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सोमवार, 1 नवंबर 2021

परिवर्तन

 परिवर्तन

-         मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन में जिस तरह से छोटा-मोटा परिवर्तन समय-समय पर होता रहा है तथा किसी-किसी समय पर एक बड़ा परिवर्तन भी हो जाता है। इसी तरह मनुष्य के सामाजिक जीवन में भी छोटा-मोटा परिवर्तन होता आ रहा है ।

 जब कोई छोटा-मोटा परिवर्तन आता है तब मनुष्य व्यक्तिगत या सामूहिक प्रयास से उस परिवर्तन (नवीनता) के साथ अपने को मिला लेता है अथवा जरूरत पड़ने पर मनुष्य छोटा-मोटा परिवर्तन खुद ही करता रहता है और आगे बढ़ता जाता है। इन छोटे-मोटे परिवर्तनों की जब जरूरत पड़ती है अथवा परिवर्तित परिस्थिति में स्वयं को मिला लेने की आवश्यकता होती है। तब मनुष्य समाज में नाना प्रकार के नायक आते हैं जो मनुष्य को उसी तरह से कंधे से कंधा मिलाकर चलना सिखाते हैं ऐसे ही अग्रपुरुष प्राचीन काल में ऋषि कहे जाते थे। इन ऋषि मुनियों का युग अतीत में भी था. आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। देखा जाए तो अतीत के गणमान्य ऋषियों के नाम से आज भी मनुष्य अपना परिचय देकर गौरवान्वित होते हैं जैसे कोई अपने को भार्गव बताता है तो कोई भारद्वाज, कोई कश्यप बताता है तो कोई गर्ग, कोई वशिष्ठ बताता है तो कोई कुछ और। अतीत के प्रधान पुरुष ऋषि मुनि के रूप में माने जाने वाले की अपेक्षा आज के प्रधान नायक समाज के नेता या पुरोधा कहे जाते हैं ये वही अग्रपुरुष हैं जो समाज की बेहतरी के लिए आगे आते हैं .... कहते हैं .... चलो मैं तुम लोगों के साथ हूँ। तुम लोगों की उन्नति में बाधा-विपद आए तो आए, पहले मेरे ऊपर ही आएगी। यदि आकाश टूट पड़े तो मेरे ऊपर ही पहले टूटेगा, सबका सामना पहले मैं ही करूँगा। ऐसे सामर्थ्य शील व्यक्ति ही 'सदविप्र' हैं।

      मनुष्य का अस्तित्व एक भाववाही प्रवाह है, भाव मुखीन प्रवाह है अर्थात् इसमें एक सामग्रिक गतिशीलता है। जो जड़ है, जो स्थिर है, जो परिवर्तन पसन्द नहीं करते, वे इस गतिशीलता के विरुद्ध चलते हैं, गतिशीलता के विरुद्ध जाकर कोई ठीक नहीं रह सकता, कोई बच नहीं सकता क्योंकि गतिशीलता का विरोध करने का अर्थ है- मृत्यु का वरण करना, मृत्यु का आह्वान करना इसलिए चलना ही होगा लेकिन कहाँ? मानव -धर्म की धूरी पर। अतीत में देखा गया है जो शिथिल हो रुक जाते हैं, भटक जाते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। हालांकि सब समय धर्म की गति एक सी नहीं रहती। कभी कम होती है तो कभी बढ़ती है, जब गति कम होती है तब समाज पंक कुण्ड में जा धंसता है और जब बहुत ही कम हो जाती है तब समाज में गंदगियों का पहाड़ खड़ा हो जाता है। इस कारण दूसरे स्तर पर गति की द्रुति को बहुत बढ़ाना पड़ता है क्योंकि स्वाभाविकता लाना ही यथेष्ट नहीं होता क्योंकि अगति के कारण जो गंदगियां जम गई थी उन्हें भी दूर करना आवश्यक हो जाता है। हर इंसान का यह फर्ज है कि वे जब देखेंगे कि समाज की गति में द्रुति रुक गई है तो गति में द्रुति लाने के लिए धक्का लगाएंगे धक्का लगाने वाले ही सद्विप्र हैं, वही है समाज के वरेण्य, समाज के पूजनीय समाज के पथ प्रदर्शक ।   

           प्राचीन काल के मनुष्य को आग का आविष्कार करने में लाखों वर्ष लग गये, बैलगाड़ी का आविष्कार करने में लाखों वर्ष लगे थे। इसलिए अनेक प्राचीन सभ्यताएं अतीत में इतिहास के पन्नों से अवलुप्त हो गयी हैं। इसका एकमात्र कारण है, वे पहिये का आविष्कार नहीं कर पाये थे। उन्होंने नाव का आविष्कार किया था किन्तु पहिये का आविष्कार न कर सकने के कारण गाड़ी का आविष्कार नहीं कर पाये थे। दक्षिण अमेरिका की 'माया सभ्यता' का पतन इसी तरह से हुआ था ।

