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शनिवार, 1 अक्तूबर 2022

ज्ञान और श्रद्धा

 ज्ञान और श्रद्धा


भगवान कृष्ण ने गीता में ज्ञान और श्रद्धा का विस्तार से वर्णन किया है। श्रद्धा वस्तुतः क्रमबद्ध ज्ञान, बुद्धि और मन की सीढ़ियों को पार करके प्राप्त होती है। कुरुक्षेत्र में जिस प्रकार अर्जुन दुविधाग्रस्त थे, उसी तरह आज भी तमाम लोग जीवन-रण में जूझ रहे हैं। इस संघर्ष के मूल में है ईश्वर के प्रति श्रद्धा का अभाव। यदि मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान और गुरु का मार्गदर्शन प्राप्त है तो वह मन को नियंत्रण कर दैवीय मार्ग पर उन्मुख हो सकता है, परंतु यदि मनुष्य को ज्ञान ही नहीं तो वह अच्छे-बुरे का निर्णय नहीं कर पाता। अपनी इंद्रियों के भोग में लिप्त होकर पतन के मार्ग पर चला जाता है। इसलिए मनुष्य को संसार में उचित ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयासरत होकर गुरु की शरण में जाना चाहिए ।


बुद्धि ज्ञान द्वारा सर्वप्रथम मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों को नियंत्रित करती है, जिससे वे अनैतिक एवं अपवित्र अनुभव मन तक न पहुंचा सकें। यदि ऐसे अनुभव मन तक पहुंच भी जाते हैं, तो बुद्धि उन्हें ज्ञान की शक्ति द्वारा वहां से निकाल देती है। इस प्रकार मनुष्य का मन निर्मल हो जाता है और वह स्वयं को ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर करने में सक्षम हो पाता है। इसी निर्मल मन से वह अपना जीवन युद्ध ईश्वर को समर्पित करके लड़ता है। इसमें कर्म योग के ज्ञान द्वारा वह निष्काम कर्म करके कर्मफल ईश्वर को समर्पित करता है। इस प्रकार मनुष्य कर्मफल से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसने पहले ही उसे ईश्वर को समर्पित किया होता है। यानी कर्म योग की सिद्धि भी ज्ञान की शक्ति से ही संभव हो सकती है।


जीवन के महाभारत युद्ध रूपी रण को जीतने के लिए मनुष्य को ज्ञान प्राप्ति का ही प्रयास करना चाहिए, क्योंकि ज्ञान की शक्ति द्वारा ही वह अर्जुन की भांति अपने जीवन युद्ध में सफल हो सकता है। ज्ञान की इस प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति श्रद्धा के पथ का अनुगमन आवश्यक होता है।

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