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गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

लखनऊ जं. स्टेशन का निरीक्षण



 महाप्रबंधक, पूर्वोत्तर रेलवे श्री विनय कुमार त्रिपाठी ने  मंडल रेल प्रबंधक , लखनऊ डा० मोनिका अग्निहोत्री तथा मंडल के शाखाधिकारियों के साथ पूर्वोत्तर रेलवे के लखनऊ जंक्शन स्टेशन का निरीक्षण कर स्टेशन पर प्रदान की जा रहीं यात्री सुख-सुविधाओं का जायजा लिया।

गुरुवार, 10 दिसंबर 2020

कोच



          रेलगाड़ी हमारे जीवन का एक महत्तवपूर्ण हिस्सा है, लेकिन रेलगाड़ी से जुड़ी कई बातें ऐसी हैं जो हमें पता नहीं हैं। हम सभी ने रेलगाड़ी के दो अलग-अलग कोच देखे होंगे और सफर भी किया होगा-- पहला, नीले रंग का और दूसरा, लाल रंग का। लेकिन क्या आप इन दोनों के बीच का अंतर जानते हैं? आइए इस लेख में दोनों कोच के बीच का फर्क जानते हैं।

रेलगाड़ी में नीले रंग वाले कोच को ICF (Integral Coach Factory) और लाल रंग वाले कोच को LHB (Linke Hofmann Busch) कहते हैं।

1- इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ) चेन्नई, तमिलनाडु में स्थित है।

2- ये साल 2000 में जर्मनी से भारत लाई गई है।

3- ये अल्युमीनियम (aluminium) से बनाई जाती है और इस वजह से हल्की होती है।

4- इसमें डिस्क ब्रेक (disc brake) का प्रयोग होता है।

5- अधिकतम अनुमेय गति (maximum permissible speed) 200 किमी प्रति घंटा है और इसकी परिचालन गति (operational speed) 160 किमी प्रति घंटा है ।

6- इसके रखरखाव में कम खर्च होता है।

7- इसमें बैठने की क्षमता ज़्यादा होती है (SL-80, 3AC-72)।

8- दुर्घटना के बाद इसके डिब्बे एक के ऊपर एक नहीं चढ़ते हैं।

पहले LHB कोच का प्रयोग सिर्फ तेज गति वाली ट्रेनों में किया जाता था जैसे कि गतिमान एक्सप्रेस, शताब्दी एक्सप्रेस और राजधानी एक्सप्रेस लेकिन भारतीय रेलवे ने सभी ICF कोच को जल्द से जल्द LHB कोच में अपग्रेड करने का फैसला किया है। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि LHB कोच सुरक्षा, गति, क्षमता, आराम आदि मामलों में ICF कोच से बेहतर हैं।


मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

भारत रत्न डा.भीम राव अंबेडकर

 भारत रत्न, डॉ भीमराव अंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस के अवसर पर आज महाप्रबंधक श्री विनय कुमार त्रिपाठी, प्रमुख मुख्य परिचालन प्रबंधक श्री अनिल कुमार सिंह सहित अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों ने भारत रत्न, डॉ.भीमराव अंबेडकर को माल्यार्पण कर पुष्पांजलि अर्पित की।







बुधवार, 2 दिसंबर 2020

सफलता का मार्ग

 सफलता का मार्ग 


     कुछ अनूठा करने के लिए तीन बातें बहुत ज़रूरी है - धारणाओं का परिवर्तन, चिंतन और प्रयोग। आदमी की ग़लत अवधारणा एवं पूर्वाग्रहों ने समाज के कई वर्गों में बाँट दिया और इससे विद्वेष, घृणा और संघर्ष पैदा हुए। इसी तरह व्यावसायिक एवं परिवार को लेकर जो अवधारणाएँ बनी हुई हैं, उन्हें बदलना भी बहुत ज़रूरी है‌। जैसा कि जोहान वान गोथे ने कहा था- 'जिस पल कोई व्यक्ति ख़ुद को पूर्णतः समर्पित कर देता है, ईश्वर भी उसके साथ चलता है। जैसे ही आप अपने मस्तिष्क में नए विचार डालते हैं, उसी पल से ब्रह्माण्डीय शक्तियां अनुकूल रूप से काम करने लगती है। बड़ी सफलता हासिल करने के लिए बड़े लक्ष्य बनाने पड़ते हैं। भरसक कोशिश करनी होती हैं। केवल बातें करने से कुछ हाथ नहीं आता। चित्रकार पाब्लो पिकासो के अनुसार, 'योजना की गाड़ी पर सवार होकर ही लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। हमें अपनी योजना पर भरोसा रखना होता है और उन पर काम भी करना होता है। सफलता का कोई और रास्ता ही नहीं है।'

    अगर शान्ति और सुख से जीना है तो धारणाओं का परिवर्तन, सत्य विषयक चिंतन और प्रयोग- इन तीनों का आलंबन लेना ही होगा। जिसके अलावा कोई और चारा नहीं। कोरी चर्चा से कुछ नहीं होगा। चिंतन की भूमिका पर उतारकर उसे प्रयोगात्मक रूप देना पड़ेगा। अगर ऐसा होता है तो विश्वास किया जा सकता है कि हर तरह की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक समस्या का समाधान ज़रूर होगा। जैसा कि रूमी ने कहा है- 'कोई दर्पण फिर कभी लोहा नहीं बना, कोई रोटी फिर कभी गेहूं नहीं बनी, कोई पका हुआ अंगूर फिर कभी खट्टा फल नहीं बना। अपने आपको परिपक्व बनाएं और परिवर्तन के बुरे नतीजों के बारे में आशंकित न हो। उजाला बनें।' इसलिए ख़ुद बदलें, ख़ुद रोशनी बनें और दूसरों को भी प्रकाशित करें। जो मान्यताएं मन-मस्तिष्क में जड़ जमाए बैठी हुई हैं, उनका परिष्कार करना चाहिए, और उन्हें बदलना चाहिए।


आनंद

 

मनुष्य से जितना निर्दोष होगा, उतना ही सुखी होगा। निर्दोष मनुष्य मासूम होता है। वह हमेशा सच्चाई से ज़िंदगी जीता है। समाज की कुटिलता उसके पास तक फटकती। वह किसी व्यक्ति के दुख में दुखी होने का अभिनय नहीं करता, बल्कि सचमुच दुखी होता है। वह दुखी व्यक्त की भरसक मदद करता है। ऐसा करते समय हुआ या नहीं सोचता कि कौन क्या कहेगा। यह जो कौन क्या कहेगा वाली प्रवृत्ति ही मनुष्य को औपचारिक बनाती है, जबकि किसी के दुख में औपचारिकता दिखाना एक तरह का पापा ही है। यदि आप उसको मदद करना चाहते हैं तो असली मदद करें, दिखावा नहीं। यह सब मनुष्यों से नहीं हो पाता। वही मनुष्य सच्ची मदद कर सकता है जो मासूम है।

मासूम व्यक्ति प्रकृति के निकट होता है। वह नदी, पर्वत, आकाश को देखकर सम्मोहित होता है और सच्चे आनंद की अनुभूति प्राप्त करता है। मासूम व्यक्ति चेतना के स्तर पर बहुत समृद्ध होता है। वह जब आनंदित होता है, तब दुनियादारी से दूर होता है। संवेदना में वह कवियों और कलाकारों से आगे होता है। मासूम व्यक्ति स्नेहीजनों को देखकर आनंदित होता है। ऐसे मनुष्य को लोग 'परमहंस' का ख़िताब भी देते हैं। मासूमियत सायास नहीं आती। यह स्वाभाविक होती है, पर कई बार ख़ुद को निखारने पर आ जाती है। यह प्रक्रिया जटिल इसलिए है, क्योंकि जब तक आप परोपकार में आनंद महसूस नहीं करने लगते, तब तक मासूमियत से दूर रहते हैं। मासूम रहा होने का अभिनय नहीं हो सकता। असलियत तुरंत सामने आ जाती है। मासूम व्यक्ति समाज की छोटी से छोटी विसंगति के लिए चिंतित रहता है। वह झूठा और पाखंड से हमेशा दूर रहता है। नुक़सान होने पर भी वह निराश नहीं होता। उसके पास अपरिमित सहनशक्ति होती है। दुर्गुणों का प्रक्षालन ही मनुष्य को मासूम बनाता है। मासूम बनकर ही आप सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। यह आनंद उसी तरह का है होता है, जो बच्चे महसूस करते हैं।


गुरुवार, 26 नवंबर 2020

भारत का संविधान

 26 नवंबर पर विशेष

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भारत का संविधान

(विश्व का सबसे लंबा लिखित संविधान)

भारत का संविधान, भारत का सर्वोच्च विधान है जो संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित हुआ तथा 26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ। यह दिन (26 नवम्बर) भारत के संविधान दिवस के रूप में घोषित किया गया है जबकि 26 जनवरी का दिन भारत में गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।भीमराव आम्बेडकर को भारतीय संविधान का प्रधान वास्तुकार या निर्माता कहा जाता है। भारत का संविधान विश्व के किसी भी गणतांत्रिक देश का सबसे लंबा लिखित संविधान है।

भारतीय संविधान सभा के लिए जुलाई 1946 में चुनाव हुए थे। संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 को हुई थी। इसके तत्काल बाद देश दो हिस्सों - भारत और पाकिस्तान में बंट गया था। संविधान सभा भी दो हिस्सो में बंट गई- भारत की संविधान सभा और पाकिस्तान की संविधान सभा।

भारतीय संविधान लिखने वाली सभा में 299 सदस्य थे जिसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 में अपना काम पूरा कर लिया और 26 जनवरी 1950 को यह संविधान लागू हुआ। इसी दिन कि याद में हम हर वर्ष 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाते हैं। भारतीय संविधान को पूर्ण रूप से तैयार करने में 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन का समय लगा था।


सोमवार, 23 नवंबर 2020

स्वभाव

                                                                          स्वभाव 

चर और अचर रूप में निर्मित यह सृष्टि विधाता की अनुपम कृति है। इसलिए इसको चराचर जगत कहा जाता है। इसमें सभी प्राणियों का अपना स्वभाव होता है। वे सदैव उसी अनुरूप व्यवहार करते हैं। कभी उसे अलग नहीं होते। जैसे जल का स्वभाव है शीतलता, अग्नि का स्वभाव है जलाना और धरती का गुण है सहनशीलता। ये सभी अपने गुरु के कभी नहीं छोड़ते। इसलिए यह इनका स्वभाव कहलाता है और यही पहचान भी। अपने इसी मूल स्वभाव में रह कर ये अपना जगत का कल्याण करते हैं।

इस जगत में मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है, क्योंकि उसने उसे बुद्धि और विवेक से समृद्ध किया है। इसलिए मनुष्य के जीवन का उद्देश्य भी विश्वस्त हैं इसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति करना मनुष्य का धर्म है इसकी सीधी में सर्वाधिक योगदान मनुष्य के स्वभाव का होता है भागवत गीता के पंचम अध्याय में स्वभाव को अध्यात्म कहा गया है स्वभाव निर्यात कर्मों को करता हुआ प्राणी बाप की ओर नहीं बढ़ सका अपितु अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेता है वास्तव में मानव जीवन का प्रथम और अंतिम उद्देश्य अभी गए और मोक्ष की प्राप्ति है आता इनकी प्राप्ति में जो सहायक हो वही मानव का स्वभाव हो सकता है इस देश से प्रेम शांति और सद्भाव मानव स्वभाव की आत्मा है और जीवन यात्रा के साथ ही पाथेय भी। 

देखने में आ रहा है कि अन्य प्राणियों के  विपरीत मनुष्य से अपने mul स्वभाव से भी मुख हो रहा है इसी लिए वह न केवल स्वयं के लिए बल्कि दूसरों के लिए भी दुख का कारण बन गया है मानव की यह प्रविधि किसी प्रकार शुभ संकेत नहीं कही जा सकती समझना होगा कि इस दुनिया में सुख और दुख का कारण मानव स्वभाव ही है और दुख निवृत्ति का ही तू भी वही है इसलिए अपने एवं जगत के कल्याण के लिए मनुष्य को अपने मूल स्वभाव की ओर लौटना होगा जगत के कल्याण का इससे इतर कोई मार्ग नहीं।  