   जीव की मृत्यु होती है। मृत्यु भी हुआ एक विशेष परिवर्तन है, वह ऐसा परिवर्तन है कि पूर्व के आदिम रूप के साथ वर्तमान रूप का कोई सामंजस्य नहीं है। एक शिशु की (रूपगत) मृत्यु हो गई- एक परिवर्तन हुआ। किन्तु हम लोग सामान्य रूप से समझते हैं कि यही शिशु बालक हुआ है। वह ही युवक हुआ है, वह ही प्रौढ़ हुआ तथा वह ही वृद्ध हुआ– इसे हम लोग सामान्य रूप से समझ लेते हैं, किन्तु वही वृद्ध जब फिर से शिशु होकर आया, तब पार्थक्य इतना अधिक हो गया है कि हम उस सम्बन्ध को फिर से खोज नहीं पाते। मृत्यु भी एक परिवर्तन है, और जन्म ग्रहण करना भी एक परिवर्तन है ।

-       इतिहास बताता है, ऐसा छोटा मोटा परिवर्तन चलता ही रहता है। किन्तु बीच-बीच में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आता है। जैसे प्राचीन काल के मनुष्य को जब कुछ जरूरत पड़ती, उसे सूर्य के ताप से काम चला लेते अर्थात् धूप में गर्म करके काम चला लेते। तब आग का आविष्कार नहीं हुआ था। परवर्ती काल में मनुष्य ने आग का आविष्कार किया; वह भी विराट परिवर्तन कह कर माना गया। मनुष्य के इतिहास में प्राचीन काल के मनुष्य ने जब बैलगाड़ी का आविष्कार किया, तो वह भी एक विराट परिवर्तन था। यह एक बड़े प्रकार का वैज्ञानिक आविष्कार था ।

    मनुष्य समाज के प्रागैतिहासिक युग के बाद सभ्यता का आगमन कह सकते हैं, आज से पन्द्रह हजार वर्ष पहले अर्थात् ऋगवेद के समय में हुआ। किन्तु ऋगवेद की रचना चल रही थी गत पन्द्रह हजार वर्षों से गत पाँच हजार वर्षों के बीच तक- अर्थात् दस हजार वर्षों तक। ऋक् वेदीय युग के अन्त में सदाशिव के समय अब, बड़ा परिवर्तन आया।

 तो सदाशिव के समय में हम पाते हैं-उन्होंने मनुष्य के जीवन के धारा प्रवाह को, विभिन्न अभिव्यक्तियों को विभिन्न रूप दिया-नृत्य में, गान में, चिकित्सा में, सभ्यता में सभी कुछ में। अतः यह हुआ एक बड़ा परिवर्तन, अतिवृहत् परिवर्तन-जो परिवर्तन इसके पहले कभी नहीं हुआ था।

     एक बड़ा परिवर्तन, विराट विप्लव-यह सब साधारण नेता या साधारण ऋषि के द्वारा सम्भव नहीं है। इस तरह का परिवर्तन जो लाते हैं, मैं उन्हें ही कहता हूँ सदविप्र-जो वास्तविक रूप से इस परिवर्तन के साथ मनुष्य को सम्भाल कर ले चलना जानते हैं, चल सकते हैं तथा पथ निर्देशना देते हैं। किन्तु ऐसा विराट परिवर्तन जब आता है जैसे सदाशिव ने लाया-वह सदविप्र का काम नहीं है। 

  दार्शनिक परिभाषा में  लोग उस नेता को कहते हैं- महासदविप्र, किन्तु शास्त्र की भाषा में उन्हें कहा जाता है तारक ब्रह्म। सदाशिव थे 'तारक ब्रह्म', 'महासदविप्र'-जो मनुष्य जाति के सर्वात्मक नेता हैं।

       फिर इस परिवर्तन के बाद धीरे-धीरे गति में शिथिलता आई, गति का वेग कम हो गया-नाना आविलता, आवर्जना आई। विभिन्न यन्त्रों में जंग पकड़ लिया। तब आवश्यकता पड़ी पुनः महासद्विप्र के आने की-जो फिर से धक्का देकर ठीक ढंग से ठीक पथ पर मनुष्य को चला सकें। 

      आज से अनुमानिक साढ़े तीन हजार वर्ष पहले श्रीकृष्ण आए। उन्होंने भी ठीक ऐसा ही परिवर्तन लाकर मानव समाज में नया एक प्राण स्पन्दन जगा दिया था। कृष्ण के समय भी क्या हुआ ? कृष्ण मानव समाज में विराट परिवर्तन लाए। किन्तु उनके जो सहायक थे वे सभी लोग ज्ञानी गुणी, महामहोपाध्याय पण्डित थे ? ऐसी बात नहीं, वे साधारण मनुष्यों में से ही आए थे। वे थे भक्त, वे मनुष्य के कल्याण करने हेतु कृष्ण का निर्देश चाहते थे। वे ब्रज के गोप बालक थे, व्रज की गोपियाँ थीं। उनकी एकमात्र पूँजी थी इष्ट निष्ठा। कृष्ण के प्रति निष्ठा। वे इसीलिए सार्थक हो उठे थे। विद्या बुद्धि से उतना अधिक कार्य नहीं होता है, जितना कि आन्तरिकता से।

