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सोमवार, 25 जुलाई 2022

सहनशीलता

सहनशीलता

वृक्ष कितना भी बड़ा हो जाए, किंतु वह अपनी जड़ें नीचे की ओर ले जाता है। उसकी जड़ें जितनी गहरी होती हैं, झंझावात में वह उतना ही सुरक्षित रहता है। इसी तरह मनुष्य में सहनशक्ति जितनी सघन होती है, उसके संकटों से उबर जाने की संभावना उतनी ही उज्ज्वल होती है। विज्ञान का सिद्धांत है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अध्यात्म जगत की अवधारणा इसके एकदम विपरीत है। अध्यात्म जब मानवीय गुणों की बात करता है तो विज्ञान का यह नियम पूर्णतः ध्वस्त होता दिखता है। सहनशीलता को मनुष्य के प्रमुख गुणों में माना गया है, जो उसके उद्धार का मार्ग प्रशस्त करती है। सहनशीलता वस्तुतः सहज, संयम एवं विश्वास का संयुग्म है।

मनुष्य का मान-अपमान, दुख-सुख, प्रशंसा-निंदा आदि से ऊपर उठ जाना एक बड़ी साधना है। इससे मन के सारे उद्वेग शांत हो जाते हैं एवं सहजता आ जाती है। सहज तब दृढ़ होता है जब मनुष्य में नीति अनीति, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म का भेद करने की क्षमता आ जाती है और उसका विवेक जागृत हो जाता है। विवेक के गर्भ से संयम जन्म लेता है और मनुष्य सुकर्मों की ओर अग्रसर होता है। परमात्मा पर अटल विश्वास ही सहज एवं संयम का आधार बनता है। मनुष्य को परमात्मा के न्याय में प्रसन्न रहना आ जाता है। यह प्रसन्नता ही सहनशीलता है। सहनशील मनुष्य अपने गुणों पर दृढ़ रहता है और किसी भी परिस्थिति में उनका त्याग नहीं करता। ऐसा मनुष्य जो भी करता है वह किसी अन्य की क्रिया की प्रतिक्रिया न होकर उसके गुणों के सापेक्ष होता है।

सहन करना परमात्मा के आदेश में रहना है। संसार में जो कुछ भी घटित हो रहा है वह परमात्मा की इच्छा के अनुरूप ही है। वह यदि दुख देने वाला है तो उबारने वाला भी वही है। परमात्मा सभी के कर्मों का लेखा-जोखा रख रहा है। हर मनुष्य के कर्मों का न्याय वही करता है। मनुष्य यह विचार धारण कर ले तो उसके दोनों लोक संवर जाएंगे।

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