सोमवार, 9 नवंबर 2020

आत्मविश्वास

                                                                         आत्मविश्वास


  हमारे जीवन में आत्मविश्वास का होना उतना ही आवश्यक है, जितना किसी पुष्प में सुगंध का होना। यदि किसी व्यक्ति के पास योग्यता, क्षमता और पर्याप्त संसाधन है, परंतु उसे खुद पर विश्वास नहीं, तो उस व्यक्ति से सफलता वास्तव में दूर है। इसके विपरीत तमाम अभाव के बावजूद यदि कोई व्यक्ति स्वयं उसको साबित करने के विश्वास यानी आत्मविश्वास से ओतप्रोत है तो उसकी सफलता सुनिश्चित है। असल में आत्मविश्वास वह ऊर्जा है, जो सफलता की राह में आने वाले प्रत्येक अवरोध को दूर करने का सामर्थ्य प्रदान करती है।


  इतिहास साक्षी है कि आत्मविश्वास के दम पर साधारण व्यक्तियों ने भी असाधारण उपलब्धियों को अपने नाम किया। यदि आत्मविश्वास ना होता तो एक मामूली सा बालक चंद्रगुप्त कभी एक महान साम्राज्य का सम्राट नहीं बनता। स्पष्ट है कि आत्मविश्वास और चरित्र के बल पर एक साधन रहित व्यक्ति भी महान सफलता प्राप्त कर सकता है। यह सिद्ध है कि स्वयं पर विश्वास होने पर हम बड़ी से बड़ी चुनौती का सामना कर सकते हैं। यदि आपको विश्वास हो कि आप यह काम कर सकते हैं तो आपका वह प्रयोजन अवश्य पूर्ण होता है। यह भी प्रमाणित होता है कि मनुष्य उसी कार्य को उचित प्रकार से कर सकता है, जिसकी सिद्धि में उसका सच्चा विश्वास हो।


यदि किसी व्यक्ति को अपने पर भरोसा है तो वह पहले ही आधी लड़ाई जीत चुका होता है। प्रसिद्ध अमेरिकी कवि और लेखक इमर्सन कहते हैं, 'दुनिया के सारे युद्धों में इतने लोग नहीं पराजित होते, जितने सिर्फ घबराहट से प्राप्त हो जाते हैं।' ऐसे में किसी भी व्यक्ति को चाहिए कि वह प्रथम सर्वप्रथम स्वयं पर विश्वास करें। उसके विपरीत उसके लिए कोई लक्ष्य निर्धारित करे। फिर निश्चय कर ले कि उसे प्राप्त किया जा सकता है तो उसमें सफलता शत-प्रतिशत निश्चित है। वास्तव में आत्मविश्वास ही सफलता की कुंजी है, जिसे सफलता की चाह रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति  को अपने पास रखना चाहिए।


बुधवार, 4 नवंबर 2020

कामकाज की भाषा-हिन्दी


कामकाज की भाषा-हिन्दी

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             हिंदी केवल साहित्य की भाषा नहीं है वह कामकाज की भी भाषा है, हिंदी के समक्ष जब हम चुनौतियों की चिंता करें तब हिंदी की इस भूमिका को भी गम्भीरता से देखना चाहिए. लगभग दो सौ वर्षोँ के लंबे ब्रिटिश शासन से मुक्ति पाने के बाद स्वाधीन भारत की संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को निर्णय लिया कि संघ के राजकाज की आधिकारिक भाषा यानी राजभाषा हिंदी होगी. यह तय किया गया कि 15 वर्षों तक देश में हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी भी चलती रहेगी. इसके पीछे यह मासूम अवधारणा थी कि इस 15 वर्ष की पर्याप्त अवधि में शासन-प्रशासन का समस्त कामकाज राजभाषा हिंदी में होने लगेगा. लेकिन अनेक अवांछित कारणों और कटु कारकों के चलते इस निर्धारित अवधि में यह संभव नहीं हो सका. परिणामत: सन् 1963 में राजभाषा अधिनियम बनाया गया ताकि संघ के राजकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग को अमल में लाया जा सके. राजभाषा अधिनियम, 1963 की धारा 3(3) में यह आदेशपूर्वक निर्दिष्ट किया गया कि सर्वसाधारण को लक्ष्य कर तैयार किए जाने वाले सभी दस्तावेज, नामत: आदेश, ज्ञापन, परिपत्र, सूचना, अधिसूचना, विज्ञापन, निविदा, संविदा, अनुज्ञप्ति, करार, संसद के दोनों सदनों में पेश किए जाने वाले प्रशासनिक और अन्य प्रतिवेदन आदि अंग्रेजी के साथ-साथ अनिवार्यत: हिंदी में भी जारी किए जाएँ. अर्थात् ये सभी सरकारी दस्तावेज अनिवार्यत: द्विभाषी रूप में ही जारी किए जाएँ और इसका दृढ़तापूर्वक पालन किया जाए. इसका उल्लंघन होने पर इन दस्तावेजों पर अंतिम रूप से हस्ताक्षर करने वाले अधिकारी को जिम्मेदार ठहराया जाएगा.

  हिंदी की स्थिति         

संघ की राजभाषा नीति के सतत क्रियान्वयन में यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था. और यहीं से सरकारी कार्यालयों में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो गई और सरकार को संसद के दोनों सदनों समेत सभी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, अधीनस्थ कार्यालयों, निगमों, उपक्रमों, बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों आदि में हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों की पूर्णकालिक और स्थायी नियुक्ति, और वह भी पर्याप्त संख्या में नियुक्ति की तत्काल आवश्यकता बेहद शिद्दत से महसूस हुई. यों तो विशेष प्रकार के अनुवादों यथा नियमों, कोडों, मैन्युअलों, तकनीकी व विधिक साहित्य, शोध, अनुसंधान आदि जैसे दस्तावेजों के केंद्रीकृत अनुवाद के लिए विधि मंत्रालय के साथ-साथ केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो भी सक्रिय था. लेकिन सांविधिक, विधिक और तकनीकी अनुवादों के अलावा सामान्य अनुवादों के लिए भी भारत सरकार के हरेक मंत्रालय, विभाग, कार्यालय, संगठन, बैंक, उपक्रम आदि में हिंदी अनुवादकों की भर्ती शुरू हुई और राजभाषा नीति के व्यापक कार्यान्वयन और राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा संकल्प, 1968 तथा राजभाषा नियम, 1976 के अनुपालन की निगरानी के लिए राजभाषा अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों यथा सहायक निदेशक (राजभाषा), निदेशक (राजभाषा) इत्यादि की नियुक्तियों को गति मिली. फलस्वरूप, हरेक मंत्रालय, विभाग, अधीनस्थ कार्यालय, संगठन, बैंक इत्यादि में उनकी कुल स्टाफ संख्या के एक निश्चित अनुपात के रूप में न केवल हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों की, वरन् कनिष्ठ हिंदी अनुवादकों, वरिष्ठ हिंदी अनुवादकों और राजभाषा अधिकारियों, सहायक निदेशकों, निदेशकों आदि के पदों का पर्याप्त संख्या में सृजन भी किया गया. लेकिन ये सृजित पद कभी भी पूरे के पूरे नहीं भरे गए.

हाँ, नीतिगत तौर पर हिंदी टंककों, हिंदी आशुलिपिकों समेत हिंदी अनुवादकों, हिंदी अधिकारियों एवं राजभाषा संवर्ग के अधिकारियों आदि की नियमित नियुक्तियों की शुरूआत से संघ की राजभाषा नीति की अपेक्षाओं की आंशिक पूर्ति तो अवश्य हुई. कार्यालयों में रोजमर्रे के कामकाज और नेमी किस्म के पत्राचार, टिप्पण, प्रविष्टि आदि हिंदी में करने का दबाव भी बढ़ा और कार्यालयों के नाम, नामपट्ट, सूचनापट्ट, मोहर, सील, पत्रशीर्ष, लिफाफे आदि ही नहीं बल्कि नेमी किस्म के प्रपत्रों, फॉर्मों, पर्चियों आदि समेत रेलवेज, एयरवेज आदि के आरक्षण-फॉर्म, टिकट, बैंकों की निकासी व जमा पर्चियाँ, चेकबुक, पासबुक इत्यादि भी हिंदी में प्रदर्शित, प्रकाशित और मुद्रित होने लगे. इतना ही नहीं, सरकारी सेवाओं के लिए ली जाने वाली समस्त भर्ती परीक्षाओं के प्रश्नपत्र भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी अनिवार्यत: तैयार किए जाने लगे और इन भर्तियों के लिए आयोजित होने वाले साक्षात्कारों में भी हिंदी में उत्तर देने का प्रावधान किया गया. इनके अलावा मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, संगठनों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि की वार्षिक रिपोर्टें भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी में भी तैयार की जाने लगीं और सभी प्रदर्शित, प्रकाशित व मुद्रित दस्तावेजों व नामपट्ट, पत्रशीर्ष, मोहर इत्यादि में हिंदी को वरीयता प्रदान की गई, अर्थात् पहले हिंदी और फिर अंग्रेजी. जहाँ तीन भाषाएँ हैं, वहाँ सर्वप्रथम प्रांतीय भाषा, फिर हिंदी और अंत में अंग्रेजी. यहाँ विशेष रूप से यह भी निर्दिष्ट किया गया कि तीनों भाषाओं के अक्षर के आकार एक समान हों, रंग एक समान हों और उनमें प्रयुक्त सामग्री (यथा धातु) अनिवार्यत: एक हों. आशय यह कि प्रांतीय भाषा को ताँबे में, हिंदी को पीतल में और अंग्रेजी को सोने के अक्षरों में नहीं दर्शाएँ.    

यदि आप इन प्रावधानों की बारीकियों पर गौर करें तो आप सहज ही समझ जाएँगे कि संघ की राजभाषा नीति बेहद संवेदनशील एवं सर्वसमावेशी है और यहाँ किसी भी भाषा को कमतर या बेहतर नहीं बताया गया है. संविधान के 17वें भाग में अनुच्छेद 351 में यह स्पष्ट कहा गया है कि "संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्थानी में और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भाषाओं में प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहाँ उसके शब्दभंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे." यदि आप थोड़ा और गौर करें तो आप पाएँगे कि सभी सरकारी मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, सार्वजनिक उपक्रमों, इकाइयों आदि में, सरकारी कामकाज में, नामपट्टों, मोहरों, साइनबोर्डोँ, पत्रशीर्षों, लिफाफों आदि से लेकर सरकारी सूचनाओं, विज्ञापनों, परीक्षा के प्रश्नपत्रों, नेमी फॉर्मों, टिकटों, बैंक की आहरण व निकासी पर्चियों आदि में अंग्रेजी के अलावा जो प्रचुर हिंदी या थोड़ी-बहुत हिंदी दिखती है, वह संघ की इसी राजभाषा नीति के बूते और बदौलत है!        

यों तो संघ के राजकाज में हिंदी की स्थिति और संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन में हुई प्रगति संतोषजनक ही नहीं बल्कि पर्याप्त उत्साहजनक प्रतीत होती है. लेकिन सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी के प्रयोग की स्थिति न तो संतोषजनक है और न ही उत्साहवर्धक. इसके साथ-साथ, मंत्रालयों, विभागों, कार्यालयों, बैंकों, उपक्रमों, इकाइयों आदि में  राजभाषा नीति के कार्यान्वयन को गति देने के मूलभूत उद्देश्य से सुगमकर्ता के रूप में नियुक्त किए हिंदी अनुवादकों, राजभाषा अधिकारियों की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. कार्यालयों में उनके सृजित पद पर्याप्त संख्या में या तो भरे ही नहीं गए हैं या फिर उन पदों पर स्थायी नियुक्तियाँ लंबे समय से अवरूद्ध हैं. जो अनुवादक या राजभाषा अधिकारी नियुक्त किए भी गए हैं, उन्हें अपने बैठने और तल्लीनता से कामकाज करने के वास्ते समुचित स्थान पाने तक के लिए जद्दोजहद करना पड़ रहा है. उनके करियर, पदोन्नति आदि के मार्ग अत्यंत हताशाजनक रूप से सुस्त और अवरूद्ध हैं. कार्यालयों में स्टाफ की कमी के कारण या जानबूझकर उन्हें उनके मूल काम की बजाय कार्यालय के अन्य कामों में लगा दिया जा रहा है. संघ की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन से जुड़े राजभाषा कर्मियों के साथ ऐसे प्रतिकूल व्यवहार और ऐसे प्रतिकूल माहौल को देखकर संसदीय राजभाषा समिति को अपनी हालिया रिपोर्टों तक में यह सख्ती से कहना पड़ा है कि राजभाषा हिंदी से जुड़े कर्मियों को उनके बैठने, कामकाज करने हेतु समुचित और सम्मानजनक स्थान और साजो-सामान मुहैया कराया जाए. उन्हें समुचित और समयबद्ध पदोन्नति प्रदान की जाए और जहाँ उनके अपने संवर्ग में अवसर नहीं हो तो ऐसी स्थिति में उन्हें सामान्य संवर्ग में पदोन्नति देने की व्यवस्था की जाए ताकि उनका करियर बाधित नहीं हो और वे हताशा और उपेक्षा के शिकार नहीं होने पाएँ.

