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गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

इंद्रिय निग्रह

  इंद्रिय  निग्रह
इंद्रिय निग्रह के दो भेद हैं - अंत:करण और बहि:करण ।  मन, बुद्धि और अहंकार तथा
चित- इनकी संज्ञा अंतःकरण है और दस इंद्रियों की संज्ञा वही बहि:करण है। अंतः करण
की चारों इंद्रियों की कल्पना भर हम कर सकते हैं', उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन बहि:करण
की इंद्रियों को हम देख सकते हैं। अंतःकरण की इंद्रियों में मन सोचता- विचारता है और बुद्धि
उसका निर्णय करती है। कहते हैं 'जैसा मन में आता है, वह करता है।' यह संशयात्मक ही
रहता है, पर बुद्धि उस संशय को दूर कर देती है। चित अनुभव करता है एवं समझता है।
अहंकार को लोग साधारण रूप से अभिमान या घमंड समझते हैं पर शास्त्र उसको
स्वार्थपरक इंद्रिय कहता है ।
बहि:करण की इंद्रियों के दो भाग हैं - ज्ञानेंद्रिय एवं कर्मांद्रिय। नेत्र,कान, जीभ,नाक और
त्वचा ज्ञानंद्रिय हैं, क्योंकि आंख से रंग और रूप , कानों से शब्द , नाक से सुगंध-दुर्गंध,
जीभ के स्वाद और त्वचा से गरम एवं ठंडे का ज्ञान होता है। वाणी,हाथ, पैर, जननेंद्रिय
और  गुदा यह पांच कर्मेंद्रियों हैं। जो इन इंद्रियों को अपने वश में रखता है, वही
जितेंद्रिय कहलाता है। जितेंद्रिय होना साधना एवं अभ्यास से प्रायोजित होता है।
हमें इंद्रिय निग्रह होना चाहिए। जो मनुष्य इंद्रिय निग्रह कर लेता है, वह कभी
पराजित नहीं हो सकता, क्योंकि वह मानव जीवन को दुर्बल करने वाली इंद्रियों के
फेर में नहीं पड़ सकता। मनुष्य के लिए इंद्रिय निग्रह  ही मुख्य धर्म है। इंद्रियां बड़ी
प्रबल होती हैं और वह मनुष्य को अंधा कर देती हैं, इसीलिए मनुस्मृति में कहा गया
है कि मनुष्य को युवा मां, बहन, बेटी, लड़की से एकांत में बातचीत नहीं करनी चाहिए।

मानव हृदय बड़ा दुर्बल होता है । यह बृहस्पति ,विश्वामित्र ऐवं पराशर जैसे ऋषि -
मुनियों  के आख्यानों से स्पष्ट है। सदाचार की जड़ से मनुष्य सदाचारी रह सकता है।
सचरित्रता और नैतिकता को ही मानव धर्म कहा गया है। जो लोग मानते हैं कि
परमात्मा सभी मेें व्‍याप्‍त है,सभी एक हैं , उन्हे अनुभव करना चाहिए कि हम यदि
अन्य लोगों का कोई उपकार करते हैं तो प्रकारांतर से वह अपना ही उपकार है,
क्योंकि जो वे हैं वही हम हैं। इस प्रकार जब सब परमात्मा के अंश एवं रूप है तो
हम यदि सबका हितचिंतन एवं सबकी सहायता करते हैं तो यह परमात्मा का ही
पूजन और उसी की आराधना है।

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