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शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

मनोवृति

मनोवृति

दया, क्षमा,परोपकार और दान - ये हमारी सहज मनोवृत्तियां हैं। सहज वह है जिसे समझने अथवा प्राप्त करने के लिए किसी विशेष प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती। उल्लेखनीय है कि प्रभु ने हमारे शरीर के अंगों और मन की संरचना इस प्रकार से की है कि यदि वे सहज अथवा आसानी से प्राप्त चीजों पर ध्यान लगाएँ इससे तो उनमें श्रेय अथवा शरण की प्रक्रिया कमजोर पड़ जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनकी उत्तरजीविता बढ़ जाती है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि हम दया, क्षमा , परोपकार और दान जैसी सात्विक, सहज प्रवृत्तियों को अंगीकार करते हैं तो हमारे दीर्घजीवी होने में कोई संदेह नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में हम अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का बेहतर तरीके से निर्वहन करेंगे। यह सचमुच बड़ी आनंददायक स्थिति है। यह सही है कि वर्तमान भौतिकवादी संसार में अधिसंख्य लोग केवल पाना चाहते हैं। पाने अथवा लेने वालों की पंक्ति बड़ी लंबी है, जबकि देने वालों की पंक्ति खाली-खाली सी, लेकिन जो थोड़े लोग इस देने वाले पंक्ति में शामिल हैं, उनसे जाकर पूछिए, उनका आनंद। येन-केन प्रकारेण पाने की होड़ में कई बार असफलता हाथ लगती है। यह सफलता तनाव का कारण बनती है और फिर तनाव व्याधियों का कारण बनती है। व्याधियों से घिरा शरीर परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होता जाता है और अंत में अनुपयोगता कि इस पीड़ा को लिए व्याधियुक्त शरीर अल्पायु में ही काल कवलित हो जाता है। हम ना भूलें कि दुनिया जिसे आज सफलता मान रही है, वह अधिक-से-अधिक भौतिक है। काल विशेष से आबद्ध है। कई मामलों में तो यह क्षणिक भी होती है। इसके साथ असफलता का भय भी बराबर बना रहता है, जबकि संतुष्टि, जो हमारी उक्त  सहज मनोवृत्तियों का परिणाम है, हमारे अंतर्मन का द्वार खोलती है। इसमें असफलता का भय नहीं होता, यह क्षणिक नहीं है, भौतिक नहीं है। यह पराभौतिक है, सतत है, चिदानंद की अवस्था है। दीर्घजीविता का सूत्र है।

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