लेकिन इन सबके बावजूद, सरकारी कामकाज में राजभाषा हिंदी को अपनाने और इसे समुचित बढ़ावा देने के प्रति वांछित उत्साह प्राय: देखने को नहीं मिलता है. वरिष्ठ प्रबंधन से लेकर निचले पायदान तक हिंदी में काम करने की मानसिकता पर्याप्त रूप से अबतक नहीं बन पाई है. इस कंप्यूटर युग में "कट-कॉपी-पेस्ट कल्चर" के हावी हो जाने के कारण अब यह और भी कठिन हो गया है! कार्यालयों में सामान्यत: यह सीधे-सीधे मान लिया जाता है कि हिंदी में काम का मतलब हिंदी अधिकारी का काम! अब उन्हें कौन समझाए कि अगर किसी कार्यालय में कुल कर्मचारियों और अधिकारियों की औसत संख्या तीन सौ है तो उनके द्वारा प्रतिदिन किया गया सारा कामकाज हिंदी के नाम पर वहाँ नियुक्त मात्र दो या तीन हिंदी आधिकारियों को नहीं सौंपा जा सकता है! यदि मान लें कि तीन सौ स्टाफ में से एक सौ स्टाफ भी प्रतिदिन अंग्रेजी में एक-एक पृष्ठ के एक सौ पत्र तैयार करते हैं तो दो-तीन राजभाषा अधिकारी को प्रतिदिन एक सौ पृष्ठ हिंदीं में अनुवाद करने होंगे! यह न सिर्फ संघ की राजभाषा नीति की मूल भावना के विपरीत है, बल्कि यह संघ की राजभाषा नीति, राजभाषा अधिनियम, 1963, राजभाषा नियम, 1976 और भारत सरकार द्वारा राजभाषा हिंदी के प्रगामी प्रयोग के लिए हर वर्ष जारी किए जाने वाले वार्षिक कार्यक्रम का सरासर उल्लंघन भी है! इस वार्षिक कार्यक्रम के अनुसार भाषायी आबादी के आधार पर विभाजित 'क', 'ख' और 'ग' क्षेत्र में स्थित कार्यालयों को क्रमश: 100 प्रतिशत, 90 प्रतिशत और 55 प्रतिशत मूल पत्राचार हिंदी में करना है. लेकिन इस आँकड़े को जैसे-तैसे हासिल करने के लिए हर बार पहले अंग्रेजी में तैयार पत्रों का हिंदी में अनुवाद करा लेने और इससे भी बदतर कि इसी की आड़ में राजभाषा अधिकारी को बार-बार हिंदी टाइपिस्ट में 'रिडिक्यूलसली रिड्यूस' कर देने का रिवाज बना लिया गया है! ऐसे में व्यावहारिक रूप में मूल पत्राचार हिंदी में होता ही नहीं है क्योंकि सभी पत्र सीधे हिंदी में नहीं बल्कि पहले अंग्रेजी में सृजित किए जाते हैं! जो कुछ हिंदी में तैरता है, वह मूल हिंदी पत्राचार नहीं, बल्कि हिंदी अनुवाद है.

यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि कार्यालयों में इस प्रकार हिंदी में जो कुछ भी कामकाज होता या आँकड़ों में दर्शाया जाता है, वह दरअसल पूरे कार्यालय के सभी स्टाफ द्वारा किया गया न होकर, महज हिंदी अधिकारियों द्वारा ही किया गया होता है! ऐसे में विभागों को हिंदी में सर्वाधिक कामकाज के लिए मिलने वाले राजभाषा शील्ड या हिंदी में अधिकाधिक कामकाज करने के लिए कर्मचारियों को मिलने वाले प्रशंसा-पत्र और नकद प्रोत्साहन पुरस्कारों के असली हकदार तो राजभाषा अधिकारी ही हैं क्योंकि हिंदी में जो कुछ भी हुआ, वह बस उन्होंने ही तो किया है! लेकिन ऐसा कहाँ होता है? हाँ, अगर हिंदी में कामकाज के प्रतिशत में तनिक भी गिरावट दर्ज हुई तो फौरन उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है! जबकि सच्चाई यह है कि हिंदी में कामकाज का यह प्रतिशत विभाग के कर्मचारियों-अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए कामकाज का पैमाना है, न कि राजभाषा अधिकारियों द्वारा हिंदी में किए गए काम का पैमाना! और इस प्रतिशत में जो भी घट-बढ़ होती है, वह विभागों में हिंदी में कामकाज किए-न किए जाने से सीधे-सीधे जुड़ा है, न कि राजभाषा अधिकारियों के काम करने, न करने से!

लेकिन जैसा कि पहले भी इंगित किया गया है, दफ्तर में हिंदी का काम मतलब अमूमन हिंदी अधिकारी का काम ही मान लिया जाता है. ऐसे में संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन को गति देने की गरज से भारत सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम प्रशिक्षण योजनाओं और प्रोत्साहन योजनाओं यथा; हिंदी शिक्षण योजना के तहत प्राज्ञ, प्रवीण, प्रबोध परीक्षाएँ, प्रशंसा पत्र, नकद प्रोत्साहन पुरस्कार, राजभाषा शील्ड आदि-आदि का मूल उद्देश्य ही भंग हो जाता है क्योंकि ये योजनाएँ राजभाषा अधिकारियों के लिए नहीं बल्कि विभागों के समस्त कर्मचारियों-अधिकारियों को हिंदी में कामकाज करने में सक्षम बनाने और इस दिशा में उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए ही चलाई जाती हैं. लेकिन व्यावहारिक रूप में इन योजनाओं का नकदी पक्ष ही एकमात्र आकर्षण बन जाता है, हिंदी में कामकाज का पक्ष सर्वथा और सर्वत्र गौण ही हो जाता है! हाँ, इतना अवश्य है कि आम धारणा के उलट, हिंदी भाषाभाषी लोगों की तुलना में अहिंदी भाषाभाषी और विशेषकर दक्षिण भारतीय लोगों में हिंदी सीखने और हिंदी में कामकाज करने को लेकर कहीं अपेक्षाकृत ज्यादा उत्साह और समर्पण हर जगह देखने को मिलता है और हिंदी जानने वाले लोगों की तुलना में वे हिंदी में कामकाज नहीं करने के तर्क कम गढ़ते पाए गए हैं! यह स्थिति सुखद तो है ही!

 अनुवाद की स्थिति और अनुवाद की चुनौतियाँ           

सरकारी दायरे के बाहर देखें तो हिंदी को न तो बाजार से चुनौती है और न ही अंग्रेजी से कोई खतरा. बाजार हिंदी को हाथों-हाथ ले रहा है और अपने कारोबार दिन दुनी, रात चौगुनी बढ़ाता जा रहा है. फिल्म, मनोरंजन और विज्ञापन की दुनिया से लेकर बिजनेसिया अखबारों, बिजनेस चैनलों और स्पोर्ट्स चैनलों आदि तक में अब हिंदी की ही धूम है. लेकिन सरकारी दायरे में देखें तो संघ की राजभाषा नीति के सतत कार्यान्वयन की दिशा में हुई तमाम सकारात्मक प्रगतियों व उपलब्धियों को मनन करने की आवश्यकता है।

नियमत: कार्यालयों में अनुवाद की आवश्यकता वहाँ पड़ती है जहाँ भाषायी, तकनीकी, कानूनी आदि जैसी जटिलताओं, पेंचों, कोणों से लबरेज दस्तावेज, शोधपत्र, अनुसंधान, वार्षिक रिपोर्ट, आदेश, परिपत्र, विनियमावली, अधिसूचना, अधिनियम इत्यादि जैसे कागजात पहले अंग्रेजी में तैयार किए गए होते हैं. यहीं से अनुवादक और राजभाषा अधिकारी की वास्तविक भूमिका आरंभ होती है. इसलिए ही सन् 1960 में तत्कालीन राष्ट्रपति महोदय के आदेश पर ऐसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों के अंग्रेजी से हिंदी में विधिवत अनुवाद के लिए अनुवादकों की स्थायी नियुक्ति शुरू की गई थी.

समस्या और चुनौतियाँ बड़ी हों तो इनकी पड़ताल और चीरफाड़ भी पूरे विस्तार से करनी होगी. इनके प्रति कोई 'शॉर्टकट' या 'कैप्सूल अप्रोच' नहीं बल्कि 'माइक्रोस्कोपिक अप्रोच' अपनाना होगा. समस्या और चुनौतियाँ- दोनों का ही एक्सरे, एमआरआई, एनाटॉमी करनी पड़ेगी. तभी हम इस समस्या के असली कारणों की शिनाख्त कर पाएँगे और चुनौतियों का मजबूती से सामना कर पाएँगे.

  अंग्रेजी बनाम स्मार्ट हिंदी        

दरअसल, हमारी कार्यालयी अंग्रेजी अभी भी क्वीन्स इंगलिश, विक्टोरियन इंगलिश, ब्रिटिश इंगलिश के अतीतानुरागी प्रभाव यानी 'नॉस्टेल्जिया' से बाहर नहीं निकल पाई है या हम ही उसे बाहर नहीं निकाल रहे ताकि अंग्रेजी की थोथी धौंस बनी रहे! परिणामत: यह पुरानी अंग्रेजी अब भी जबरन ढोए जा रहे लैटिन, ग्रीक, फ्रेंच, डच मुहावरों, आयतित जारगनों समेत तमाम तरह के दुहरावों, अवांछित उलझावों आदि-आदि से बुरी तरह ग्रस्त है और इसलिए भी वह स्वयं त्रस्त है. अब इस अंग्रेजी को बाजार की अंग्रेजी की तरह "क्रिस्पी, क्रंची, शॉर्ट एंड स्ट्रेट और टू दी प्वाईंट" होने की जरूरत है! संतोष की बात यह है कि भारत सरकार के शीर्ष स्तरों पर यानी मंत्रालयों आदि के वरिष्ठ अधिकारियों आदि के पत्राचार आदि में अब चुस्त-दुरूस्त अंग्रेजी देखने को मिलने लगी है. हालाँकि अब बतौर भाषा अंग्रेजी को भी यह समझ में आ गया है कि यदि शासन-तंत्र और बाजार में आ रहे बदलावों के डिजिटल दौर में अपने पाँव टिकाए रखना है तो उसे भी लंबे-लंबे वाक्यों, लैटिन-फ्रेंच-ग्रीक पदावलियों-शब्दावलियों और लच्छेदार, घुमावदार, पेंचदार, मगजमार बुनावट-बनावट से बाहर आना ही होगा, खुद को छोटे-छोटे, सहज-सरल वाक्यों और "मॉडर्न-क्रिस्पी-क्रंची-स्ट्रेट इंगलिश" के शब्दों-पदों से लैस करना होगा और दुहराव-तिहरावग्रस्त शब्दों, वाक्यों और विन्यासों से खुद को मुक्त करना होगा!

