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शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

आत्मज्ञान

 आत्मज्ञान


       जीवन-संपदा का महत्व समझने और इसे सार्थक करने के लिए आत्मबोध का होना आवश्यक है। आत्मबोध का शाब्दिक अर्थ है स्वयं की समझ । दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी भावनाओं, अनुभूतियों, दायित्वों, क्षमताओं और कमजोरियों आदि का स्पष्ट ज्ञान । मनुष्य ही ऐसा प्राणी हैं जो आत्मज्ञान द्वारा नर से नारायण की अनुभूति कर सकता है। आत्मज्ञान की अनुभूति होने से जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी सुख एवं शांति का अनुभव होता है। आत्मज्ञानी सदैव राग-द्वेष से निःस्पृह रहता है। सर्वत्र संतुष्ट रहता है। स्वयं में परिपूर्ण रहता है। आत्मज्ञान से मनुष्य निर्भय होता है।

    आत्मबोध से ही व्यक्ति व्यावहारिक और आध्यात्मिक जीवन में संतुलन स्थापित कर सुख, शांति एवं समृद्धि प्राप्त करता है। आत्मज्ञान की अनुभूति ही परमात्मिक आनंद का गंतव्य है। यही वह अमृत है, जिसे पाने के उपरांत कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। कहा भी जाता है ज्ञान श्रेष्ठ है, लेकिन आत्मज्ञान उससे भी श्रेष्ठ है। स्वयं को जान लेने के बाद ही अन्य प्राप्त ज्ञान का सदुपयोग हो पाता है। अन्यथा अज्ञान के हाथों से होकर आया हुआ समस्त ज्ञान भी बहुधा आत्मघाती सिद्ध होता है।

    मनुष्य के भीतर आत्मज्ञान को आलोकित करने के लिए एक सच्चा गुरु होना जरूरी है। गुरु ही.. आत्मज्ञान की प्रेरणा प्रदान कर उसका मार्ग दिखाता है। आत्मबोध कराना गुरु का गुरुतर दायित्व है। सच्चा गुरु वही है जो व्यक्ति में आत्मज्ञान जागृत कर देता है। सही राह पर चलने की क्षमता, सामर्थ्य.. और दिशा देता है। इसके अतिरिक्त योग आत्मबोध की यात्रा का सरल और सहज मार्ग है। योग मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमता को बढ़ाकर आत्मज्ञान से साक्षात्कार कराने में सक्षम होता है। संप्रति विज्ञान ने तमाम मानवीय जिज्ञासाओं की पूर्ति की है, लेकिन उसकी भी एक सीमा है। जहां विज्ञान की सीमा समाप्त होती है, वहीं आत्मज्ञान का प्रभाव, क्षेत्र आरंभ होता है।


सद्विचार

 सद्विचार


    सद्विचार जीवन रूपी तपस्या के हवन कुंड से निकलने वाली वह प्राणदायिनी ऊर्जा है, जो यत्र तत्र सर्वत्र को अपनी आभा से सुगंधित कर देती है। सद्विचार परिष्कृत मंत्र के पर्याय हैं, जिनके श्रवण मात्र से दृष्टि ही नहीं, जीव की सृष्टि तक में भी परिवर्तन संभव है। ये मनुष्य के दैहिक, लौकिक, बौद्धिक, सामाजिक एवं आत्मिक उन्नति का आधार हैं। विचार जब आचरण की कोख से जन्म लेकर अवतरित होते हैं तो उनमें समाज, लोक एवं परंपरा में आमूल-चूल परिवर्तन करने की अपूर्व क्षमता समाई रहती है।

