिस्थितियों से जूझते हुए ,कठिनाइयों से लड़ते हुए
यदि, हिम्मत न हारी जाए तो
सफलता रूपी मंजिल जरूर मिलती है. चुनौतियों से लड़ते हुए, संघर्ष करते
हुए व्यक्ति की जीवात्मा के
ऊपर छाया हुआ अंधेरा mitata है और जीवन प्रकाशमान हो उठता है.
संघर्ष हमारे जीवन का सबसे बड़ा वरदान है यह में सहनशील और
संवेदनशील बनाता है
और साथ ही हमें यही सिखाता है कि भले ही यह संसार दुखों से भरा हुआ है,
लेकिन उन दुखों
पर काबू पाने के तरीके भी अनेको हैं . इसी प्रकार जॉन ढीले में के अनुसार
संघर्ष की
चाबी जीवन के सभी बंद दरवाजे खोल देती है और आगे बढ़ाने के लिए नए
रास्ते भी प्रशस्त करती है.
इस तरह संघर्ष की तपन मनुष्य के जीवन को चमकती है. सफलता की इमारत
संघर्ष की नींव पर ही खड़ी होती है.

गुरुता (Gurutatva) by Bijay Kumar


Bijay Kumar IRTS (NE Railway Gorakhpur)

गुरु शिष्य परंपरा 
 सदियों से भारत भूमि पर गुरु शिष्य का स्नेहिल संबंध रहा है.  सनातन  परंपरा  में  गुरु  अपनी दयालुता, सद्भावना, और आत्मीयता के विलक्षण स्वरूप से हर एक मानव मन में चरित्र निर्माण ,आपसी प्रेम और भाईचारे का बीज बोता रहता है.   सशरीर होते हुए भी गुरु तत्व है.  संसार सबसे  पवित्र ईश्वरीय देन है.   वह मनुष्य के जन्म जन्मांतर के अंध तमस को दूर कर,  उसे दिव्य प्रकाश देता है.  गुरु के बिना मनुष्य का जीवन बिना पतवार की नौका जैसा है.  गुरु के बिना ज्ञान मिलना कठिन है.  गुरु के बिना मोक्ष नहीं मिलता . गुरु के बिना सत्य को पहचानना कठिन है.  गुरु बिना मन के विकारों का मिटना मुश्किल है.  अलौकिक जगत में महा पथ का पथिक गुरु धार्मिकता का प्रथम पुरुष होता हैजो अपने दिव्य ज्ञान से शिष्य के अंतः करण के तारों को झंकृत कर देता है.   मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है , गुरु शिष्य की उलझी हुई समस्या का समाधान करता है.  महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया  ही नहीं दिया बल्कि हर समय उन्हें उचित निर्देश दिया , जब वे दिग्भ्रमित नजर आए . गुरु के श्री मुख से निकला हर एक शब्द ब्रह्म वाक्य होता है.  जो सत्य की गहराई से निकलता है.  अपनी  महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है . शास्त्रों में  गुरु को ईश्वर के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है, क्योंकि वह शिष्य को नया जन्म देते हैं,  गुरु- विष्णु भी हैं  हैं क्योंकि वह मनुष्य की रक्षा करते. 
 गुरु साक्षात महेश्वर भी हैं ,क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संघार  भी करते हैं.  उपनिषदों में कहा गया है कि गुरु के प्राण शिष्यों में और शिष्यों के प्राण गुरु में बसते हैं.  गुरु मानव चेतना के विकास के हर एक पहलू को जागृत करता है.  शिष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है.  एक समबुध गुरु को  यदि एक  चेतना वान   शिष्य  मिल जाए  तो वह अपने परम संबोधी के विस्फोट से नए युग का निर्माण कर सकता है.  उसके जीवन में नई संगीत भर सकता है. आज के समय में एक बार पुनः गुरु शिष्य परंपरा श्रृंखला को कायम होने की बड़ी आवश्यकता है.  यदि  सही गुरु मिल जाए तो जीवन की दिशा सुधारी जा सकती है .
गुरुता 
 गुरु का वास्तविक अर्थ तो यही ध्वनित होता है कि जो जीवन में गुरुता यानी   
वजन शक्ति बढ़ाएं. यह  भौतिक पदार्थों से नहीं बल्कि  सत  शास्त्रों के निरंतर अध्ययन
