Bijay Kumar IRTS (NE Railway Gorakhpur)
गुरु शिष्य परंपरा
सदियों से भारत भूमि पर गुरु शिष्य का स्नेहिल संबंध रहा है. सनातन परंपरा में गुरु अपनी दयालुता, सद्भावना, और आत्मीयता के विलक्षण स्वरूप से हर एक मानव मन में चरित्र निर्माण ,आपसी प्रेम और भाईचारे का बीज बोता रहता है. सशरीर होते हुए भी गुरु तत्व है. संसार सबसे पवित्र ईश्वरीय देन है. वह मनुष्य के जन्म जन्मांतर के अंध तमस को दूर कर, उसे दिव्य प्रकाश देता है. गुरु के बिना मनुष्य का जीवन बिना पतवार की नौका जैसा है. गुरु के बिना ज्ञान मिलना कठिन है. गुरु के बिना मोक्ष नहीं मिलता . गुरु के बिना सत्य को पहचानना कठिन है. गुरु बिना मन के विकारों का मिटना मुश्किल है. अलौकिक जगत में महा पथ का पथिक गुरु धार्मिकता का प्रथम पुरुष होता है, जो अपने दिव्य ज्ञान से शिष्य के अंतः करण के तारों को झंकृत कर देता है. मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है , गुरु शिष्य की उलझी हुई समस्या का समाधान करता है. महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया ही नहीं दिया बल्कि हर समय उन्हें उचित निर्देश दिया , जब वे दिग्भ्रमित नजर आए . गुरु के श्री मुख से निकला हर एक शब्द ब्रह्म वाक्य होता है. जो सत्य की गहराई से निकलता है. अपनी महत्ता के कारण गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा पद दिया गया है . शास्त्रों में गुरु को ईश्वर के विभिन्न रूपों में स्वीकार किया गया है, क्योंकि वह शिष्य को नया जन्म देते हैं, गुरु- विष्णु भी हैं हैं क्योंकि वह मनुष्य की रक्षा करते.
गुरु साक्षात महेश्वर भी हैं ,क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संघार भी करते हैं. उपनिषदों में कहा गया है कि गुरु के प्राण शिष्यों में और शिष्यों के प्राण गुरु में बसते हैं. गुरु मानव चेतना के विकास के हर एक पहलू को जागृत करता है. शिष्य को जीवन जीने की कला सिखाता है. एक समबुध गुरु को यदि एक चेतना वान शिष्य मिल जाए तो वह अपने परम संबोधी के विस्फोट से नए युग का निर्माण कर सकता है. उसके जीवन में नई संगीत भर सकता है. आज के समय में एक बार पुनः गुरु शिष्य परंपरा श्रृंखला को कायम होने की बड़ी आवश्यकता है. यदि सही गुरु मिल जाए तो जीवन की दिशा सुधारी जा सकती है .
गुरुता
गुरु का वास्तविक अर्थ तो यही ध्वनित होता है कि जो जीवन में गुरुता यानी
वजन शक्ति बढ़ाएं. यह भौतिक पदार्थों से नहीं बल्कि सत शास्त्रों के निरंतर अध्ययन
और चिंतन मनन से ही संभव है. बाहरी गुरु से धोखा हो सकता है, लेकिन सत साहित्य
से निरंतर व्यक्ति वजनदार होता जाता है. सच तो यह है कि हर मनुष्य गोविंद बनकर ही
जन्म लेता है .यही कारण है कि ईश्वर के पाने जैसा सुख, जन्म देते ही मां को मिलता है.
कबीरदास कहते हैं कि भगवान और गुरु दोनों मिले तो, गुरु के चरणों में समर्पित हो
जाना चाहिए.
जिस गुरु की ओर कबीर का संकेत है, उस गुरु के दो चरण है, पहला चरण बुद्धि और
दूसरा चरण विवेक है . जिसने भी गुरु के इन चरणों को मजबूती से पकड़ लिया,
उसका गुरु और
गुरुत्वाकर्षण
बढ़ जाता है. धर्म ,अर्थ ,काम, मोक्ष
उसी
की
ओर
खिंचे
चले
आते
हैं.
इस
गुरु
को
व्हाय
जगत
में
तलाशने
के
बजाय
अंतरजगत
में
ही
तलाशना
पड़ेगा
.
