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बुधवार, 2 दिसंबर 2020

आनंद

 

मनुष्य से जितना निर्दोष होगा, उतना ही सुखी होगा। निर्दोष मनुष्य मासूम होता है। वह हमेशा सच्चाई से ज़िंदगी जीता है। समाज की कुटिलता उसके पास तक फटकती। वह किसी व्यक्ति के दुख में दुखी होने का अभिनय नहीं करता, बल्कि सचमुच दुखी होता है। वह दुखी व्यक्त की भरसक मदद करता है। ऐसा करते समय हुआ या नहीं सोचता कि कौन क्या कहेगा। यह जो कौन क्या कहेगा वाली प्रवृत्ति ही मनुष्य को औपचारिक बनाती है, जबकि किसी के दुख में औपचारिकता दिखाना एक तरह का पापा ही है। यदि आप उसको मदद करना चाहते हैं तो असली मदद करें, दिखावा नहीं। यह सब मनुष्यों से नहीं हो पाता। वही मनुष्य सच्ची मदद कर सकता है जो मासूम है।

मासूम व्यक्ति प्रकृति के निकट होता है। वह नदी, पर्वत, आकाश को देखकर सम्मोहित होता है और सच्चे आनंद की अनुभूति प्राप्त करता है। मासूम व्यक्ति चेतना के स्तर पर बहुत समृद्ध होता है। वह जब आनंदित होता है, तब दुनियादारी से दूर होता है। संवेदना में वह कवियों और कलाकारों से आगे होता है। मासूम व्यक्ति स्नेहीजनों को देखकर आनंदित होता है। ऐसे मनुष्य को लोग 'परमहंस' का ख़िताब भी देते हैं। मासूमियत सायास नहीं आती। यह स्वाभाविक होती है, पर कई बार ख़ुद को निखारने पर आ जाती है। यह प्रक्रिया जटिल इसलिए है, क्योंकि जब तक आप परोपकार में आनंद महसूस नहीं करने लगते, तब तक मासूमियत से दूर रहते हैं। मासूम रहा होने का अभिनय नहीं हो सकता। असलियत तुरंत सामने आ जाती है। मासूम व्यक्ति समाज की छोटी से छोटी विसंगति के लिए चिंतित रहता है। वह झूठा और पाखंड से हमेशा दूर रहता है। नुक़सान होने पर भी वह निराश नहीं होता। उसके पास अपरिमित सहनशक्ति होती है। दुर्गुणों का प्रक्षालन ही मनुष्य को मासूम बनाता है। मासूम बनकर ही आप सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। यह आनंद उसी तरह का है होता है, जो बच्चे महसूस करते हैं।


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