    वैचारिक परिशुद्धता ही मनुष्य को जीवन में जीव से श्रेष्ठतम करार देती है। विचार वह संपत्ति है, जो अदृश्य होते हुए भी दृष्ट अथवा अलौकिक संपत्ति से कई गुना श्रेष्ठतर, दीर्घजीवी और शाश्वत होती है। एक सद्विचार अपने में समूचे विश्व को परिवर्तित कर देने की अपूर्व क्षमता रखता है। विचार के अनुरूप ही हमारी शारीरिक, मानसिक, सांसारिक एवं भौतिक सृष्टि का निर्माण होता है और उससे ही आगामी जीवन-दर्शन की श्रेष्ठता की गुणता निश्चित होती है। सकारात्मक विचार जीव-जगत के कल्याण की संजीवनी सरीखे हैं। वैचारिक संपन्नता का दुर्लभ उपहार करुणानिधान ईश्वर अपने किसी अनन्य उपासक को ही प्रदान करते हैं। यह दैहिक विलोपन के पश्चात भी अपनी दीर्घजीविता से जगत को चमत्कृत करने की क्षमता रखता है। सद्विचार से लक्ष्य चुंबक की भांति खिंचा हुआ स्वतः ही हमारी ओर आकर्षित होता रहता है।

    हम जैसा होना और बनना चाहते हैं, विचार हमें उसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करते रहते हैं। विचार ही हमारे चरित्र, नीति, आदर्श एवं मूल्य के नियोक्ता हैं। विचारों की निश्चयात्मकता हमारे गंतव्य एवं मंतव्य की दिशा भी तय करती है। विचार ही हमारे संस्कारों के परिशोधन की महागंगा हैं। आइए हम सब नकारात्मक विचारों को त्याग कर सकारात्मक विचारों को अपनाएं।

मंगलवार, 26 जुलाई 2022

जीवन का सूत्र

 जीवन का सूत्र


    काम, क्रोध, लोभ और मोह की स्वाभाविक वृत्तियों से घिरा हुआ मनुष्य जब अपनी असत् दृष्टि से इनमें आनंद का अनुभव करने लगता है तो उसे यह संसार खुशनुमा लगने लगता है। काम अर्थात इच्छा। जब भी किसी व्यक्ति के मन में उठी इच्छा की पूर्ति होती है तो वह परम आनंद को प्राप्त होता है, पर वह यह भूल जाता है कि उसकी यह इच्छापूर्ति उसी तरह से उसके मन में एक और उससे बड़ी इच्छा जागृत करके उसके चित्त को अव्यवस्थित कर देगी, जिस तरह से जलती हुई अग्नि पूरी मात्रा में घी पाने पर भी बुझती नहीं है, अपितु और वेग से जलने लगती है।

    इसी भांति से यदि किसी की अन्य किसी व्यक्ति के साथ विचार भिन्नता होती है तो वे दोनों ही पक्ष एक-दूसरे की हानि करने के लिए तत्पर हो जाते हैं • और अपने चित्त की सहज शांति खो बैठते हैं। इस स्थिति में जिसकी हानि होती है वह तो दुखी होता ही है, जो लाभ में रहता है वह भी हारे हुए पक्ष की ओर से आने वाली संभावित प्रतिक्रिया से हर दम चिंता में डूबा रहता है। और इस तरह से क्रोध भी व्यक्तियों' को पीड़ित करने का कारण ही बनता है।

    वहीं लोभ और मोह की असीमित शक्ति का तो यह हाल है कि हम अपना पूरा का पूरा जीवन इसमें लगा देते हैं कि हमारे पास इतनी अथाह संपत्ति हो, जिसकी बराबरी धरती का कोई भी दूसरा व्यक्ति कभी न कर सके और हमारी अपनी संतान भी ऐसी हो, जिसकी सुंदरता और बुद्धिमत्ता का कोई मुकाबला न हो सके। रावण से लेकर कंस आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं, जो अपने जीवन में अपनी ऐसी ही मानसिक विकृतियों से कभी भी पार नहीं पा सके। हमें स्पष्ट रूप से यह जान लेना चाहिए कि ऊपर से ललित और आकर्षक दिखने वाला यह जगत अंत में हमारे लिए सुख का नहीं, अपितु दुख और पीड़ा देने काही कारण बनता है। इसीलिए विज्ञजन कहते हैं कि यहां हमें पद्मपत्र की तरह निरपेक्ष भाव से रहकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसी से सुख की स्थायी अनुभूति संभव है।

