इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

शुक्रवार, 10 जनवरी 2020

चिरंतन सत्य मृत्यु

 चिरंतन सत्य मृत्यु

मृत्यु शब्द का नाम सुनते ही प्रत्येक प्राणी भयभीत हो जाता है. शरीर की  
आंतरिक  एवं व्हाय  क्रियाओं का रुक जाना ही मृत्यु है.शास्त्रीय भाषा में 
ऐसा भी कहा जाता है, कि जब जीवात्मा के इस शरीर के साथ  भोग समाप्त 
हो जाते हैं तो वह इस भौतिक शरीर को त्याग देता है,  जिसे मृत्यु कहा जाता है. 
 मृत्यु इस सृष्टि का नियम है.  सृष्टि का क्रम जन्म मरण की धुरी  पर घूम रहा है. 
मृत्यु की चलती चक्की में   अन्न के दाने की तरह हमें आज नहीं तो कल पिस कर
  ही रहना है. 
 इस शाश्वत सत्य को न तो  झूठलाया जा सकता है कि हमें परम प्रिय लगने 
वाले आज का सुनिश्चित अस्तित्व कल महा शून्य में विलीन होकर रहेगा  ही.  
हमारे  दार्शनिक  ग्रंथों का भी यही कहना है की, मृत्यु अनिवार्य घटना है.
 परंतु मृत्यु की वास्तविकता इतनी भयानक नहीं है, जितनी कल्पनाओं ने 
कर ली है. इस अनंत जीवन की प्रवाह में मरण को सुखद विश्राम माना
 जाता है. मृत्यु से जीवन का पूर्ण रूप से  अंत नहीं होता, बल्कि एक 
नए जीवन का आगाज भी होता है.  हमारे ऋषि यों का भी यही चिंतन 
था कि रात्रि में जिस तरह से  शयन किया जाता है और दूसरे दिन सुबह 
 जाग कर  नया कार्यक्रम बनाया जाता है ,उसी प्रकार मरण का विश्राम 
लेकर हर बार नए जीवन में नए दिवस का आरंभ होता है. जीवन और 
मृत्यु अनवरत रूप से चलने वाली ईश्वरी व्यवस्था है. 

 अगर मृत्यु ना होती तो जीवन के महत्व का आभास हमें ना हो पाता. 
मृत्यु मनुष्य को सजग एवं विवेकी बनने की प्रेरणा देती है . 
परंतु सांसारिक भोग हमें मृत्यु के वास्तविक अर्थ को समझने 
में बाधा उत्पन्न करता है . हमारी आध्यात्मिक विरासत में 
यही शिक्षा दी जाती है कि जिस प्रकार मनुष्य उज्जवल 
जीवन के लिए प्रतिदिन प्रयत्नशील रहता है ,उसे अपनी 
मृत्यु के क्षण को भी कल्याणकारी बनाने का प्रयत्न करना 
चाहिए. मृत्यु  एक चेतावनी है जो मनुष्य को भोग विलास 
 के  पाप के पथ पर बढ़ने से रोकती है . जो व्यक्ति इस

 चेतावनी को आत्मसात कर लेता है वही वैराग्य के पथ पर बढ़ने लगता है. 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें