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मंगलवार, 26 जुलाई 2022

आंतरिक संघर्ष

 आंतरिक संघर्ष


    मानव जीवन यात्रा संघर्षों से भरी है। जन्म से मृत्यु ' तक की यात्रा में मनुष्य अनेक संघर्षों का सामना करता है। इन संघर्षों के स्वरूप भी विविध प्रकार के होते हैं। कतिपय संघर्ष ऐसे होते हैं, जो मनुष्य के आंतरिक एवं बाहरी परिवेश के मध्य होते हैं। बाहरी परिवेश के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की स्थितियां, परिस्थितियां, व्यक्ति एवं समाज समाहित होते हैं। इन बाह्य संघर्षों की विशेषता यह होती है कि इनमें क्रिया एक पक्ष के द्वारा होती है एवं प्रतिक्रिया दूसरे पक्ष के द्वारा। यानी क्रिया एवं प्रतिक्रिया के प्रभाव अलग-अलग व्यक्तियों पर पड़ते हैं।

    वहीं कुछ संघर्ष. मनुष्य के अंतर्मन की परिधि के भीतर ही जन्म लेते हैं और उसी सीमा में चलते रहते हैं। इस संघर्ष की विशेषता यह है कि इसमें क्रिया जिस मनुष्य के द्वारा की जाती है, प्रतिक्रिया भी उसी मनुष्य द्वारा होती है। अर्थात क्रिया एवं प्रतिक्रिया दोनों के प्रभाव एक ही मनुष्य पर पड़ते हैं। इसी कारण ऐसा संघर्ष बाहरी संघर्षों की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक एवं प्रायः घातक होता है। स्वयं का स्वयं से होने वाला यहीं संघर्ष ही अंतर्द्वद्वे कहलाता है। अंतर्द्वद्व वस्तुतः ऐसी स्थिति है जिसमें अंदरूनी उथल-पुथल की स्थिति इतनी तीव्र एवं चरम पर होती है कि कई बार आंतरिक स्तर पर स्थायित्व ही नहीं बन पाता । इस कारण आप स्वयं को ही अपनी भावनाओं से अवगत नहीं करा पाते। यह स्थिति आपको बड़ी वेदना दे सकती है। इस स्थिति में बेचैनी, उलझन व अशांति की सीमा की थाह लेना भी मुश्किल है। कई बार यह स्थिति बहुत लंबी भी खिंच सकती है।

    बाह्य संघर्षों की अपेक्षा अंतर्द्वद्व शांत होने में कहीं ज्यादा समय लेता है। अंतर्द्वद्व को शांत करने का एक ही उपाय है और वह यह कि जो कुछ भी घटित हो रहा है, उसे प्रकृति की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाए। परिस्थिति पर अपना वश न चलने की स्थिति में हमें केवल कर्म करने का निर्णय लेकर परिणाम को ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। यही मर्म जीवन को सुगम बनाने में सक्षम है।

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