इस गुरु को पाने
के
लिए
मां
के
गर्भ
में
9 माह
पोषित
होते
समय
- स्नेह, प्रेम ,करुणा, दया,
आत्मीयता एवं
आनंद
की
जो
अनुभूति
हुई
,उसी
को
जीवन
में
विकसित
करने
की
जरूरत
है. यह सारे
गुण
व्यक्ति
के
गुरुत्व
को
बढ़ाते
हैं
. कहा
भी
गया
है
कि
गुरु
वही
जो
अपने
शिष्य से हार
जाए. अंतर जगत
का
यह गुरु सच में
हर
पल
हारता
है.
एक-
एक
उपलब्धि, रिद्धि-सिद्धि समृद्धि देने
के
बावजूद
उसे
लगता
है
कि
कुछ
और
देना
बाकी
है.
कठिनाई यही
है
कि
इसे
पाने
का
स्थान
कहीं
है, और तलाश
कहीं
और
हो
रही
है.
मुट्ठी
बांधकर
जन्म
लेते
समय
बच्चा
इसीलिए
रोता
है, कि मां
के
गर्भ
में
जो
अनमोल
रत्न
मिला
,उसे
वह
मुट्ठी
में
बांधकर
संसार
में
आया, यहां उसकी
जरूरत
ही
नहीं है. अंत सब
कुछ
गवा
के
खाली
हाथ
ही
लौटना
पड़ता
है. इसीलिए गुरु
के
सर्वश्रेष्ठ
मंत्र
वाक्य
“शीश कटाए
गुरु
मिले
तो
भी
सस्ता
जान” शत प्रतिशत
सही
है.यह
शीश अहंकार का
ह , जिससे मान-सम्मान, चर्चा, ख्याति के लिए नकारात्मक
कार्य
करने
पड़ते
हैं. और ना
जाने
कितनी
ऊर्जा
व्व्यर्थ
में
गवा
देनी
पड़ती देनी पड़ती
है. अंधकार
में
प्रकाश फैलाने वाला पूर्णिमा
का
चंद्रमा
यह
कह
रहा
है
कि आकाश की
ऊंचाई
और व्यापकता चाहिए
तो
इन
गुणों
को
आत्मसात
करना
चाहिए.
गुरु का महत्व
गुरु के
महत्व पर संत
शिरोमणि तुलसीदास ने
रामचरितमानस में लिखा
है –
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही
कोई ब्रह्मा, शंकर के समान
क्यों न हो, वह गुरु
के बिना भव
सागर पार नहीं
कर सकता। धरती
के आरंभ से
ही गुरु की
अनिवार्यता पर प्रकाश
डाला गया है।
वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि
सभी धर्मग्रन्थों एवं
सभी महान संतों
द्वारा गुरु की
महिमा का गुणगान
किया गया है।
गुरु और भगवान
में कोई अन्तर
नहीं है। संत
शिरोमणि तुलसीदास जी
रामचरितमानस में लिखते
हैं –
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।
अर्थात् गुरू
मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है।
किसी भी
प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए। जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी
है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए
गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं। भौतिकवाद में
भी गुरू की आवश्यकता होती
है।
सबसे बड़ा
तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है। ऐसी गुरु की महिमा है।
तीरथ गए
तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले
तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।
मनुष्य का
अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का
मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है।
इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का
ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं।
किसी गुरु
से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण
की होती है। समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए। इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि
यह तन
विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां
जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।
गुरु ज्ञान
गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है।
प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है।
गुरु के
वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर
कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।
सद्गुरु एक
ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का
दायित्व गुरु का होता है।
आनन्द अनुभूति
का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है। सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो
जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण
ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही
संदेश दिया था –
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम
शुच: ।।
(गीता 18/66)
अर्थात् सभी
साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए।
जिनके दर्शन
मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए
बिना नहीं रह सकता। उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों
को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को
भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है। उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व
शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त
हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए। हमारे बैकुंठवासी श्रीमज्जगद्गुरु
रामानुजाचार्य स्वामी सुदर्शनाचार्य जी
महाराज में परम गुरु के सभी गुण मौजूद थे और वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु
रामानुचार्य स्वामी पुरूषोत्तमाचार्य जी
महाराज में भी वे सभी गुण प्रत्यत्क्ष दिखाई
देते हैं।
Jai Guru dev