आंतरिक संघर्ष

 आंतरिक संघर्ष


    मानव जीवन यात्रा संघर्षों से भरी है। जन्म से मृत्यु ' तक की यात्रा में मनुष्य अनेक संघर्षों का सामना करता है। इन संघर्षों के स्वरूप भी विविध प्रकार के होते हैं। कतिपय संघर्ष ऐसे होते हैं, जो मनुष्य के आंतरिक एवं बाहरी परिवेश के मध्य होते हैं। बाहरी परिवेश के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की स्थितियां, परिस्थितियां, व्यक्ति एवं समाज समाहित होते हैं। इन बाह्य संघर्षों की विशेषता यह होती है कि इनमें क्रिया एक पक्ष के द्वारा होती है एवं प्रतिक्रिया दूसरे पक्ष के द्वारा। यानी क्रिया एवं प्रतिक्रिया के प्रभाव अलग-अलग व्यक्तियों पर पड़ते हैं।

    वहीं कुछ संघर्ष. मनुष्य के अंतर्मन की परिधि के भीतर ही जन्म लेते हैं और उसी सीमा में चलते रहते हैं। इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इसमें क्रिया जिस मनुष्य के द्वारा की जाती है, प्रतिक्रिया भी उसी मनुष्य द्वारा होती है। अर्थात क्रिया एवं प्रतिक्रिया दोनों के प्रभाव एक ही मनुष्य पर पड़ते हैं। इसी कारण ऐसा संघर्ष बाहरी संघर्षों की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक एवं प्रायः घातक होता है। स्वयं का स्वयं से होने वाला यहीं संघर्ष ही अंतर्द्वद्वे कहलाता है। अंतर्द्वद्व वस्तुतः ऐसी स्थिति है जिसमें अंदरूनी उथल-पुथल की स्थिति इतनी तीव्र एवं चरम पर होती है कि कई बार आंतरिक स्तर पर स्थायित्व ही नहीं बन पाता । इस कारण आप स्वयं को ही अपनी भावनाओं से अवगत नहीं करा पाते। यह स्थिति आपको बड़ी वेदना दे सकती है। इस स्थिति में बेचैनी, उलझन व अशांति की सीमा की थाह लेना भी मुश्किल है। कई बार यह स्थिति बहुत लंबी भी खिंच सकती है।

    बाह्य संघर्षों की अपेक्षा अंतर्द्वद्व शांत होने में कहीं ज्यादा समय लेता है। अंतर्द्वद्व को शांत करने का एक ही उपाय है और वह यह कि जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे प्रकृति की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाए। परिस्थिति पर अपना वश न चलने की स्थिति में हमें केवल कर्म करने का निर्णय लेकर परिणाम को ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। यही मर्म जीवन को सुगम बनाने में सक्षम है।

खुशी की खोज

 खुशी की खोज


    खुशी पर हर व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है। कोई इसे किसी से छीन नहीं सकता है। जीवन का हर पल हमें खुशियां दे सकता है, यदि हम इसमें हमेशा खुशियां खोजें। किसी इंसान का मन जब खुश होता है तो वह बहुत सहज महसूस करता है। वहीं जब उसके मन में तनाव होता है तो स्वाभाविक रूप से मन में बसने वाली खुशी न जाने कहां गुम हो जाती है। ऐसे में उसके मन पर नकारात्मकता हावी हो जाती है। इससे उसका नुकसान होने लगता है। जबकि जब मन में खुशी होती है तो विचार भी रचनात्मक होते हैं।