     युग बदल गया है। आज नाना प्रकार की समस्यायें आई हैं। नये-नये प्रकार की प्रस्तुति की आवश्यकता दिखाई पड़ रही है- मानसिक प्रस्तुति, शारीरिक प्रस्तुति-सर्वात्मक प्रस्तुति। समाज के रोम रोम में आविलता अणुप्रविष्ट हो गई है। इनके विरुद्ध में सच्चे मनुष्य को एकजुट होकर परिवर्तन संसाधित करना होगा। इतना ही नहीं परिवर्तन लाने के लिए मनुष्य को सम्पूर्ण रूप से स्वयं को तैयार करना होगा। जिस प्रकार बुरा कार्य करने के लिए भी मनुष्य को तैयार होना पड़ता है, उसी प्रकार अच्छा कार्य करने के लिए भी मनुष्य को तैयार होना पड़ता है। उसका एक प्रस्तुति पर्व होता है। दीर्घ काल से प्रस्तुति पर्व चल रहा है, आज परिवर्तन अवश्यम्भावी हो गया है। और देर करना मानो बर्दास्त नहीं हो रहा है ।

   आज श्री कृष्ण के समय के बाद प्रायः साढे तीन हजार वर्ष हो गये हैं। शिव के समय से प्रायः आज सात हजार वर्ष हो गये हैं। आज के मनुष्य को भी उसी तरह से तैयार होना पड़ेगा। नये आदर्श को लेकर नवतर संग्राम में कूद पड़ना होगा, मनुष्य जाति के सामूहिक कल्याण के लिए। जब ऐसा विराट परिवर्तन अतीत में आया है जिस तरह से शिव के समय में आया था, कृष्ण के समय में आया था तब नये दर्शन, नये जीवनवाद से प्रकाश प्रदीप्त करने की प्रेरणा लेकर मनुष्य प्रस्तुत हुआ था। इसीलिए उन्होंने थोड़े समय में ही अपने कार्य को पूरा कर लिया था। परिवर्तन लाने के लिए संग्राम करना ही होगा। और वह संग्राम कभी अधिक समय लेता है, तो कभी कम समय लेता है। जहाँ पर किसी विराट पुरुष से प्रेरणा लेकर मनुष्य कार्य में लगता है, तब कुछ ही समय में ही वह हो जाता है। तब मनुष्य को सोच-समझ कर देखना पड़ता है कि उनके समक्ष कौन-कौन सी समस्यायें हैं। और उसी के मुताबिक अपनी उन समस्याओं के समाधान के लिए तैयार होना पड़ता है। तैयार हो जाने पर काफी कम समय में ही वह अभीष्ट सिद्धि हो सकती है। तो आज के इस मनुष्य समाज को खण्डित रूप में न देख अखण्ड रूप में देखना होगा तथा जिन बड़े परिवर्तनों की आवश्यकता आई है, आवश्यकता तो आ ही गई है- तथा उनमें कौन कौन अत्यन्त मुख्य हैं और कौन गौण हैं, उन्हें छाँटकर मुख्य समस्याओं के समाधान के लिए तुरन्त ही, इसी मुहूर्त से ही मनुष्य को तैयारी करनी होगी, क्योंकि जितनी देर होती है, की जाती है, मनुष्य जाति के दुःख का दिन उतना ही दीर्घायत, होगा। इसलिए विलम्ब करने से नहीं चलेगा।  मनुष्य जाति के सामूहिक कल्याण के लिए सामाजिक अर्थ नैतिक मानव-दर्शन (Socio Economic Human Philosophy)  लेकर हमें  सत्कर्म में अपना- अपना योगदान सुनिश्चत करना चाहिए। कहावत है 'शुभस्य शीघ्रम्' अशुभस्य कालहरणम् । शुभ कार्य जब करना ही है, तब पोथीपत्रा, तिथि, नक्षत्र देखकर करने की जरूरत नहीं। इसी मुहूर्त से जुट जाने की जरूरत है। और जब अशुभ कार्य करना पड़े, तब जितना हो सके देरी कर दो, जिससे देर करते-करते मनोभाव में परिवर्तन आ जाता है- मन सोचता है- नहीं, यह सब बुरा काम है, वह सब मैं नहीं करूँगा ।तो सत्कार्य में जब हमलोगों को जुटना है, और सत्कार्य जब कर रहे हैं  तब थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए क्योंकि इस व्यावहारिक जगत् में, इस आपेक्षिक जगत् में सबसे मूल्यवान् आपेक्षिक तत्त्व है 'समय'। समय एक बार बीत जाने पर और फिर वापस नहीं आता। इसलिए समय का अपव्यवहार या अव्यवहार नहीं करना चाहिए।

   #  (संकलन)

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