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बुधवार, 17 अगस्त 2022

स्वतंत्रता का उपभोग

 

स्वतंत्रता का उपभोग

    मनुष्य कामना करता है कि उसके विचारों, आचरण को किसी प्रतिरोध का सामना न करना पड़े। मनुष्य स्वयं निर्णय करना चाहता है कि उसे कैसे विचार धारण करने हैं और कैसा आचरण करना है। इसे वह पूर्ण स्वतंत्रता मानता है। हालांकि पूर्ण स्वतंत्रता जैसी कोई अवधारणा व्यावहारिक नहीं है। पूर्ण स्वतंत्र मनुष्य भी कम से कम स्व हित के अंकुश में रहता ही है। जब स्व हित को केंद्र में रख कर मनुष्य अपने विचारों और आचरण का निर्धारण करता है तब उसमें दायित्व की भावना जन्म लेती है।

    स्वहित सुनिश्चित करना है तो अवगुण त्यागने होंगे, क्योंकि उनका कुफल भोगना पड़ता है। अवगुणी, कदाचारी की स्वतंत्रता सर्वप्रथम स्वयं उसके लिए अभिशाप बनती है। नदी का पानी बहने को स्वतंत्र है, किंतु जब वह किनारे तोड़ देता है तो अपना मोल खो देता है। वायु प्रवाह की गति सामान्य सीमा लांघ जाती है तो धूल से भर जाती है। मनुष्य के घर से बाहर खड़े रहने पर कोई रोक नहीं है, किंतु जब वह लंबे समय तक निष्प्रयोज्य धूप में खड़ा रहे तो उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता है। स्वतंत्रता . स्व हित से ही आरंभ होनी चाहिए। यदि मनुष्य का व्यवहार संयमित, शिष्ट एवं सद्भावपूर्ण होगा तो उसे आत्मसंतुष्टि प्राप्त होगी। यदि उसमें लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, अनुदारता, संकीर्णता होगी तो वह सहज नहीं रह सकेगा और स्वयं ही संताप सहेगा। अपने किसी विचार, किसी कर्म की परख सर्वप्रथम आत्मिक अनुभूति की कसौटी पर ही करनी चाहिए। आत्मसंतुष्टि स्वाधीनता है और संताप पराधीनता है। अंतर्मन की स्वतंत्रता ही बाहर प्रकट होती है। यह मन से मानव समाज तक की यात्रा है। मनुष्य के विचार एवं आचरण समाज तथा देश को पूर्णता में प्रभावित करते हैं। जब तक अपने मन की निर्मलता
अक्षुण्ण रहेगी, स्वतंत्रता का आनंदपूर्ण उपभोग करने की योग्यता बनी रहेगी। जब स्वहित के साथ सर्वहित का सुयोग हो जाता है, तब स्वतंत्रता के आनंदित उपभोग का अवसर बन जाता है।


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