    खुशी हमें तभी मिलती है जब हम अपने गुणों को समझते हैं, उन्हें प्रश्रय देते हैं और उनमें वृद्धि करते हैं। फिर अपनी विशेषताओं को समझ कर उनका भरपूर सदुपयोग करते हैं। वे व्यक्ति जीवन में अधिक खुश रहते हैं, जिनके जीवन का उद्देश्य स्पष्ट होता है। जिन व्यक्तियों को यह ज्ञात होता है कि वे अपने उद्देश्य, अपने लक्ष्य, अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे हैं तो उनकी प्रसन्नता भी निरंतर बढ़ती रहती है। ऐसे व्यक्तियों में घबराहट, चिंता, तनाव, बैचेनी आदि मानसिक परेशानियां बहुत कम पनपती हैं। और पनपती भी हैं तो ज्यादा समय तक स्थिर नहीं रह पाती हैं। दूसरों से जुड़ाव, लगाव और अपनत्व भी हमें बहुत खुशियां देते हैं। इसीलिए संबंध बनाए जाते हैं और निभाए जाते हैं। जो व्यक्ति दूसरों के साथ बड़ी आसानी से सामंजस्य बैठा लेता है, अपनत्व जोड़ लेता है वह स्वयं खुशी तो पाता ही है दूसरों को भी खुशी देता है।

    हमारा शरीर और मन एक-दूसरे से जुड़े हैं। दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। शरीर स्वस्थ होगा तो हमारा मन भी स्वस्थ होगा। इसलिए खुश रहने के लिए हमारे शरीर एवं मन का स्वस्थ रहना जरूरी है। खुशी के बिना जीवन में नीरसता छा जाती है। जीवन बुझा-बुझा सा प्रतीत होता है। इसलिए ऊर्जावान और प्रेरित बने रहने के लिए भी व्यक्ति का खुश रहना बहुत ही आवश्यक है।

अधिकार मांगने की कला

अधिकार मांगने की कला 

    अधिकार सशक्त व्यक्ति को स्वतः ही मिल जाते हैं। इसका अर्थ यही हुआं कि यदि आपको अधिकार चाहिए तो स्वयं को सशक्त बनाना होगा। सशक्त व्यक्ति की बात ध्यान से सुनी जाती है। वंचित व्यक्ति अधिकारों की मांग न सुने जाने पर ध्यान आकृष्ट करने के लिए क्रोध, उत्तेजना, हिंसा या विध्वंस द्वारा शक्ति प्रदर्शन का मार्ग अपनाता है। उन्हें लगता है कि इस तरह उनकी बात गंभीरता से सुनी जाएगी। जबकि वास्तविकता यह है कि उत्तेजना भरा क्रोध या हिंसा शक्ति का नहीं, अपितु मन की निर्बलता का प्रतीक है। क्रोध एक विकार है। यह प्रचंड ज्वाला के रूप में जलता हुआ विकराल तो लगता है, पर लाभदायक कदापि नहीं होता। 

    विध्वंसक तरीके से अधिकार मांगना और अधिकारों के लिए वास्तविक संघर्ष करना, दोनों में बड़ा अंतर है। मन में यह दृढ़ विश्वास रखना आवश्यक है कि जो आपके अधिकार हैं, प्रकृति या ईश्वरीय विधान अधिक दिनों तक आपको उनसे वंचित नहीं रख सकता । कोई भी उन्हें आपसे छीन नहीं सकता। अधिकार यदि न्यायोचित हैं तो देर से ही सही, परंतु वे आपको अवश्य प्राप्त होंगे। यदि आप अपनी बात सौम्यता से, स्थिर मन के साथ सकारात्मक तरंगों के जरिये रखें तो देखेंगे कि राह निकलनी आरंभ हो गई है। अस्थिर मन और क्रोध के वेग से कांपते मस्तिष्क से निकले उत्तेजना पैदा करने वाले स्पंदन सामने वाले को आपके विरुद्ध हो जाने के लिए उकसाते हैं। अधिकार देने से अधिक वह अधिकारों में कटौती की बात सोचने लगता है।

     ध्यान रहे कि अधिकार विलासिता के लिए नहीं हैं, न ही मात्र भोग के लिए। अधिकार पा लेने से कार्य समाप्त नहीं हो जाता, अपितु बढ़ जाता है। ये अपने संग कुछ अपरिहार्य कर्तव्य भी लाता है। मुख्यधारा में सम्मिलित होने के बाद अधिकारों का भोग तभी शोभा देता है, जब कर्तव्यों का पालन अपने उत्तरदायित्व को भली-भांति समझकर पूर्ण मनोयोग से किया जाए।

