इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

गुरुवार, 16 जनवरी 2020

सुख- दुख

सुख- दुख


सुख और दुख दोनों ही मनुष्य के अपने कर्मों के फल होते हैं। सुख के लिए वह भरपूर प्रयास करता है और दुख जाने- अनजाने किए पापों के कारण उसके सिर का बोझ बनते जाते हैं। अपने सुख का आनंद वही जान पाता है जिसने सुख प्राप्त किया है। अपने कर्मों का सुख भोगना उसका अधिकार है। यदि वह सुख अन्य के साथ बैठता है तब भी अपने सुख पर उसका अधिकार वैसा ही अक्षुण्ण रहता है। इसी तरह दुख जिस सघनता से आया है वैसा ही रहेगा चाहें जितने लोगों से चर्चा कर ली जाए। सुख का बढ़ जाना और दुख का कम हो जाना मात्र एक भ्रम है। यह अवश्य होता है कि जब मनुष्य अपने सुख की अभिव्यक्ति करता है तो उसका हम संतुष्ट होता है। उसे अन्य की अपेक्षा ऊपर उठते होने की अनुभूति होती है। दुख में प्राप्त होने वाली संवेदनाएं भी एक तरह से उसके अहम को संबल देने का कार्य करती हैं जिससे अपने पाप कर्मों, अवगुणों का पश्चाताप कम होता लगता है। दुःख और सुख वास्तव में अंतर की अवस्था है। इन्हें अंतर तल पर ही भोगना श्रेयस्कर होता है। सुख की अनुभूति को यदि पूर्ण रूप से अंतर्गत ग्राम किया जाए तो सत्कर्म करने की प्रेरणा जागृत होती है। दुःख की सघनता को यदि पूर्णता में आत्मसात किया जाए तो पश्चाताप पूर्ण होता है और मन सचेत होता है। सुख और दुख दोनों ईश्वर ने दिए हैं। यह मनुष्य और ईश्वर के मध्य का आदान-प्रदान है। इसे सार्वजनिक करना ईश्वर के विधान में हस्तक्षेप करना है। यह भी समझना होगा कि आपका सुख ना कोई अन्य भोग सकता है ना कोई आपके हिस्से का दुख सहन कर सकता है। आज जीवन में अंतरग कुछ नहीं नहीं गया है। मन की भावनाएं जिन्हें मन की शक्ति बननी चाहिए अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बनती जा रही हैं। इसे  खुलेपन का नाम दे दिया गया है। इसके दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं। लोग टूट रहे हैं। हताश, निराश हो रहे हैं। इससे बचना है तो मन की भावनाओं को आत्मसात करना आना चाहिए। भावनाओं को किस से और किस स्तर पर बैठना है यह विवेक होना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें