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शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

नया दौर

(कवि नहीं हूँ  , दिल की बात मैं करता हूँ)

कवि नहीं  हूँ ,  दिल की बात मैं करता हूँ
क्या करना उचित है, चिंतन मैं करता हूँ

जिस संगठन से , रोजी रोटी है मिलता
क्या पाप नहीं,  मेहनत जो दिल से न करता
समय आएगा,  तिजोरी इक दिन खत्म हो जाएगा
राष्ट्र विकास की संकल्प का पहिया,  कहीं रुक जाएगा  II

कवि नहीं हूँ , दिल की बात मैं करता हूँ
क्या करना उचित है, चिंतन मैं करता हूँ


निगमीकरण की, हवा चली है
उत्कृष्टतम सेवा, बन जाने को
क्या रेलवे के कर्मचारी, सक्षम नहीं?
विकास की दौर में, ढल जाने को  II

कवि नहीं हूँ  , दिल की बात मैं करता हूँ
क्या करना उचित है, चिंतन मैं करता हूँ

सरकारों के, वश में  नही है
बदलाव मनोवृत्ति, में कर पाने की
यह तो आत्मचिंतन, का विषय वस्तु है
 बदलाव के दौर में, स्वयं ढल  जाने की  II

कवि नहीं हूँ , दिल की बात मैं करता हूँ
क्या करना उचित है, चिंतन मैं करता हूँ

खुद को तुम ना ,  कम है समझना
मेहनत को सिर्फ तू ही, फर्ज है समझना
पर हां बदलाव के, ताजे झोंके को
तू सदा ही चुनौती , है समझना  II

     राजीव कुमार
     यानि/सी.टी.सी


                         
               

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

प्रमुपरिप्र महोदय द्वारा बरेली सिटी स्‍टेशन पर वृक्षारोपण।


बरेली सिटी स्‍टेशन पर प्रमुख मुख्‍य परिचालन प्रबन्‍धक महोदय द्वारा दिनांक 30.9.2019 को वृक्षारोपण किया गया़ ।  

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

इंद्रिय निग्रह

  इंद्रिय  निग्रह
इंद्रिय निग्रह के दो भेद हैं - अंत:करण और बहि:करण ।  मन, बुद्धि और अहंकार तथा
चित- इनकी संज्ञा अंतःकरण है और दस इंद्रियों की संज्ञा वही बहि:करण है। अंतः करण
की चारों इंद्रियों की कल्पना भर हम कर सकते हैं', उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन बहि:करण
की इंद्रियों को हम देख सकते हैं। अंतःकरण की इंद्रियों में मन सोचता- विचारता है और बुद्धि
उसका निर्णय करती है। कहते हैं 'जैसा मन में आता है, वह करता है।' यह संशयात्मक ही
रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित अनुभव करता है एवं समझता है।
अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान या घमंड समझते हैं पर शास्त्र उसको
स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है ।
बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं - ज्ञानेंद्रिय एवं कर्मांद्रिय। नेत्र,कान, जीभ,नाक और
त्वचा ज्ञानंद्रिय हैं, क्योंकि आंख से रंग और रूप , कानों से शब्द , नाक से सुगंध-दुर्गंध,
जीभ के स्वाद और त्वचा से गरम एवं ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी,हाथ, पैर, जननेंद्रिय
और  गुदा यह पांच कर्मेंद्रियों हैं। जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही
जितेंद्रिय कहलाता है। जितेंद्रिय होना साधना एवं अभ्यास से प्रायोजित होता है।
हमें इंद्रिय निग्रह होना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय निग्रह कर लेता है, वह कभी
पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के
फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय निग्रह  ही मुख्य धर्म है। इंद्रियां बड़ी
प्रबल होती हैं और वह मनुष्य को अंधा कर देती हैं, इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया
है कि मनुष्य को युवा मां, बहन, बेटी, लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए।

मानव हृदय बड़ा दुर्बल होता है । यह बृहस्पति ,विश्वामित्र ऐवं पराशर जैसे ऋषि -
मुनियों  के आख्यानों से स्पष्ट है। सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है।
सचरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया है। जो लोग मानते हैं कि
परमात्मा सभी मेें व्‍याप्‍त है,सभी एक हैं , उन्हे अनुभव करना चाहिए कि हम यदि
अन्य लोगों का कोई उपकार करते हैं तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है,
क्योंकि जो वे हैं वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश एवं रूप है तो
हम यदि सबका हितचिंतन एवं सबकी सहायता करते हैं तो यह परमात्मा का ही
पूजन और उसी की आराधना है।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

मोक्ष का मार्ग

मोक्ष का मार्ग 

मानव जीवन में दो मार्ग है और दूसरा मोक्ष का मार्ग ज्यादातर लोग यह समझते हैं कि मृत्यु के बाद जब शरीर रूपी बंधन से मुक्ति मिलती है तब मोक्ष मिलता है लेकिन सच्चाई यह है कि मनुष्य जीवित रहते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। महाभारत में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कहां कर्म करते हुए और उन कर्मों को मन से परम सत्ता को अर्पण करते हुए कोई पुरुषार्थ करता है तो इसी जीवन में मोक्ष पा लेता है.
 दरअसल कर्म करते हुए व्यक्ति को अनेकों अनेक बंधनों को काटना पड़ता है जिसमें लोग और आम प्रमुख हैं। क्योंकि बंधन हमेशा दुष्ट प्रवृत्तियों के ही होते हैं इसलिए उनसे छुटकारा पा लेना ही मोक्ष है। यदि यह महिमा हमारे अंदर आ जाए तो मोक्ष का तत्वज्ञान समझते हुए हम जीवन को सफलता की चरम सीमा तक पहुंचा सकते हैं। हमें मानव जीवन मिला है इसीलिए है कि हर व्यक्ति इस परम पुरुषार्थ के लिए कर्म करें एवं परम तत्व की प्राप्ति के लिए इस प्रयोग को सार्थक बनाएं ।
बंधन और मोक्ष में फर्क सिर्फ इतना सा है कि जब आसुरी संपदा हमारे पास पड़ेगी तो हम बंधन की ओर पड़ जाएंगे लेकिन जब दैवी संपदा हमारे पास पड़ेगी तो हम मोक्ष की तरफ बढ़ जाएंगे बंधन का मकड़जाल हमें जकड़े रहता है लेकिन छुटकारा पाना हर व्यक्ति के लिए जरूरी है कि हर व्यक्ति के लिए जरूरी है जो व्यक्ति कुछ भी करता है उसमें क्रोध नहीं होना चाहिए बल्कि उसका निर्णय समाज के हित में होना चाहिए पूरा महाभारत का युद्ध में पांडवों के मन में द्वेष नहीं बल्कि अखंड भारत के कल्याण की भावना जगाई और एक संस्कारी राजा का आदर्श रखते हुए ईश्वर के लिए कर्म करने की भावना करने को कहा
की आत्मा 
शास्त्रों और पुराणों में कहा गया है कि आत्मा तब तक एक सरीसृप से शरीर में भटकती रहती है जब तक की मौत की प्राप्त नहीं हो जाती। जब तक कि मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती इसीलिए मोक्ष प्राप्ति के लिए किए जाने वाले कर्म को जीवन जीने की कला कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मोक्ष प्राप्ति के लिए हमें अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए और क्षमता को बढ़ाना चाहिए और निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिए तभी हम मोक्ष के मार्ग पर आगे बढ़ पाएंगे और को पाने में सेवा भी बहुत है