सोमवार, 25 जुलाई 2022

सहनशीलता

सहनशीलता

वृक्ष कितना भी बड़ा हो जाए, किंतु वह अपनी जड़ें नीचे की ओर ले जाता है। उसकी जड़ें जितनी गहरी होती हैं, झंझावात में वह उतना ही सुरक्षित रहता है। इसी तरह मनुष्य में सहनशक्ति जितनी सघन होती है, उसके संकटों से उबर जाने की संभावना उतनी ही उज्ज्वल होती है। विज्ञान का सिद्धांत है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अध्यात्म जगत की अवधारणा इसके एकदम विपरीत है। अध्यात्म जब मानवीय गुणों की बात करता है तो विज्ञान का यह नियम पूर्णतः ध्वस्त होता दिखता है। सहनशीलता को मनुष्य के प्रमुख गुणों में माना गया है, जो उसके उद्धार का मार्ग प्रशस्त करती है। सहनशीलता वस्तुतः सहज, संयम एवं विश्वास का संयुग्म है।

मनुष्य का मान-अपमान, दुख-सुख, प्रशंसा-निंदा आदि से ऊपर उठ जाना एक बड़ी साधना है। इससे मन के सारे उद्वेग शांत हो जाते हैं एवं सहजता आ जाती है। सहज तब दृढ़ होता है जब मनुष्य में नीति अनीति, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का भेद करने की क्षमता आ जाती है और उसका विवेक जागृत हो जाता है। विवेक के गर्भ से संयम जन्म लेता है और मनुष्य सुकर्मों की ओर अग्रसर होता है। परमात्मा पर अटल विश्वास ही सहज एवं संयम का आधार बनता है। मनुष्य को परमात्मा के न्याय में प्रसन्न रहना आ जाता है। यह प्रसन्नता ही सहनशीलता है। सहनशील मनुष्य अपने गुणों पर दृढ़ रहता है और किसी भी परिस्थिति में उनका त्याग नहीं करता। ऐसा मनुष्य जो भी करता है वह किसी अन्य की क्रिया की प्रतिक्रिया न होकर उसके गुणों के सापेक्ष होता है।

सहन करना परमात्मा के आदेश में रहना है। संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह परमात्मा की इच्छा के अनुरूप ही है। वह यदि दुख देने वाला है तो उबारने वाला भी वही है। परमात्मा सभी के कर्मों का लेखा-जोखा रख रहा है। हर मनुष्य के कर्मों का न्याय वही करता है। मनुष्य यह विचार धारण कर ले तो उसके दोनों लोक संवर जाएंगे।

मंगलवार, 12 जुलाई 2022

मर्यादा

 मर्यादा


        भगवान श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम पुकारने के पीछे कारण है कि उन्होंने मानवता के कल्याण के लिए आदर्श आचरण का पालन किया और अपनी असीम शक्ति का प्रयोग मर्यादाओं की रक्षा के लिए ही किया। भगवान श्रीराम द्वारा मर्यादा पालन का उच्च कोटि का उदाहरण उस समय सामने आता है जब चित्रकूट में उन्हें मनाने अयोध्या और जनकपुर के वासी पहुंचते हैं। उन सभी के आग्रह को भगवान श्रीराम आराम से सर्वसम्मति का नाम देखकर अयोध्या लौट सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। इसके स्थान पर कुल की मर्यादा का पालन करते हुए वन के कष्टों को चुना। अपने पूरे वनवास के समय और रावण से युद्ध में भी भगवान श्रीराम ने हमेशा सत्य का साथ देते हुए मर्यादाओं का पालन किया। इस प्रकार उन्होंने धर्म के लिए मर्यादा की स्थापना की।

        धर्म का असली तात्पर्य है नैतिकता और न्यायपूर्ण ढंग से मानवता के कल्याण के लिए आचरण करना। पूरा संसार ईश्वर का रूप है और इसके साथ अच्छा आचरण एक प्रकार से ईश्वर के प्रति अच्छा आचरण है, जिसे धर्म का नाम दिया जा सकता है। इस प्रकार के आचरण से पूरे संसार का कल्याण होता है, जो सही प्रकार से ईश्वर पूजा ही है, परंतु आजकल धर्म का तात्पर्य केवल सांप्रदायिक विचारों तक ही सीमित हो गया है और ज्यादातर लोग मानवता को भूलते जा रहे हैं। सही अर्थों में धार्मिक आचरण वही है, जिसके द्वारा समाज का कल्याण हो और चारों तरफ सुख शांति की स्थापना हो। इसलिए हर मनुष्य को अपने संप्रदाय के महापुरुषों के आचरण का अध्ययन करके उन्हें अपने जीवन में उतारने का • प्रयास करना चाहिए।

       मर्यादापूर्ण आचरण को ही ईश्वर की सच्ची पूजा और निष्ठा का नाम दिया गया है। इस प्रकार के आचरण से मनुष्य को सकारात्मक भावना प्राप्त होती, है। वह अपने आप को निर्मल तथा स्वच्छ मन का पाता है। फिर सारी शारीरिक और मानसिक व्याधियों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।

जीवन का प्रथम अनुबंध

 जीवन का प्रथम अनुबंध


        अनुबंध चतुष्टय में 'अधिकारी' को प्रथम अनुबंध स्वीकार किया गया है। मानव की आध्यात्मिक और लौकिक यात्रा के निर्विघ्न संचालन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। लोक में इसके लिए योग्यता या पात्रता पद का प्रयोग होता है, जिसका तात्पर्य है, किसी कार्य के सम्यक् निष्पादनार्थ पात्रता प्राप्त करना। सामान्यतः प्रत्येक कार्य के लिए प्रत्येक व्यक्ति पात्र नहीं होता। इसलिए अनधिकारी व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य सफल और लोकमंगलकारी हो, यह आवश्यक नहीं, परंतु अधिकारी (पात्र) व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्येक कार्य सफल भी होता है और लोकमंगलकारी भी । इसलिए अधिकारी आत्मिक और जागतिक कल्याण का मार्ग प्रशस्त करने वाला मानव जीवन का प्रथम अनुबंध है। इसीलिए इसे शास्त्रों में विशेष महत्व दिया गया है।

        वेदांत में अधिकारी को परिभाषित करते हुए कहा गया- जिसने विधिवत ज्ञान प्राप्त कर काम्य एवं निषिद्ध कर्मों का परित्याग कर दिया है। नित्य, नैमित्तिक और उपासनादि कर्म करने से जिसकी बुद्धि परिष्कृत और अंतःकरण निर्मल हो चुका है, ऐसा पापरहित व्यक्ति ही विशिष्ट ज्ञान का अधिकारी है। विश्वामित्र आदि ऋषियों ने अधिकारी समझकर ही राम को विविध आयुध प्रदान किए, जिससे उनका दुरुपयोग न हो सके। जैसे अधिकारी व्यक्ति का ज्ञान लोकमंगल के लिए होता है, उसी प्रकार अधिकारी को प्रदान की गईं शक्तियां समाज, देश और मानवता की रक्षा के लिए होती हैं। इतिहास साक्षी है कि जब भी अनधिकारी को शक्तियां प्रदान की गई हैं, उनका दुरुपयोग ही हुआ है।

       आज अभूतपूर्व वैज्ञानिक प्रगति ने मनुष्य को सभी क्षेत्रों में साधन संपन्न किया है। जहां मानवता के लिए उनका उपयोग दुनिया को स्वर्ग बना सकता है तो दुरुपयोग संपूर्ण मानवता को अभिशप्त कर सकता है। इसलिए आज अधिकारी पद की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। अतः निजी एवं सामाजिक जीवन के मंगल के लिए इसकी सिद्धि आवश्यक है।


गुरुवार, 7 जुलाई 2022

दृढ़ संकल्प

 दृढ़ संकल्प


    जिस प्रकार किसी भी पूजा को प्रारंभ करने से पूर्व हाथ में जल लेकर संकल्प लिया जाता है उसी प्रकार किसी भी कार्य को करने के लिए उसे करने का संकल्प लिया जाता है। बगैर संकल्प हम आगे नहीं बढ़ सकते हैं। संकल्प लेने के लिए इच्छाशक्ति की जरूरत होती है। संकल्प के पश्चात प्रयास प्रारंभ होते हैं। जब संकल्प दृढ़ होता है तो प्रयास को हिम्मत मिलती है, विजय की राह आसान हो जाती है। हमारी सफलता हमारे संकल्प पर निर्भर करती है। हम जितना भरोसा अपने संकल्प पर करेंगे उसी अनुपात में हमें सफलता प्राप्त होगी। यदि हमारा संकल्प विजय का है तो हमारी सफलता भी निश्चित है। संकल्प सकारात्मक ऊर्जा के रूप में सह प्रेरक का काम करता है।

    जीवन में छोटे-छोटे संकल्प लेते रहना चाहिए। जब हम छोटे-छोटे संकल्पों को पूर्ण करते हैं तो आत्मविश्वास और हमारी क्षमता में वृद्धि होती है। दृढ़ संकल्प में असीम शक्ति होती है, जो व्यक्ति को किसी भी प्रकार की बाधाओं से जूझने में सक्षम बनाती है। हालांकि संकल्प लेकर उन्हें भूलना भी आम बात है। अक्सर हम देखते हैं कि नशे के आदी लोग रोज संकल्प लेते हैं कि वे अब आगे से नशा नहीं करेंगे, किंतु वे ऐसा नहीं कर पाते हैं, क्योंकि उनके संकल्प में दृढ़ता की कमी होती है। दृढ़ संकल्प शक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करने का मूल मंत्र है। जो संकल्प के साथ जीता है वह साधक होता है। कहते हैं कि एक सफल और असफल व्यक्ति के बीच में न तो योग्यता का अंतर होता है और न ही ज्ञान का, बल्कि अंतर है तो केवल दृढ़ संकल्प का और यही निर्णायक सिद्ध होता है।

    साहस और आत्मविश्वास से अवसर की पहचान होती है। यदि हम एक कोने में बैठकर जीवन गुजारने लगें तो यह बेहतरीन 'टानिक' हमें कोई लाभ नहीं पहुंचा सकेगा। हमें हर रात सोने से पूर्व तथा प्रातः कार्य आरंभ करने से पहले दृढ़ संकल्प लेना चाहिए कि 'मैं यह कर सकता हूं और करके रहूंगा।'

