आत्मज्ञान
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आत्मज्ञान
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सद्विचार
जीवन का सूत्र
आंतरिक संघर्ष
खुशी की खोज
सहनशीलता
वृक्ष कितना भी बड़ा हो जाए, किंतु वह अपनी जड़ें नीचे
की ओर ले जाता है। उसकी जड़ें जितनी गहरी होती हैं, झंझावात में वह उतना ही सुरक्षित
रहता है। इसी तरह मनुष्य में सहनशक्ति जितनी सघन होती है, उसके संकटों से उबर जाने
की संभावना उतनी ही उज्ज्वल होती है। विज्ञान का सिद्धांत है कि हर क्रिया की
प्रतिक्रिया होती है। अध्यात्म जगत की अवधारणा इसके एकदम विपरीत है। अध्यात्म जब
मानवीय गुणों की बात करता है तो विज्ञान का यह नियम पूर्णतः ध्वस्त होता दिखता है।
सहनशीलता को मनुष्य के प्रमुख गुणों में माना गया है, जो उसके उद्धार का मार्ग
प्रशस्त करती है। सहनशीलता वस्तुतः सहज, संयम एवं विश्वास का संयुग्म है।
मनुष्य का मान-अपमान, दुख-सुख, प्रशंसा-निंदा आदि से ऊपर
उठ जाना एक बड़ी साधना है। इससे मन के सारे उद्वेग शांत हो जाते हैं एवं सहजता आ
जाती है। सहज तब दृढ़ होता है जब मनुष्य में नीति अनीति, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का भेद करने की
क्षमता आ जाती है और उसका विवेक जागृत हो जाता है। विवेक के गर्भ से संयम जन्म
लेता है और मनुष्य सुकर्मों की ओर अग्रसर होता है। परमात्मा पर अटल विश्वास ही सहज
एवं संयम का आधार बनता है। मनुष्य को परमात्मा के न्याय में प्रसन्न रहना आ जाता
है। यह प्रसन्नता ही सहनशीलता है। सहनशील मनुष्य अपने गुणों पर दृढ़ रहता है और
किसी भी परिस्थिति में उनका त्याग नहीं करता। ऐसा मनुष्य जो भी करता है वह किसी
अन्य की क्रिया की प्रतिक्रिया न होकर उसके गुणों के सापेक्ष होता है।
सहन करना परमात्मा के आदेश में
रहना है। संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह परमात्मा की इच्छा के अनुरूप ही
है। वह यदि दुख देने वाला है तो उबारने वाला भी वही है। परमात्मा सभी के कर्मों का
लेखा-जोखा रख रहा है। हर मनुष्य के कर्मों का न्याय वही करता है। मनुष्य यह विचार
धारण कर ले तो उसके दोनों लोक संवर जाएंगे।
मर्यादा
जीवन का प्रथम अनुबंध
दृढ़ संकल्प
संकल्प
कर्म की साधना करने वाले मानते हैं कि किसी भी •अभीष्ट की पूर्ति के लिए दृढ़ता के मार्ग का चयन ही संकल्प है। वस्तुतः संकल्प दो प्रकार का होता है। एक यह कि मुझे यह काम करना है। इस संकल्प को हम भाव विषयक संकल्प कह सकते हैं। दूसरा, इसके विपरीत कि मुझे यह काम नहीं करना। इसे • अभाव विषयक संकल्प कह सकते हैं। सीधे तौर पर कहें तो संकल्प मनुष्य की आवश्यकताओं से जुड़े होते हैं। यदि किसी तपस्वी व्यक्ति की बात छोड़ दें तो एक सामान्य व्यक्ति की आवश्यकताओं का कोई ओर-छोर नहीं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। इनमें सत्य साधन भी सम्मिलित हैं और असत्य साधन भी। साधन के प्रयोग से पूर्व संकल्प का होना आवश्यक है। संकल्प के अभाव में दुष्ट या सुष्ठु किसी भी साधन का उपयोग नहीं किया जा सकता।कोई संकल्प, शुभ संकल्प होगा या अशुभ, यह मन का विषय है। एक किसान यदि अपने खेत में मिर्चबोने का संकल्प कर मिर्च का बीज बोता है तो उसे तीखी मिर्च ही प्राप्त होगी। उसे किसी भी अवस्था में गन्ने की मिठास की अनुभूति नहीं हो सकती। इसके लिए उसे गन्ना बोने का संकल्प लेकर वही प्रकल्प करना होगा। भारतीय दार्शनिकों ने संकल्प और विकल्पों को मन का धर्म माना है। उनका यह भी मानना है कि पवित्र मन ही पवित्र संकल्प का माध्यम बनता है, जबकि 'अपवित्र मन एक अपवित्र संकल्प को जन्म देता है। यजुर्वेद के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही संकल्पों का सूत्रधार मन होता है। अशिव संकल्प से अकल्याण और बंधन प्राप्त होता है, जबकि शिव संकल्प से परहित तथा मुक्ति का मार्ग मिलता है। जिसका मन पवित्र है, उसका मन बलिष्ठ भी होगा और बलिष्ठ मन जो संकल्प करेगा, उसकी सिद्धि कठिन नहीं है। अतः शुभ फल की इच्छा करके, म से उस संकल्प को धारण कर, कर्म के द्वारा उस कार्य को सिद्ध करना चाहिए।
सत्य की शक्ति
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