 और चिंतन मनन से ही संभव है.  बाहरी गुरु से धोखा हो सकता है, लेकिन सत साहित्य
 से निरंतर व्यक्ति वजनदार होता जाता है.  सच तो यह है कि हर मनुष्य गोविंद बनकर ही 
जन्म लेता है .यही कारण है कि ईश्वर के  पाने जैसा सुख, जन्म देते ही मां को मिलता है. 
  कबीरदास कहते हैं कि भगवान और गुरु दोनों मिले तो, गुरु  के चरणों में समर्पित हो
 जाना चाहिए. 
 जिस गुरु की  ओर कबीर का संकेत है, उस गुरु के दो चरण है, पहला चरण बुद्धि और
 दूसरा चरण विवेक है .  जिसने भी गुरु के इन चरणों को मजबूती से पकड़ लिया
उसका गुरु और गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता है.  धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष उसी की ओर खिंचे चले 
आते हैं. इस गुरु को व्हाय जगत में तलाशने के बजाय अंतरजगत में ही तलाशना पड़ेगा .
 इस  गुरु  को पाने के लिए मां के गर्भ में 9 माह पोषित होते समय - स्नेह, प्रेम ,करुणा, दया,
 आत्मीयता एवं आनंद की जो अनुभूति हुई ,उसी को जीवन में विकसित करने की जरूरत है. यह सारे गुण व्यक्ति के गुरुत्व को बढ़ाते हैं . कहा भी गया है कि गुरु वही जो अपने शिष्य से हार जाए.  अंतर जगत का यह  गुरु  सच में हर पल हारता है. एक- एक उपलब्धि, रिद्धि-सिद्धि समृद्धि देने के बावजूद उसे लगता है कि कुछ और देना बाकी है. 
 कठिनाई यही है कि इसे पाने का स्थान कहीं है, और तलाश कहीं और हो रही है.  
मुट्ठी बांधकर जन्म लेते समय बच्चा इसीलिए रोता है, कि मां के गर्भ में जो अनमोल रत्न 
मिला ,उसे वह मुट्ठी में बांधकर संसार में आया, यहां उसकी जरूरत ही नहीं  है. अंत सब कुछ गवा के खाली हाथ ही लौटना पड़ता है.  इसीलिए गुरु के सर्वश्रेष्ठ मंत्र वाक्य
 “शीश कटाए गुरु मिले तो भी सस्ता जानशत प्रतिशत सही है.यह शीश  अहंकार का , जिससे  मान-सम्मानचर्चा, ख्याति  के लिए  नकारात्मक कार्य करने पड़ते हैं.  और ना जाने कितनी ऊर्जा व्व्यर्थ में गवा देनी पड़ती  देनी पड़ती है.  अंधकार में प्रकाश फैलाने वाला पूर्णिमा का चंद्रमा यह कह रहा है कि  आकाश की ऊंचाई और व्यापकता चाहिए तो इन गुणों को आत्मसात करना चाहिए. 

गुरु का महत्व
गुरु के महत्व पर संत शिरोमणि तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है
गुर बिनु भवनिधि तरइ कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है। संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या हैअविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में भी गुरू  की आवश्यकता होती है।
सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त  क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है। इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।
किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन  को यही संदेश दिया था
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।। (गीता 18/66)
अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। हमारे बैकुंठवासी श्रीमज्जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य जी महाराज में परम गुरु के सभी  गुण मौजूद थे और वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु रामानुचार्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य जी महाराज में भी वे सभी गुण प्रत्यत्क्ष दिखाई देते हैं।
Jai Guru dev