बुधवार, 6 जुलाई 2022

संकल्प

 संकल्प

 कर्म की साधना करने वाले मानते हैं कि किसी भी अभीष्ट की पूर्ति के लिए दृढ़ता के मार्ग का चयन ही संकल्प है। वस्तुतः संकल्प दो प्रकार का होता है। एक यह कि मुझे यह काम करना है। इस संकल्प को हम भाव विषयक संकल्प कह सकते हैं। दूसरा, इसके विपरीत कि मुझे यह काम नहीं करना। इसे अभाव विषयक संकल्प कह सकते हैं। सीधे तौर पर कहें तो संकल्प मनुष्य की आवश्यकताओं से जुड़े होते हैं। यदि किसी तपस्वी व्यक्ति की बात छोड़  दें तो एक सामान्य व्यक्ति की आवश्यकताओं का कोई ओर-छोर नहीं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अनेक साधन हो सकते हैं। इनमें सत्य साधन भी सम्मिलित हैं और असत्य साधन भी। साधन के प्रयोग से पूर्व संकल्प का होना आवश्यक है। संकल्प के अभाव में दुष्ट या सुष्ठु किसी भी साधन का उपयोग नहीं किया जा सकता।कोई संकल्प, शुभ संकल्प होगा या अशुभ, यह मन का विषय है। एक किसान यदि अपने खेत में मिर्चबोने का संकल्प कर मिर्च का बीज बोता है तो उसे तीखी मिर्च ही प्राप्त होगी। उसे किसी भी अवस्था में गन्ने की मिठास की अनुभूति नहीं हो सकती। इसके लिए उसे गन्ना बोने का संकल्प लेकर वही प्रकल्प करना होगा। भारतीय दार्शनिकों ने संकल्प और विकल्पों को मन का धर्म माना है। उनका यह  भी मानना है कि पवित्र मन ही पवित्र संकल्प का माध्यम बनता है, जबकि 'अपवित्र मन एक अपवित्र संकल्प को जन्म देता है। यजुर्वेद के अनुसार शुभ और अशुभ दोनों ही संकल्पों का सूत्रधार मन होता है। अशिव संकल्प से अकल्याण और बंधन प्राप्त होता है, जबकि शिव संकल्प से परहित तथा मुक्ति का मार्ग मिलता है। जिसका मन पवित्र हैउसका मन बलिष्ठ भी होगा और बलिष्ठ मन जो संकल्प करेगा, उसकी सिद्धि कठिन नहीं है। अतः शुभ फल की इच्छा करके, म से उस संकल्प को धारण कर, कर्म के द्वारा उस कार्य को सिद्ध करना चाहिए।


सोमवार, 4 जुलाई 2022

सत्य की शक्ति

 सत्य की शक्ति


संसार में सत्य को सबसे सुंदर कहा गया है। हमारे शास्त्र भी कहते हैं कि सत्य के लिए किसी से भी संघर्ष करने के लिए स्वयं को सदैव तत्पर रखना चाहिए। एक सत्य ही तो है जो मनुष्य को सौ झूठ बोलने से बचा लेता है। सत्य की ऐसी महत्ता - महिमा होते हुए भी संप्रति संसार में असत्य का बोलबाला बढ़ा है। हालांकि असत्य का आश्रय लेने वालों को सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि अंत में विजय सत्य के खेमे का ही वरण करती है। वास्तव में जहां सत्य है, वहीं धर्म है और जहां धर्म वहीं विजय है।

यदि हमारी जीवन रूपी इमारत सत्य रूपी नींव पर खड़ी होगी तभी हम उसे निरंतर ऊंचाई प्रदान करते हुए उसकी प्रकृति को संरक्षित रख पाएंगे। सत्य के महत्व पर बुद्ध ने कहा कि सत्य को छोड़कर जो असत्य बोलता है, धर्म का उल्लंघन करता है, परलोक की जिसे चिंता नहीं है, वह व्यक्ति बड़े से बड़ा पाप कर सकता है। इसलिए असत्य का परित्याग ही श्रेयस्कर है। मनीषी कहते हैं कि 'मनसा वाचा कर्मणा' यानी मन, वचन और कर्म से सत्य् बोलना चाहिए। जो विचार मन में हों वही वाणी में भी होने चाहिए और उसी के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार भी होना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि मन, वचन और कर्म से अलग रहने वाले पूर्णरूपेण सत्य का आचरण नहीं कर सकते।

गांधी जी जैसे महामानव सत्य को निरपेक्ष सत्य के रूप में ग्रहण करते हैं। सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची बताते हैं। उसे अपनी नीति का अहम अवयव मानते हैं। इसी सत्य के प्रति निष्ठावान हैं। वास्तव में हमारे अस्तित्व से संबंधित समस्त गतिविधियां सत्य पर केंद्रित होनी चाहिए। सत्य ही हमारे जीवन का प्राण तत्व होना चाहिए, क्योंकि सत्य के बिना व्यक्ति अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। यह अवश्य हो सकता है कि उसे क्षणिक सफलता मिले जाए, लेकिन सत्य के अभाव में स्थायी सफलता और शांति कभी प्राप्त नहीं है।