जहाँ तक राजभाषा हिंदी का सवाल है तो इस मामले में यानी अपने को चुस्त-दुरूस्त, सरल-सहज-पठनीय बनाने में राजभाषा हिंदी यानी सरकारी हिंदी सरकारी अंग्रेजी से बहुत आगे निकल गई है और वह बोलचाल की हिंदी के बहुत करीब आ गई है. जो लोग राजभाषा हिंदी पर क्लिष्ट, संस्कृतनिष्ट और दुरूह होने का लांछन लगाते हैं, उनसे मैं बहुत विनम्रतापूर्वक कहना चाहता हूँ कि सरलता-सहजता के नाम पर सरकारी कामकाज में हम 'letter' को 'पत्र' की जगह 'पाती' लिखें, 'Correspondence' को 'पत्राचार' की जगह 'चिट्ठी-पतरी' लिखें, 'Dance & Music' को 'नृत्य-संगीत' की जगह 'नाच-गाना' लिखें, 'Dance & Drama' को 'नृत्य एवं नाटक' की जगह 'नाच-नौटंकी' लिखें, 'Order' को 'आदेश' की जगह 'फरमान' लिखें या इसी तर्ज पर सबकुछ तो बोलचाल की हिंदी के नाम पर यह न केवल राजभाषा का मजाक बनाना होगा बल्कि एक सुपरिभाषित कार्यपद्धति और प्रणाली का भी अपमान होगा क्योंकि हरेक 'सिस्टम' का एक 'डेकोरम' होता है और हरेक क्षेत्र-विशेष (यथा, बैंकिंग, प्रशासन, विज्ञान, विधि, अनुसंधान, उड्डयन, प्रौद्यगिकी, चिकित्सा आदि-आदि) में प्रयुक्त होने वाली भाषा की अपनी एक विशिष्ट शब्दावली और पदावली होती है, उसका अपना एक 'डिक्शन' होता है, अपना एक 'लिंग्विस्टिक-रजिस्टर' (विशिष्ट शब्द-चयन एवं लेखन-शैली) होता है. मतलब यह कि आप राजभाषा हिंदी में सोलह आने सहजता-सरलता की अपेक्षा नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ भी आदेश, ज्ञापन, निर्णय, नियम, उप-नियम, विनियम, अधिनियम, कानून, विधि, प्रावधान, राजपत्र, परिपत्र, शुद्धिपत्र, प्रतिवेदन, विज्ञप्ति, अनुज्ञप्ति, निविदा, संविदा, समझौते, करार, प्रणालियाँ, पद्धतियाँ, प्रक्रियाएँ, संहिताएँ, कार्रवाई, सिद्धांत, सूचना, अधिसूचना, प्रतिसूचना, संकल्पनाएँ, विधान-संविधान इत्यादि-इत्यादि होते हैं! ये सब के सब तथ्य और कथ्य में गूढ़-गंभीर ही नहीं, बल्कि तकनीकी और कानूनी निहितार्थों से आदि से अंत तक लैस होते हैं! तो इसकी हिंदी भी न चाहते हुए भी कुछ तो जटिल होगी ही! बावजूद इसके मैं यह दावे से कह सकता हूँ कि यदि इस तरह के दस्तावेजों को लद्धड़ अंग्रेजी से मुक्त कर दी जाए तो इनके हिंदी पाठ भी समतल-सपाट हो जाएँगे! लेकिन इससे भी सुंदर बात तब होगी जब इन दस्तावेजों को सीधे हिंदी में तैयार की जाए और जैसा हम सोचते हैं, जो हम कहना चाहते हैं, वही जस का तस कहा जाए. तभी राजभाषा नीति का वास्तविक अमलीकरण हो पाएगा.

##(संकलन)

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शनिवार, 31 अक्तूबर 2020

सरदार वल्लभ भाई पटेल

 सरदार वल्लभभाई पटेल

वल्लभभाई झावेरभाई पटेल (31 अक्टूबर 1874 – 15 दिसंबर 1950), जो सरदार पटेल के नाम से लोकप्रिय थे, एक भारतीय राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया। वे एक भारतीय अधिवक्ता और राजनेता थे, जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और भारतीय गणराज्य के संस्थापक पिता थे जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए देश के संघर्ष में अग्रणी भूमिका निभाई और एक एकीकृत, स्वतंत्र राष्ट्र में अपने एकीकरण का मार्गदर्शन किया। भारत और अन्य जगहों पर, उन्हें अक्सर हिंदी, उर्दू और फ़ारसी में सरदार कहा जाता था, जिसका अर्थ है "प्रमुख"। उन्होंने भारत के राजनीतिक एकीकरण और 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान गृह मंत्री के रूप में कार्य किया।

       लौहपुरुष' सरदार वल्लभभाई पटेल भारत के पहले गृहमंत्री थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देशी रियासतों का एकीकरण कर अखंड भारत के निर्माण में उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। गुजरात में नर्मदा के सरदार सरोवर बांध के सामने सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची लौह प्रतिमा का निर्माण किया गया है।

 जीवन परिचय

पटेल का जन्म नडियाद, गुजरात में एक लेवा पटेल(पाटीदार) जाति में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। सोमाभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लन्दन जाकर उन्होंने बैरिस्टर की पढाई की और वापस आकर अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया।


खेडा संघर्ष

स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बड़ा योगदान 1918 में खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खण्ड (डिविजन) उन दिनों भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल, गांधीजी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।


बारडोली सत्याग्रह

बारडोली सत्याग्रह, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दौरान वर्ष 1928 में गुजरात में हुआ एक प्रमुख किसान आंदोलन था, जिसका नेतृत्व वल्लभभाई पटेल ने किया । उस समय प्रांतीय सरकार ने किसानों के लगान में तीस प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी थी। पटेल ने इस लगान वृद्धि का जमकर विरोध किया। सरकार ने इस सत्याग्रह आंदोलन को कुचलने के लिए कठोर कदम उठाए, पर अंतत: विवश होकर उसे किसानों की मांगों को मानना पड़ा। एक न्यायिक अधिकारी ब्लूमफील्ड और एक राजस्व अधिकारी मैक्सवेल ने संपूर्ण मामलों की जांच कर 22 प्रतिशत लगान वृद्धि को गलत ठहराते हुए इसे घटाकर 6.03 प्रतिशत कर दिया।


इस सत्याग्रह आंदोलन के सफल होने के बाद वहां की महिलाओं ने वल्लभभाई पटेल को ‘सरदार’ की उपाधि प्रदान की। किसान संघर्ष एवं राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के अंर्तसबंधों की व्याख्या बारदोली किसान संघर्ष के संदर्भ में करते हुए गांधीजी ने कहा कि इस तरह का हर संघर्ष, हर कोशिश हमें स्वराज के करीब पहुंचा रही है और हम सबको स्वराज की मंजिल तक पहुंचाने में ये संघर्ष सीधे स्वराज के लिए संघर्ष से कहीं ज्यादा सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

 आजादी के बाद

यद्यपि अधिकांश प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ पटेल के पक्ष में थीं, गांधी जी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल जी ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और इसके लिये नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधान मंत्री एवं गृह मंत्री का कार्य सौंपा गया। किन्तु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के सम्बन्ध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी।


गृह मंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों (राज्यों) को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाये सम्पादित कर दिखाया। केवल हैदराबाद स्टेट के आपरेशन पोलो के लिये उनको सेना भेजनी पडी। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिये उन्हे भारत का लौह पुरूष के रूप में जाना जाता है। सन १९५० में उनका देहान्त हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अन्दर बहुत कम विरोध शेष रहा।


देसी राज्यों (रियासतों) का एकीकरण

मुख्य लेख: भारत का राजनीतिक एकीकरण

स्वतंत्रता के समय भारत में 562 देसी रियासतें थीं। इनका क्षेत्रफल भारत का 40 प्रतिशत था। सरदार पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही वीपी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था।पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी। वहाँ के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी। राज्य की सर्वाधिक जनता हिंदू थी और भारत विलय चाहती थी। नवाब के विरुद्ध बहुत विरोध हुआ तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गयी। नवाब भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर 1947 को जूनागढ भी भारत में मिल गया। फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा। हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी। वहाँ के निजाम ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा। वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे। अन्ततः भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में प्रवेश कर गयी। तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर 1948 में भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है। कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गयी। 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री मोदीजी और गृहमंत्री अमित शाह जी के प्रयास से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त हुआ। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और सरदार पटेल का भारत को अखण्ड बनाने का स्वप्न साकार हुआ। 31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के रूप में दो केन्द्र शासित प्रेदश अस्तित्व में आये। अब जम्मू-कश्मीर केन्द्र के अधीन रहेगा और भारत के सभी कानून वहाँ लागू होंगे। पटेल जी को कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि है। [4]


गांधी, नेहरू और पटेल


गांधीजी, पटेल और मौलाना आजाद (1940)

स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू व प्रथम उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल में आकाश-पाताल का अंतर था। यद्यपि दोनों ने इंग्लैण्ड जाकर बैरिस्टरी की डिग्री प्राप्त की थी परंतु सरदार पटेल वकालत में पं॰ नेहरू से बहुत आगे थे तथा उन्होंने सम्पूर्ण ब्रिटिश साम्राज्य के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था। नेहरू प्राय: सोचते रहते थे, सरदार पटेल उसे कर डालते थे। नेहरू शास्त्रों के ज्ञाता थे, पटेल शस्त्रों के पुजारी थे। पटेल ने भी ऊंची शिक्षा पाई थी परंतु उनमें किंचित भी अहंकार नहीं था। वे स्वयं कहा करते थे, "मैंने कला या विज्ञान के विशाल गगन में ऊंची उड़ानें नहीं भरीं। मेरा विकास कच्ची झोपड़ियों में गरीब किसान के खेतों की भूमि और शहरों के गंदे मकानों में हुआ है।" पं॰ नेहरू को गांव की गंदगी, तथा जीवन से चिढ़ थी। पं॰ नेहरू अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इच्छुक थे तथा समाजवादी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे।


देश की स्वतंत्रता के पश्चात सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री के साथ प्रथम गृह, सूचना तथा रियासत विभाग के मंत्री भी थे। सरदार पटेल की महानतम देन थी 562 छोटी-बड़ी रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारतीय एकता का निर्माण करना। विश्व के इतिहास में एक भी व्यक्ति ऐसा न हुआ जिसने इतनी बड़ी संख्या में राज्यों का एकीकरण करने का साहस किया हो। 5 जुलाई 1947 को एक रियासत विभाग की स्थापना की गई थी। एक बार उन्होंने सुना कि बस्तर की रियासत में कच्चे सोने का बड़ा भारी क्षेत्र है और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निजाम सरकार खरीदना चाहती है। उसी दिन वे परेशान हो उठे। उन्होंने अपना एक थैला उठाया, वी.पी. मेनन को साथ लिया और चल पड़े। वे उड़ीसा पहुंचे, वहां के 23 राजाओं से कहा, "कुएं के मेढक मत बनो, महासागर में आ जाओ।" उड़ीसा के लोगों की सदियों पुरानी इच्छा कुछ ही घंटों में पूरी हो गई। फिर नागपुर पहुंचे, यहां के 38 राजाओं से मिले। इन्हें सैल्यूट स्टेट कहा जाता था, यानी जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत को आखिरी सलामी दी। इसी तरह वे काठियावाड़ पहुंचे। वहां 250 रियासतें थी। कुछ तो केवल 20-20 गांव की रियासतें थीं। सबका एकीकरण किया। एक शाम मुम्बई पहुंचे। आसपास के राजाओं से बातचीत की और उनकी राजसत्ता अपने थैले में डालकर चल दिए। पटेल पंजाब गये। पटियाला का खजाना देखा तो खाली था। फरीदकोट के राजा ने कुछ आनाकानी की। सरदार पटेल ने फरीदकोट के नक्शे पर अपनी लाल पैंसिल घुमाते हुए केवल इतना पूछा कि "क्या मर्जी है?" राजा कांप उठा। आखिर 15 अगस्त 1947 तक केवल तीन रियासतें-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद छोड़कर उस लौह पुरुष ने सभी रियासतों को भारत में मिला दिया। इन तीन रियासतों में भी जूनागढ़ को 9 नवम्बर 1947 को मिला लिया गया तथा जूनागढ़ का नवाब पाकिस्तान भाग गया। 13 नवम्बर को सरदार पटेल ने सोमनाथ के भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया, जो पंडित नेहरू के तीव्र विरोध के पश्चात भी बना। 1948 में हैदराबाद भी केवल 4 दिन की पुलिस कार्रवाई द्वारा मिला लिया गया। न कोई बम चला, न कोई क्रांति हुई, जैसा कि डराया जा रहा था।


जहां तक कश्मीर रियासत का प्रश्न है इसे पंडित नेहरू ने स्वयं अपने अधिकार में लिया हुआ था, परंतु यह सत्य है कि सरदार पटेल कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर बेहद क्षुब्ध थे। नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था। भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, "रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।"


यद्यपि विदेश विभाग पं॰ नेहरू का कार्यक्षेत्र था, परंतु कई बार उप प्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में उनका जाना होता था। उनकी दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक वर्तमान समस्याओं का जन्म न होता। 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में पटेल ने चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान किया था और चीन का रवैया कपटपूर्ण तथा विश्वासघाती बतलाया था। अपने पत्र में चीन को अपना दुश्मन, उसके व्यवहार को अभद्रतापूर्ण और चीन के पत्रों की भाषा को किसी दोस्त की नहीं, भावी शत्रु की भाषा कहा था। उन्होंने यह भी लिखा था कि तिब्बत पर चीन का कब्जा नई समस्याओं को जन्म देगा। 1950 में नेपाल के संदर्भ में लिखे पत्रों से भी पं॰ नेहरू सहमत न थे। 1950 में ही गोवा की स्वतंत्रता के संबंध में चली दो घंटे की कैबिनेट बैठक में लम्बी वार्ता सुनने के पश्चात सरदार पटेल ने केवल इतना कहा "क्या हम गोवा जाएंगे, केवल दो घंटे की बात है।" नेहरू इससे बड़े नाराज हुए थे। यदि पटेल की बात मानी गई होती तो 1961 तक गोवा की स्वतंत्रता की प्रतीक्षा न करनी पड़ती।


