सुख का मार्ग
विधाता कि सृष्टि द्वंद्वात्मक है। यहाँ सूखा है तो दुख भी, लाभ है तो हानि भी, यश है तो अपयश भी और जीवन है दो मरण भी। इस संसार में सुख-दुख धूप-छाँव की तरह हैं ,जो सदैव स्थान बदलते रहते हैं। संसार में कोई ऐसा नहीं जो इनसे बच सका हो। इसलिए इस दुनिया में सुखी वही है जो इन दोनों को सहेज रूप में लेता है और विधाता का दिया हुआ उपहार मानकर स्वीकार करता है। गीता में तो इस चराचर जगत को दुखालय ही कहा गया है। इसलिए इसे मानव-धर्म मानकर जीवन जीने का अभ्यास कर लेना चाहिए। इसके अलावा सुखी रहने का अन्य कोई मार्ग भी नहीं है। अगर दुख न हो तो मानव सुख का वास्तविक आनंद प्राप्त नहीं हो सकेगा। सचमुच सुख का अस्तित्व दुख पर टिका हुआ है। दुख की एक तरह से मनुष्य का उपकारक है।
यह मानव-जीवन रणभूमि है जहाँ मनुष्य को सुख और दुख दोनों से लड़ना पड़ता है। इस द्वंद्वात्मक युद्ध में हम कई बार हारने लगते हैं। हताश और निराश होकर जीवन के रण में अर्जुन की तरह हथियार डाल देते हैं, जो कर्मवीर दृढ़संकल्पी मनुष्य को शोभा नहीं देता। यह ज़रूरी नहीं कि हर बार भगवान श्रीकृष्ण साक्षात उपस्थित हों। उनका ज्ञान, कर्म और भक्ति का संदेश दुखों से लड़ने में आज भी हमारा सबसे बड़ा संबल है।
मानव जीवन एक परीक्षा स्थल भी है। जहाँ दुख और कष्ट कदम-कदम पर हमारी परीक्षाएं लेते रहते है। बस ऐसे समय धैर्य और साहस ही कवच बनकर मनुष्य की रक्षा कर सकते हैं। जीवन में हमें या स्मरण रखना चाहिए कि सुबह का मार्ग मार्ग हमेशा दुख से होकर गुज़रता है। जिसने दुख भी हँसकर जीना सीख लिया, वही सच्चे सुख का आनंद ले सकता है। ज़ाडा-गर्मी की तरह सुख- दुख में भी सम रहने वाला व्यक्ति ही जीवन के सच्चे मर्म को समझता है। जीवन में यही समरसता ज़िंदगी को सच्ची परिभाषा है। यही गीता का संदेश है और यही मनुष्य का धर्म है।
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