गृहमंत्री के रूप में वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इन्हें भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) बनाया। अंग्रेजों की सेवा करने वालों में विश्वास भरकर उन्हें राजभक्ति से देशभक्ति की ओर मोड़ा। यदि सरदार पटेल कुछ वर्ष जीवित रहते तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता।


सरदार पटेल जहां पाकिस्तान की छद्म व चालाकी पूर्ण चालों से सतर्क थे वहीं देश के विघटनकारी तत्वों से भी सावधान करते थे। विशेषकर वे भारत में मुस्लिम लीग तथा कम्युनिस्टों की विभेदकारी तथा रूस के प्रति उनकी भक्ति से सजग थे। अनेक विद्वानों का कथन है कि सरदार पटेल बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन के टाइम्स ने लिखा था "बिस्मार्क की सफलताएं पटेल के सामने महत्वहीन रह जाती हैं। यदि पटेल के कहने पर चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल के हालात आज जैसे न होते। पटेल सही मायनों में मनु के शासन की कल्पना थे। उनमें कौटिल्य की कूटनीतिज्ञता तथा महाराज शिवाजी की दूरदर्शिता थी। वे केवल सरदार ही नहीं बल्कि भारतीयों के हृदय के सरदार थे।


लेखन कार्य एवं प्रकाशित पुस्तकें

निरन्तर संघर्षपूर्ण जीवन जीने वाले सरदार पटेल को स्वतंत्र रूप से पुस्तक-रचना का अवकाश नहीं मिला, परंतु उनके लिखे पत्रों, टिप्पणियों एवं उनके द्वारा दिये गये व्याख्यानों के रूप में बृहद् साहित्य उपलब्ध है, जिनका संकलन विविध रूपाकारों में प्रकाशित होते रहा है। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो सरदार पटेल के वे पत्र हैं जो स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में दस्तावेज का महत्व रखते हैं। 1945 से 1950 ई० की समयावधि के इन पत्रों का सर्वप्रथम दुर्गा दास के संपादन में (अंग्रेजी में) नवजीवन प्रकाशन मंदिर से 10 खंडों में प्रकाशन हुआ था। इस बृहद् संकलन में से चुने हुए पत्र-व्यवहारों का वी० शंकर के संपादन में दो खंडों में भी प्रकाशन हुआ, जिनका हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। इन संकलनों में केवल सरदार पटेल के पत्र न होकर उन-उन संदर्भों में उन्हें लिखे गये अन्य व्यक्तियों के महत्वपूर्ण पत्र भी संकलित हैं। विभिन्न विषयों पर केंद्रित उनके विविध रूपेण लिखित साहित्य को संकलित कर अनेक पुस्तकें भी तैयार की गयी हैं। उनके समग्र उपलब्ध साहित्य का विवरण इस प्रकार है:-


हिन्दी में

सरदार पटेल : चुना हुआ पत्र-व्यवहार (1945-1950) - दो खंडों में, संपादक- वी० शंकर, प्रथम संस्करण-1976, [नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद]

सरदारश्री के विशिष्ट और अनोखे पत्र (1918-1950) - दो खंडों में, संपादक- गणेश मा० नांदुरकर, प्रथम संस्करण-1981 [वितरक- नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद]

भारत विभाजन (प्रभात प्रकाशन, नयी दिल्ली)

गांधी, नेहरू, सुभाष (" ")

आर्थिक एवं विदेश नीति (" ")

मुसलमान और शरणार्थी (" ")

कश्मीर और हैदराबाद (" ")

In English

Sardar Patel's correspondence, 1945-50. (In 10 Volumes), Edited by Durga Das [Navajivan Pub. House, Ahmedabad.]

The Collected Works of Sardar Vallabhbhai Patel (In 15 Volumes), Ed. By Dr. P.N. Chopra & Prabha Chopra [Konark Publishers PVT LTD, Delhi]

 पटेल का सम्मान


सरदार पटेल राष्ट्रीय स्मारक का मुख्य कक्ष

अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र रखा गया है।

गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में सरदार पटेल विश्वविद्यालय

सन १९९१ में मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

इसकी ऊँचाई 240 मीटर है, जिसमें 58 मीटर का आधार है। मूर्ति की ऊँचाई 182 मीटर है, जो स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से लगभग दोगुनी ऊँची है। 31 अक्टूबर 2013 को सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137वीं जयंती के मौके पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार वल्लभ भाई पटेल के एक नए स्मारक का शिलान्यास किया। यहाँ लौह से निर्मित सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक विशाल प्रतिमा लगाने का निश्चय किया गया, अतः इस स्मारक का नाम 'एकता की मूर्ति' (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है।प्रस्तावित प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप 'साधू बेट' पर स्थापित किया गया है जो केवाडिया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के बीच स्थित है।


2018 में तैयार इस प्रतिमा को प्रधानमंत्री मोदी जी ने 31 अक्टूबर 2018 को राष्ट्र को समर्पित किया। यह प्रतिमा 5 वर्षों में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुई है। 

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी भारत के प्रथम उप प्रधानमन्त्री तथा प्रथम गृहमन्त्री वल्लभभाई पटेल को समर्पित एक स्मारक है, जो भारतीय राज्य गुजरात में स्थित है।गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल के जन्मदिवस के मौके पर इस विशालकाय मूर्ति के निर्माण का शिलान्यास किया था। यह स्मारक सरदार सरोवर बांध से 3.2 किमी की दूरी पर साधू बेट नामक स्थान पर है जो कि नर्मदा नदी पर एक टापू है। यह स्थान भारतीय राज्य गुजरात के भरुच के निकट नर्मदा जिले में स्थित है।

(संकलन)


रविवार, 25 अक्तूबर 2020

प्यारी हिन्दी



"प्यारी हिन्दी"

जन-जन के राह पे

चल पड़ी  है प्यारी 'हिंदी',  

करके सोलह श्रृंगार ,

'गद्य','पद्य' और 'व्याकरण', 

लेकर अपने साथ l

माथे पर 'अनुस्वार' की बिंदी, 

आँखों में सुंदर -सी काजल l

'पूर्ण विराम' सिंदूर लगाकर, 

चल पड़ी है हिन्दी l

कानो में हैं 'विसर्ग 'के छल्ले, 

होठो पर 'कोष्ठक' की लाली l

मुस्कान में देखो झलक रही है, 

'वर्ण'-दन्तो की छटा निराली ll

'छायावादी' यौवन उसका, 

देखो कैसी इठला रही है l

'श्रृंगार-रस' में लिपटा आँचल 

'छंद'-छंद मन में मुस्कुरा रही है ll

हाथों में खनकती 'चौपाई', 

मिश्री कानो में घोल रही है l

'दोहे' छनकाती पाँवो में, 

पल-पल चल पड़ी है हिंदी l

'अलंकारों' से सजी-धजी है 

हे मादक 'हिंदी' सुकुमारी !

'भारत' जैसे प्रियतम से है 

आस लगाये आतुर  हिन्दी  l

                 भानु प्रकाश नारायण

            मुख्य यातायात निरीक्षक

समय पालन में नियंत्रक की भूमिका

 समय पालन सुनिश्चित करने में नियंत्रक की भूमिका

1. रेकलिंक से भलीभांति परिचित होना।

2. आपातकाल में ओवरलैप रेक चलवाना।

3. यदि ओवरलैप रेक नहीं है तो प्रथम आया प्रथम गया पद्धति को अपनाना।

4. गाड़ी सेवा को बनाए रखने के लिए स्क्रैच रेक का प्रयोग।

5.यदि संभव नहीं है तो आने वाला रेक जाने वाले रेक के रूप में कार्य करेगा।

6. गाड़ी परीक्षण  स्टाफ को समय से बताना, जिससे बिलंब को कम किया जा सकता है।

7. गाड़ी के सामान्य भार के बारे में जानकारी रखना।

8.सेक्सन कोचों के जोड़ने व घटाने में मदद करने के लिए विशेष कोचों के संचलन का ज्ञान

9. सेक्सनल कोचों के संचालन की पूरी जानकारी ।

10.यदि सेक्शनल कोच देरी से चल रहे हैं तो अतिरिक्त कोचों को सेक्शनल कोचों के रूप में प्रयोग करना।

11. सिकमार्क कोचेज के बदले में प्रयोग करना ।

12. यदि डाक डिब्बे सिक होते हैं तो अतिरिक्त कोचों की व्यवस्था करना।

13. प्रस्थान समय से कम से कम एक घंटा पहले प्लेटफार्म पर रेक  लगवाना।

14. यात्री गाड़ियों को लेने के संदर्भ में स्टेशनों का मार्गदर्शन।

15. यदि  यात्री गाड़ी 30 मिनट से ज्यादा विलंब से चल रही है स्टेशनों पर अग्रिम रूप से सूचना देना।

16. लोको पायलट को अधिकतम स्वीकृत गति से चलने की सलाह देकर गाड़ी को मेकअप करवाना।

17. क्रॉसिंग के समय अधिकतम लाभ लेना।

18. विभिन्न प्रकार के लोको को उनके नंबर के साथ उनकी कार्यक्षमता को जानना।

19. स्टैबलिंग, लगान ,उतरान के विलंब को कम करने के लिए स्टेशनों को अग्रिम से सूचना।

20. क्रू दल के कार्य के घंटों को जानना।

21. इंजनों में इंधन की मात्रा को जानना।

22.मेन लाइन को बंद नहीं करना चाहिए।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

अंधकार से संघर्ष

 अंधकार से संघर्ष


सृष्टि में अंधकार और प्रकाश दोनों है। विषमता, कठिन परिस्थितियां अँधेरी रात के समान है तो कर्मठता, सदाचार, विवेकयुक्त ज्ञान, स्नेह, प्रेम, सद्भाव आदि ऐसे दीए हैं कि इनमें से कोई एक भी दीया जलाते ही आसपास रोशनी हो जाती है। यह दो सकते हैं की रात-दिन सृष्टि का एक ऐसा चक्र है जो निरंतर चलता रहता है। रात के सब नुक़सान ही हैं,ऐसा नहीं। उसी प्रकार जीवन में कठिनाइयों का अंधेरा यदि आ ही जाए तो उसका संयत प्रभाव से सामना करने से साहस का भाव पैदा होता है। कठिन परिस्थितियों में बिना विचलित हुए उसमें से निकलने की योजना बनानी चाहिए। प्रायः महापुरुषों ने ऐसा ही काम किया है। जो व्यक्ति नकारात्मकता से सकारात्मकता खोजना चाहेगा तो उसमें से ही आगे बढ़ने के रास्ते निकल आएंगे। 


त्रेतायुग में भगवान श्रीराम के भक्त हनुमानजी छल-छद्म रूपी अंधकारग्रस्त लंका में माता सीता की खोज के लिए कूद पड़ते हैं। लंका में चारों तरफ़ विपरीत हालात थे, लेकिन वे विचलित नहीं हुए। इसी दृढ़ता के बीच उन्हें सकारात्मकता मिल गई। विभीषण से मुलाक़ात हो गई। उस काल के सर्वाधिक नकारात्मक महल लंका के ध्वस्तीकरण का यह कार्य निर्णयात्मक क़दम साबित हुआ। हमारे ऋषियों ने नवरात्र, दीपावली की रात्रि को जागरण के लिए इसी लिए निर्धारित किया कि हमें जीवन में कठिनाइयों, विषमताओं के अंधेरे में सोना नहीं चाहिए, बल्कि इस समय अवसरों को जागृत करने के उपाय ढूंढने चाहिए। यह सद्गुणों से ही संभव है।

भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण का जो प्रकाश युगों बाद भी हमें मिल रहा है, वह उनके अंधेरे से लड़ने के कारण ही मिल रहा है। जब भी किसी व्यक्ति के मन में लोकहित के भाव जागृत होते हैं, तब वह समाज के प्रकाशस्वरूप हो जाता है। फिर वह सिर्फ़ अपने जीवन को ही नहीं, कई पीढ़ियों को आलोकित करता है। हमारे ऋषियों ने इसीलिए 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' का महामंत्र दिया है।  


बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

सुख का मार्ग

    सुख का मार्ग

    विधाता कि सृष्टि द्वंद्वात्मक है। यहाँ सूखा है तो दुख भी, लाभ है तो हानि भी, यश है तो अपयश भी और जीवन है दो मरण भी। इस संसार में सुख-दुख धूप-छाँव की तरह हैं ,जो सदैव स्थान बदलते रहते हैं। संसार में कोई ऐसा नहीं जो इनसे बच सका हो। इसलिए इस दुनिया में सुखी वही है जो इन दोनों को सहेज रूप में लेता है और विधाता का दिया हुआ उपहार मानकर स्वीकार करता है। गीता में तो इस चराचर जगत को दुखालय ही कहा गया है। इसलिए इसे मानव-धर्म मानकर जीवन जीने का अभ्यास कर लेना चाहिए। इसके अलावा सुखी रहने का अन्य कोई मार्ग भी नहीं है। अगर दुख न हो तो मानव सुख का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकेगा। सचमुच सुख का अस्तित्व दुख पर टिका हुआ है। दुख की एक तरह से मनुष्य का उपकारक है।

    यह मानव-जीवन रणभूमि है जहाँ मनुष्य को सुख और दुख दोनों से लड़ना पड़ता है। इस द्वंद्वात्मक युद्ध में हम कई बार हारने लगते हैं। हताश और निराश होकर जीवन के रण में अर्जुन की तरह हथियार डाल देते हैं, जो कर्मवीर दृढ़संकल्पी मनुष्य को शोभा नहीं देता। यह ज़रूरी नहीं कि हर बार भगवान श्रीकृष्ण साक्षात उपस्थित हों। उनका ज्ञान, कर्म और भक्ति का संदेश दुखों से लड़ने में आज भी हमारा सबसे बड़ा संबल है।

    मानव जीवन एक परीक्षा स्थल भी है। जहाँ दुख और कष्ट कदम-कदम पर हमारी परीक्षाएं लेते रहते है। बस ऐसे समय धैर्य और साहस ही कवच बनकर मनुष्य की रक्षा कर सकते हैं। जीवन में हमें या स्मरण रखना चाहिए कि सुबह का मार्ग मार्ग हमेशा दुख से होकर गुज़रता है। जिसने दुख भी हँसकर जीना सीख लिया, वही सच्चे सुख का आनंद ले सकता है। ज़ाडा-गर्मी की तरह      सुख- दुख में भी सम रहने वाला व्यक्ति ही जीवन के सच्चे मर्म को समझता है। जीवन में यही समरसता ज़िंदगी को सच्ची परिभाषा है। यही गीता का संदेश है और यही मनुष्य का धर्म है।


प्रेरणा

 प्रेरणा


मानवीय जीवन अनेकानेक समस्याओं एवं चुनौतियों से भरा हुआ है। कार्य क्षेत्र कोई भी हो, हर जगह बाधा एवं चुनौतियां विद्यमान हैं। इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता कि जितना बड़ा लक्ष्य होगा, उसकी राह में उतनी ही विकट चुनौतियां भी होंगी। जैसे किसी छोटी पर्वतमाला पर पहुंचना है तो उतनी चुनौतियों का सामना नहीं करना होगा, जितनी चुनौतियों का पर्वतारोहियों को संसार की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट तक पहुंचने में सामना करना पड़ता है । विश्व में तमाम बड़े आविष्कार शुरुआती असफलताओं की चुनौतियों से निपटने के बाद ही सफलता के लक्ष्य तक पहुंच सके हैं।


इसमें कोई संदेह नहीं कि हम सभी जीवन में सफलता और उच्च स्थान चाहते हैं, परंतु सभी उसे प्राप्त नहीं कर पाते। वास्तव में जो व्यक्ति सकारात्मक दृष्टिकोण, उत्साही और धैर्यवान होते हैं, वहीं कुछ बड़ा कर पाते हैं। इसमें प्रेरणा अत्यंत अहम भूमिका निभाती है। सफलता की गाथाओं का हमारे इतिहास स्वयं इसका साक्षी है। मानवीय जीवन का कोई भी क्षेत्र हो, होश में सफलता के लिए यह तत्व आवश्यक हैं। इनमें भी प्रेरणा बहुत आवश्यक है, जिसके अभाव में लक्ष्यों की प्राप्ति मुश्किल है। जिन्होंने किसी से प्रेरणा को अपने जीवन का आधार बनाया, वे निश्चित ही सफलता प्राप्त करते हैं। सत्य तो यही है की प्रेरणा और उत्साह ही जीवन में सफलता की असल पूंजी है। उत्साह और प्रेरणा से ही बिगड़े हुए काम भी बन जाते हैं। 


सत्य तो यह भी है कि उत्साह से भरा मन एक नई सोच का निर्माण करता है, जिसे हम नवाचार कह सकते हैं। जब हमारा मन-मस्तिष्क हर बाधा से लड़ने को तैयार हो जाता है, तभी राम में आई सभी बाधाओं को दूर करने का मंत्र मिल जाता है। इस प्रकार यदि हम महापुरूषों से प्रेरणा लेकर धैर्य और उत्साह एवं दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़े तो किसी भी चुनौती को पूर्ण कर सकते हैं।


गुरुवार, 15 अक्तूबर 2020

भय का महत्व

 भय का महत्व


    संसार में कोई भी वस्तु या भाव परिस्थिति के अनुरूप ही अच्छा या बुरा होता है ‌। प्रायः भय के भाव को एक नकारात्मक तत्वों के रूप में ही स्वीकार किया जाता है, परंतु यह तथ्य पूर्णरूपेण सत्य नहीं है। भय का नकारात्मक या सकारात्मक होना व्यक्ति विशेष या परिस्थिति के सापेक्ष होता है। जड़, मूढ़ और खल व्यक्ति के मन में भय सामाजिक नियंत्रण और व्यवहार नियंत्रण के लिए आवश्यक है। इसीलिए भगवान श्री राम द्वारा तीन दिनों तक समुद्र की प्रार्थना के बाद भी जब उसने अपनी जड़ता नहीं छोड़ी तो भगवान श्रीराम को बाण का संधान करना पड़ा और उन्होंने कहा कि बिना भय के प्रीति नहीं उपजती। यदि इसी तथ्य को दृष्टिगत रखा जाए तो अपराधी, दुष्ट या रूढ़िग्रस्त व्यक्ति को सही मार्ग पर लाने में भय का बहुत महत्व है। 


    वास्तव में भय वह भाव है जो हमारे अंतःकरण को नियंत्रित करता है। मनुष्य के नियंत्रण के दो साधन होते हैं, बाहृय और आंतरिक। बाहृय साधन में पुलिस या कानून का भय रहता है, जबकि आंतरिक साधनों में धर्म,लोक आदि का भय। ये दोनों ही साधन भय द्वारा सामाजिक नियमन स्थापित करते हैं। इस दृष्टि से भय की महत्ता स्पष्ट होती है । मन से भय का विशरण होते ही व्यक्ति के व्यवहार के उच्चछृंखल होने की संभावना बढ़ जाती है।


    तात्पर्य यह है कि हृदय से भय के मिट जाने पर सांसारिक लोक व्यवहार और लोक प्रेम के नष्ट हो जाने की संभावना रहती है। यदि भगवान श्री राम भय न दिखाते तो क्या आततायी रावण का अंत हो पाता और क्या धरती निशाचर विहीन हो पाती? यदि विद्यार्थी के अंदर परीक्षा में असफल होने का भय ना हो तो समाज में अपराधों की संख्या की गणना भी मुश्किल हो जाएगी। भविष्य के भय से संसार के साधारण जन लोक रीति और नीति का पालन करते हैं। अतः समाज में व्यवस्था बनाए रखने में भय भी महत्व रखता है।


बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

योग और स्वाध्याय

                                                             योग और स्वाध्याय

    महर्षि पतंजलि ने लिए पूर्ण योग की आठ  सीढ़ियाँ बनायी हैं इन्हें अष्टांग योग कहा जाता है।  इनके अनुसरण से मनुष्य जीवन को सार्थक बना लेता है।  इसकी पहली सीढ़ी है यम और दूसरी है नियम।  यम में साधक को सत्य ,अहिंसा ,ब्रह्मचर्य  ,अस्तेय और अपरिग्रह तथा नियम में शौच संतोष ,तप , स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अपनाना होता है। यम और नियम का उद्देश्य से मनुष्य की मानसिक स्थिति को अवगुणों से मुक्त कर उसे ईश्वर साधना के लिए तैयार करना है।  इस पूरे उपक्रम में स्वाध्याय का विशेष स्थान है। स्वाध्याय का तात्पर्य वास्तव में धर्मग्रंथों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान के संदर्भ में स्वयं का अध्ययन करने से हैं। ऐसे ही प्रमुख ग्रंथों में से एक गीता में इसका मर्म समाया हुआ है। गीता के अनुसार प्रत्येक जीव में ईश्वरीय अंश विद्यमान् है। इसलिए मनुष्य को बाहरी संसार में ईश्वर को खोजने के बजाय अपने भीतर ही वह खोज करनी चाहिए। इसी प्रकार आध्यात्मिक ज्ञान का अलग अलग धर्म ग्रंथों में भी प्राप्त होता है। 

     स्वाध्याय में मनुष्य उपरोक्त ज्ञान के प्रकाश में स्वयं का अध्ययन करता है कि क्या वह उचित ज्ञान के अनुसार जीवन निर्वाह कर रहा है ?यदि वह अपने व्यवहार में कुछ भिन्नता पाता है तो उसे स्वाध्याय के द्वारा सुधारने का प्रयास करता है। इस प्रकार स्वाध्याय के द्वारा मनुष्य स्वयं मानवी दुर्गुणों से मुक्त होकर ईश्वर से जुड़ने के लिए तैयार होता है। इसके बाद ही वह योग द्वारा इस प्रक्रिया को पूरा करता है। स्वाध्याय का महत्व समझते हुए या परम आवश्यक है कि सादगी आध्यात्मिक ज्ञान में श्रद्धा हो ,क्योंकि श्रद्धा के द्वारा ही वह किसी तथ्य को स्वीकार करता है। और जब वह उसे समझ कर ग्रहण कर लेता है तब वह ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार स्वाध्याय योग के लिए बहुत ही ज़रूरी है।  इसलिए प्रत्येक मनुष्य की योग में स्थित होने के लिए स्वाध्याय को अपने जीवन में ज़रूर अपनाना चाहिए। स्वाध्याय के द्वारा वह हर समय योगी है।  


अमूल्य जीवन।

                                                                 अमूल्य जीवन

    कलयुग में मनुष्य बहुत जल्दी हताश और निराश हो जाता ह।  इस भौतिकतावादी युग में मानव हर वस्तु जल्द से जल्द प्राप्त कर लेना चाहता है।  इस चाहत के चलते उसे जब अभीष्ट की प्राप्ति नहीं हो पाती तो वह निराश हो जाता है। जब वह यह देखता है कि उसके सामने अन्य सफल हो गए और होते भी जा रहे हैं, पर ऐसी सफलता उसे नहीं मिल रही तो फिर वह इतना व्यथित हो जाता है कि अपने अमूल्य जीवन तक को ही नष्ट करने की ठान लेता है। 


      ऐसे लोगों को थोड़ा रुककर विचार करने की आवश्यकता है। उन्हें ऐसा विचार करना चाहिए कि यह संसार परिवर्तनशील है। यहां परिस्थितियां बनती और बिगड़ती रहती हैं।  समय एक समान नहीं रहता। कभी जीवन में अनुकूलता आती है तो कभी प्रतिकूलता।  यही संसार का नियम है। यह प्राप्त मानव जीवन प्रकृति  की अमूल्य देन है इसे हमने अपने पूर्व में किए गए कर्मों के प्रसाद के रूप में प्राप्त किया है।  यह मानव जीवन व्यर्थ में गवाने  के लिए नहीं है।  देवता भी मनुष्य शरीर प्राप्त करने की इच्छा रखते हैं।  ऐसे दुर्लभ एवं उपयोगी मानव जीवन को हम इंद्रिय सुख की लालसा में नष्ट करते चले जाते हैं।  इस प्राप्त मानव शरीर का सदुपयोग परमात्मा की भक्ति करने में है। परमात्मा ही हमें सुख-शांति एवं भवसागर पार करने का मौका प्रदान कर सकते हैं। पूर्ण तत्वदर्शी संत परम सुखदाई परमात्मा से मिला करते हैं। तत्वदर्शी संत की शरण में जाकर उन्हें अपना गुरु बनाकर, उनके बताए गए मार्ग पर चलने के बाद ही हमें सच्ची भक्ति प्राप्त हो सकती है।  

 हमें आज ही प्राप्त इस अमूल्य मानव जीवन को नष्ट न करने के लिए प्रण करना चाहिए।  देश और समाज के परिदृश्य को देखें तो आज मानव जीवन पर वैसे ही अदृश्य संकट छाया हुआ है। इसीलिए मानव को अनंत ब्रह्मांड के रचयिता की शरण ग्रहण कर अपने आत्मबल को बनाए रखते हुए, स्वयं के जीवन को सुरक्षित रखना चाहिए।  


शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

राजभाषा समीक्षा बैठक- 29.09.2020

दिनांक 29.09.2020 को प्रमुख मुख्य परिचालन प्रबंधक श्री अनिल कुमार सिंह की अध्यक्षता में परिचालन विभाग की वर्चुअल राजभाषा समीक्षा बैठक का आयोजन किया गया। इस दौरान परिचालन विभाग के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लाभार्थ माइक्रोसॉफ्ट टीम्स में अकाउंट बनाने, अपनी टीम बनाने और बैठक निर्धारित करने के संबंध में एक तकनीकी कार्यशाला के तहत लाइव डेमो दिया गया। इस अवसर पर मुख्य मालभाड़ा परिवहन प्रबंधक श्री बिजय कुमार, मुख्य यात्री परिवहन प्रबंधक श्री आलोक कुमार सिंह सहित परिचालन विभाग के सभी अधिकारी एवं पर्यवेक्षकीय कर्मचारी उपस्थित रहे। बैठक में स्वागत संबोधन एवं धन्यवाद ज्ञापन परिचालन विभाग के राजभाषा संपर्क अधिकारी श्री सुमित कुमार ने दिया।

बैठक की रिकार्डिंग देखने के लिए कृपया चित्र पर क्लिक करें। 




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गुरुवार, 17 सितंबर 2020

जिंदगी

अहले सुबह एक झलक जिंदगी को देखा ,

वो अनजाने में यूं ही गुनगुना रही थी,

आने जाने वालों को बड़े गौर से देख कर ,

वह आंख मिचौली कर मुस्कुरा रही थी,

लगा कि वह मुझसे भी कुछ पूछ रही है,

हम दोनों क्यों खफा खफा हैं,

मैंने पूछ लिया उससे,

क्यों इतना दर्द दिया कमबख्त तूने,

वह हंसी और बोली- मैं जिंदगी हूं पगले

तुझे पल पल जीना सिखा रही है।



भानु प्रकाश नारायण
(मुख्य यातायात निरीक्षक)
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सोमवार, 3 अगस्त 2020

सफल जीवन

 सफल जीवन 

जीवन में सफलता ,उच्च स्तरीय रहन -सहन, प्रचुर धन दौलत की अपेक्षा अधिकांश लोगों को होती है। इस तरह की इच्छा का होना कोई ख़राब तो नहीं, लेकिन इसके लिए कड़ी मेहनत की ज़रूरत होती है।  प्रायः देखने में आता है कि अधिकांश लोग इसी मामले में विफल हो जाते हैं। वे इस तरह की सारी उपलब्धियां रातों-रात प्राप्त करना चाहते हैं। ऐसे लोग इस भाव के चलते परिश्रम धैर्य की जगह उतावले होकर नकारात्मक रास्ता अपनाने लगते हैं। छल ,धोखा, अनैतिक ढंग से कुछ हासिल कर तो लेते हैं ,लेकिन धीरे धीरे उसमें एक अज्ञात भय भी समाने लगता है। किसी भी उपलब्धि के लिए ठोस आधार उसी प्रकार होना ज़रूरी है जिस प्रकार किसी भवन या महल के लिए मज़बूत आधार की ज़रूरत होती है।  जीवन में उपलब्धियों के लिए धैर्य और धर्म का रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए. दूसरों का हिस्सा हड़प कर प्राप्त उपलब्धियां दोष पूर्ण होती है. इससे परिवार से लेकर समाज तक में कटुता और वैमनस्य  का परिवेश बनता है।  

स्थिति यह है कि हर कोई दूसरे का विश्लेषण तो कर रहा है और स्वयं आत्मविश्लेषण पर उसका ध्यान नहीं जा रहा है । यदि कोई व्यक्ति दूसरे के घर के कूड़े कर-कट की सफ़ाई करता है तो उस व्यक्ति का तो घर साफ़ हो जाएगा ,पर अपने घर में गंदगी बनी रहेगी. होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपना घर साफ़ करने में जुटे। यही बात आचरण के लिए भी ज़रूरी है।  व्यक्ति इस बात की चिंता छोड़कर कि कौन कैसा है वह अपने स्वभाव और आचरण को उच्चतम बनाएँ तो उसकी ही छवि उच्चतम होगी  और उसकी ख्याति बढ़ेगी. कोई व्यक्ति उच्च उपलब्धियां पाने के लिए सुनियोजित तरीक़े से कार्य करें तो उसे सफलता ज़रूर मिलेगी।  विद्वानों ने कहा है कि  किसी क्षेत्र में  प्रयत्न करने से भी मनोरथ पूरे नहीं हो रहे हैं तो ज़रूर प्रयत्न में ही कोई दोष होगा। व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने प्रयत्न में सुधार कर सफलता के मार्ग पर आगे बढ़ें।  


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रविवार, 26 जुलाई 2020

आत्मबल

आत्मबल 
हमारी आंतरिक शक्ति हमारे आत्मबल कि द्योतक है। यह बल जितना मजबूत होगा, हमारी इच्छा शक्ति उतनी अधिक दृढ़ होगी। हमारी कार्यक्षमता बढ़ेगी। विपरीत परिस्थितियों में लिए गए निर्णय सार्थक सिद्ध होंगे। आत्म बल अवसाद को पैदा होने से रोकता है। इससे हम नकारात्मकता के जाल में फंसने से बचते हैं । यदि किसी व्यक्ति का आत्मबल जागृत कर दिया जाए, तो उसमें असंभव को संभव करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। हमारा इतिहास भी अनेक ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जिसमें आत्मबल की शक्ति से चमत्कारी कार्यों को अंजाम दिया गया। माता सीता की खोज में निकले पवनसुत हनुमान विशाल समुद्र को देखकर हताश हो जाते हैं। उन्हें उसे पार करने की कोई युक्ति नहीं सूझती। वह समुद्र की लहरों के सम्मुख स्वयं को विवश अनुभव करते हैं। लेकिन तभी जामवंत जी उनके आत्मबल को जागृत करते हैं। उन्हें उनकी क्षमताओं से अवगत कराते हैं। हनुमान जी का सुप्त आत्मबल जागृत हो जाता है। वह ऊंची उड़ान भरते हैं। देखते ही देखते विराट सिंधु को पार कर लेते हैं। आत्म बल के चमत्कार का उदाहरण महाभारत में भी है। भगवान श्री कृष्ण द्वारा पांडवों का आत्मबल जागृत किया जाता है। जिससे उनके भीतर कौरवों की विशाल सेना को परास्त करने का साहस उत्पन्न हो जाता है । अंत में पांडव महाभारत का धर्म युद्ध जीत लेते हैं। हमें अपना आत्म बल महसूस करना आवश्यक है। हम उसे विस्मृत कर चुके हैं। इसी कारण हमें बहुत जल्द अवसाद घेर लेता है। हम आत्महत्या जैसा पाप कर्म कर बैठते हैं। आत्मबल ही धैर्य जैसे गुणों का विकास करता है। हम अपने लक्ष्यसे नहीं भटकते। मार्ग कितना भी कठिन हो हम मंजिल तक अवश्य पहुंचते हैं। आत्मबल योगिक क्रियाओं द्वारा जागृत किया जा सकता है। अच्छा साहित्य, महापुरुषों की जीवनियों , उनका कठिन संघर्ष, और उनके प्रेरक प्रसंग इत्यादि हमारे आत्मबल को कई गुना बढ़ा देते हैं। उनसे लाभ उठाना चाहिए।
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शनिवार, 11 जुलाई 2020

मन की अशांति

अशांति अतीत की यादें और भविष्य की कल्पना ही मन में अशांति को जन्म देकर इसे पालित वा पोषित करती हैं। वर्तमान कभी भी अशांत नहीं होता है। कल क्या हुआ था, और कल क्या होगा, इसी को यदि हम अपने मस्तिष्क से निकाल दें, या ना आने दे तो, मस्तिष्क में केवल वर्तमान ही शेष रह जाएगा, जो मन की पूर्ण शांति की स्थिति होगी। मानव मन का यह प्राकृतिक नियम होता है कि जिस बात को लेकर हम सो जाते हैं वही बात लिए हुए हम सुबह जागते हैं। यदि रात में किसी चिंता को लेकर हम सोए हैं, तो सुबह जागने के समय ही वह चिंता मस्तिष्क के द्वार पर प्रतीक्षा करती हुई खड़ी होती है। लेकिन जो व्यक्ति अपने और अपने चित्त के बीच में अतीत और भविष्य को नहीं लाता है उसका चित्त एकदम निर्मल और शांत हो जाता है। जीवन में कभी भी कोई अशांति नहीं होगी, यदि हम चित्त के साथ बिना कोई सोच-विचार के रहना सीख लेते हैं। फिर हम जो भी कार्य करेंगे उसमें हमारा मन पूरी तरह से लगेगा । इसी से हृदय में प्रबल शांति अनुभव होती है। ध्यान की क्रिया में भी कुछ ऐसा ही होता है, जिसमें हमारा चित्त पूरी तरह से लीन हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति अपने काम के प्रति एकदम बहने लगता है, तो ऐसा काम भी बड़े-बड़े योगी महात्माओं द्वारा किए जा रहे ध्यान के समान ही हो जाता है। किसी काम के प्रति इस प्रकार का बहना हमें ईश्वर के करीब लाता है । हम अशांत इसलिए होते हैं क्योंकि हमारे भीतर कुछ बनने की महत्वाकांक्षा है। जिसकी दौड़ काफी गहरी है। व्यक्ति यदि जीवन के साथ आत्मलीन होना चाहता है, तो उसे अपने अंदर कुछ ना होने की भावना को विकसित करना होगा तथा कुछ होने की दौड़ से अपने को अलग करना होगा। यदि कोई ऐसा करने में सफल हो जाता है तो वह दिन दूर नहीं होगा जब वह जो चाहेगा वह अनायास ही होना शुरू हो जाएगा। अशांति को मिटाने के लिए ध्यान साधना एक कारगर साधन हो सकता है। ध्यान और प्राणायाम के द्वारा हम मन मस्तिष्क में आने वाले कष्टकारी विचारों को काटते हैं। या यूं कहें कि जैसे हम घर में झाड़ू लगाकर धूल अलग करते हैं, या नहाते समय साबुन लगा के शरीर के मैल को दूर करते हैं। उसी तरह से हम मन के मैल को दूर करने के लिए ध्यान-प्राणायाम करते हैं। सांसों के द्वारा मन में झाड़ू लग जाता है, और मन के अंदर जो पीड़ा देने वाले विचार होते हैं वह दूर हो जाते हैं। ध्यान-साधना हेतु आध्यात्मिक गुरु द्वारा तकनीकी दी जाती है, ताकि हम मन के मैल को दूर कर सकें। इसके लिए आर्ट ऑफ लिविंग के प्रणेता श्री श्री रविशंकर जी द्वारा अनुसंधािनित सुदर्शन क्रिया एक बहुत ही अच्छी क्रिया है, जिसका मैं स्वयं पालन करता हूं। और यह कह सकता हूं कि यह मन के मैल को दूर करने में बहुत हद तक सहायक है। इसी तरह से जग्गी वासुदेव सद्गुरु जी द्वारा इनर इंजीनियरिंग नाम से एक क्रिया सिखाई जाती है, जिसके बारे में भी बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिलती है। सभी गुरुओं ने अपने अपने तरीके से मन में पीड़ा की गहरी छाप को मिटाने के तरीके बताए हैं। इसमें योगदा सत्संग मंडल रांची के प्रणेता योगानन्द जी ने भी एक क्रिया विकसित की है जिसका नियमित अभ्यास करके मन के मैल को हटाया जा सकता है। मन में अच्छे विचारों का पोषण हो और बुरे विचार जितनी जल्दी हो सके दूर हो जाएं तो शांति जल्दी आ सकती है। बुरे विचार क्या हैं इसके बारे में भी बहुत साहित्य उपलब्ध है लेकिन जो सबसे ज्यादा प्रभावित करने वाला विचार है ,वह है किसी के द्वारा की जाने वाली निंदा या अपमान। यह निंदा या अपमान बहुत आसानी से मन से उतरता नहीं है। और कई बार तो यह बहुत खतरनाक रूप ले लेता है। जिसने निंदा की होती है उसका प्राण लेकर ही समाप्त होती है इसलिए बुरे विचारों से निजात पाना अत्यंत आवश्यक है।

रविवार, 5 जुलाई 2020

ज़िन्दगी

जिन्दगी
समुद्र के किनारे एक लहर आई। वो एक बच्चे की चप्पल अपने साथ बहा ले गई। बच्चा ने रेत पर अंगुली से लिखा-“समुद्र चोर है।”

उसी समुद्र के दूसरे किनारे पर कुछ मछुआरों ने बहुत सारी मछली पकड़ी। एक मछुआरे ने रेत पर लिखा-“समुद्र मेरा पालनहार है।”

एक युवक समुद्र में डूब कर मर गया। उसकी मां ने रेत पर लिखा-“समुद्र हत्यारा है।”

दूसरे किनारे पर एक गरीब बूढ़ा, टेढ़ी कमर लिए रेत पर टहल रहा था। उसे एक बड़ी सीप में अनमोल मोती मिला। उसने रेत पर लिखा-“समुद्र दानी है।”

अचानक एक बड़ी लहर आई और सारे लिखे को मिटा कर चली गई।

लोग समुद्र के बारे में जो भी कहें, लेकिन विशाल समुद्र अपनी लहरों में मस्त रहता है। अपना उफान और शांति वह अपने हिसाब से तय करता है।

अगर विशाल समुद्र बनना है तो किसी के निर्णय पर अपना ध्यान ना दें। जो करना है अपने हिसाब से करें। जो गुजर गया उसकी चिंता में ना रहें। हार-जीत, खोना-पाना, सुख-दुख इन सबके चलते मन विचलित ना करें। अगर जिंदगी सुख शांति से ही भरी होती तो आदमी जन्म लेते समय रोता नहीं। जन्म के समय रोना और मरकर रुलाना इसी के बीच के संघर्ष भरे समय को जिंदगी कहते हैं।

‘कुछ ज़रूरतें पूरी, तो कुछ ख्वाहिशें अधूरी

इन्ही सवालों का संतुलित जवाब है

–जिंदगी-
(संकलन)

मंगलवार, 30 जून 2020

आध्यात्मिक प्रेम

आध्यात्मिक प्रेम

 जीवन में खुश रहने के लिए यह आवश्यक है कि हम स्थाई प्रेम से भरपूर रहे।  सदा- सदा का प्रेम केवल प्रभु और प्रकृति  का प्रेम है जो कि दिव्य एवं आध्यात्मिक है।  जब हम इस संसार में दूसरों से प्रेम करते हैं, तो हम इंसान के बाहरी रुप पर ही केंद्रित होते हैं।  और हमें जोड़ने वाले आंतरिक प्रेम को भूल जाते हैं। सच्चा प्रेम तो वह है जिसका अनुभव हम दिल से दिल तक, और आत्मा से आत्मा तक करते हैं। बाहरी रूप तो एक आवरण है, जो इंसान के अंदर में मौजूद सच्चे प्रेम को ढक देता है। मान लीजिए कि आपके पास खाने के लिए कुछ अनाज है।  अनाज प्लास्टिक की थैली में लपेटे जा सकते हैं, और डिब्बे में भी। हम उस थैली या डिब्बे को नहीं , बल्कि उसके अंदर मौजूद अनाज को खाना चाहते हैं। इसी तरह जब हम किसी इंसान से कहते हैं कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ तो हम उस व्यक्ति के सार रूप से प्रेम प्रकट कर रहे होते हैं।  बाहरी आवरण या हमारा शारीरिक रूप वह नहीं जिसे हम वास्तव में प्रेम करते हैं। वास्तव में हम उस व्यक्ति के सार से प्रेम करते हैं, जो कि उसके भीतर मौजूद है। 

        हमारे जीवन का उद्देश्य ही यही है, कि हम अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर पाए, और फिर अपनी आत्मा का स्वरूप अनुभव कर पाए और फिर अपनी आत्मा का मिलाप करके उसके स्रोत परमात्मा में करा दें। जब हमारी आत्मा अंतर में प्रभु की दिव्य ज्योति एवं श्रुति के साथ जुड़ने के लायक बन जाती है। तब हम अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर पाते हैं। फिर गुरु के मार्गदर्शन में नियमित ध्यान, अभ्यास करते हुए हमारी आत्मा अध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति करती जाती है, और अंततः परमात्मा में जाकर लीन हो जाती है। आइए हम सभी अपने बाहरी शारीरिक रूप की ओर से ध्यान हटाए और सच्चे आत्मिक स्वरूप का अनुभव करें, तभी इस मानव चोले में आने का हमारा लक्ष्य पूर्ण होगा, और हम सदा -सदा के लिए प्रभु में लीन होने के मार्ग पर अग्रसर हो पाएंगे. इसके लिए हमें एकांतवास का मार्ग अपनाना पड़ेगा, रोज समय निकालकर आधा घंटे के लिए ही सही एकांत वास में बैठने का प्रयास करें।  अपने को प्रकृति से जोड़ने का प्रयास करें।आप पाएंगे कि आपका मन विश्राम पाएगा और मन की सृजनात्मकता और बेहतर हो जाएगी,और आत्मिक प्रगति का मार्ग दिखने लगेगा ।  


रविवार, 28 जून 2020

अवसाद से मुक्ति

अवसाद से मुक्ति 

 अवसाद में व्यक्ति स्वयं की शक्तियों पर विश्वास करना छोड़ देता है।  वह अपने आप को पराजित सा महसूस करने लगता है।  यही पराजय का भाव उसके भीतर नकारात्मकता का ज्वार पैदा करने लगता है। उसे सब कुछ व्यर्थ लगने लगता है। 

 वह एकाकी  अनुभव करने लगता है। उसे अकेलापन अच्छा लगता है।  लेकिन यही एकाकीपन उसे भीतर से कमजोर करने लगता है,वह स्वयं पर नियंत्रण खोने लगता है।  ऐसी स्थिति उसके मानसिक संतुलन को प्रभावित करती है। वह असफलताओं पर अधिक केंद्रित होने लगता है।  अवसादग्रस्त व्यक्ति की सकारात्मक ऊर्जा होने क्षीण होने लगती है। 

आज के इस प्रतिस्पर्धी दौर में अधिकांश लोग कम समय में बहुत ज्यादा पाने की लालसा रखते हैं। यही लालसा ,लालच में बदलने लगती है जो कई दुस्प्रवृत्तियों  को जन्म देती है।  इससे हमारे भीतर के गुण शनै -शनै  छीण  होने लगते हैं।  परिणाम स्वरूप अवसाद के काले बादल हमें घेरने  लगते हैं।हम सदैव कुछ बुरा होने की आशंका से भयाक्रांत रहने लगते हैं। भय  का वह  आवरण हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगाने लगता है। 

वर्तमान समय में मनोचिकित्सक  अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक सलाह हेतु कुछ प्रश्नों या सुझाव को देने से मना करते हैं।  जैसे कि हम यह कहें कि आप बहुत मजबूत हैं ,और आप बहुत जल्दी अपने को ठीक कर लेंगे।  इससे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अपने को  मजबूत महसूस करके,और किसी को अपनी कठिनाइयां नहीं बताना चाहता तो, वह अपनी बीमारी को बढ़ा लेता है।  अगर हम उसे कमजोर कहेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप वह अपनी कठिनाइयां बयां करेगा, और कोई ना कोई उसका उपाय निकल आएगा। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को यह कहना कि आप बाहर निकलो सैर पर जाओ, लोगों से मिलो,क्योंकि वह बहुत कम ऊर्जा में है।  इसलिए उसके लिए ऐसा करना शायद असंभव हो। बेहतर होगा कि उसके पास जाएं, और किसी तरीके से उसको साथ लेकर निकले।  अवसाद ग्रस्त व्यक्ति की नकारात्मक बातों को सुने। उसे ऐसा ना बोले कि तुम नकारात्मक  मत सोचो, नकारात्मक मत बनो।  इससे वह ज्यादा निराश बनेगा।  बल्कि उसकी नकारात्मक बातों को सुनकर उसे खाली करना चाहिए। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को यह कहना कि आप नींद लो,अच्छा भोजन खाओ, कुछ अच्छा पॉजिटिव सीरियल या फिल्म या टॉक देखो।  लेकिन वह तो पहले से ही अपनी  रुचि खो  चुका है।  किसी भी अच्छी चीज के लिए कहने से वह अपराध बोध से ग्रस्त हो सकता है।  इसलिए उसका व्यक्तिगत साथ देना, और उसके साथ फिल्म देखना,बोलना, बातचीत ,उसे बेहतर महसूस करा सकता है। 

अवसाद को मात देने के लिए हमें स्वयं से भी संवाद की आवश्यकता होती है।  हम जितना स्वयं से भागने को तत्पर होंगे उतना ही परेशानी के भंवर में फंसते चले जाएंगे।  हमें अपनी शक्तियों पर विश्वास करना ही पड़ेगा।  तभी हम इसे मात दे सकते हैं।  अपनों से अपनत्व, तो मित्रों से निरंतर संवाद ,छोटी-छोटी बातों में प्रसन्नता खोजना,खुलकर हंसना भी अवसाद के शत्रु हैं। अगर हम इन सभी से मित्रता कर ले तो अवसाद निष्प्रभावी हो जाएगा।  अपने भीतर की आध्यात्मिक चेतना को जागृत कर अवसाद के असुर का वध संभव है।  अगर हम थोड़ा सा समय स्वयं के लिए निकालें तो हर परिस्थिति से मुस्कुरा कर लड़ सकते हैं।  याद रखें कि तनाव जैसी स्थिति को पैदा कर मनोविकारों को जन्म देना उचित नहीं है। 


शनिवार, 27 जून 2020

अनंत आनंद

अनंत आनंद

 अनंत-आनंद की खोज में जब मनुष्य ने परम पुरुष की ओर चलना शुरू किया, तब वह अध्यात्म के संपर्क में आया। अध्यात्मिकता जब ससीम  के संपर्क में आती है, तब इसी के माध्यम से ससीम भी असीम के संपर्क में आता है।  ससीम और असीम का यह मिलन ही योग कहलाता है।  इस असीम को पाने के लिए और अपनी असीमित क्षुधा की तृप्ति के लिए, एक साधक जब उस अनंत की ओर चलना शुरू करता है तब उसी को योग कहा जाता है।   संस्कृत  में योग का अर्थ है जोड़ना जैसे 2 + 2 = 4 होता है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लक्ष्य को पाने वाले साधक के लिए योग मात्र इस तरह का जोड़ नहीं होता है। 

 वहां योग का अर्थ है ‘एकीकरण’।  किस तरह का एकीकरण। चीनी और पानी के एकीकरण जैसा।  जोड़ में प्रत्येक वस्तु अपना अलग अस्तित्व और अपनी अलग पहचान रखती है।  जैसे दो चीजों को जोड़ने के बाद भी उसकी अलग पहचान और अस्तित्व बना रहता है। जोड़ने के पहले भी और जोड़ने के बाद भी, लेकिन एकीकरण के मामले में ऐसा नहीं होता।  चीनी के पानी में मिल जाने के बाद उसकी अपनी अलग पहचान नहीं रह पाती है, क्योंकि चीनी पानी में घुलकर वह पानी के साथ एकाकार हो गया। यही एकीकरण है।  योग का तात्पर्य भी इसी तरह का एकीकरण है। अर्थात चीनी और पानी मिलकर एक हो गए।   दो और दो जोड़  की तरह या जोड़ना नहीं हुआ। 


 योग के इसी आरंभिक बिंदु से शुरू होती है असीम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए महान यात्रा।  वृहद के आकर्षण को लक्ष्य कर चलने की गतिशीलता, मनुष्य को परम पुरुष के साथ एकाकार कर देती है।  जिनका आसन मानव अस्तित्व के उच्चतम बिंदु के भी ऊपर है।  परम तत्व के साथ एकात्म होने के लिए और उनकी यह जो गतिधारा है, बृहद के साथ क्षुद्र के मिलन का यह जो प्रयास है, यही है योग का योग के पथ। योग के पाथ  का अनुसरण करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।