धन लिप्सा
सांसारिक जीवन को संचालित करने के लिए धन-संसाधन आवश्यक हैं, लेकिन ऐसा कभी नहीं होना चाहिए कि केवल वही हमारे जीवन का उद्देश्य बनकर रह जाए। आवश्यकता से अधिक धन की लिप्सा का भाव हमारे भीतर अवगुणों का बीजारोपण करता है। इसके कारण हम रुग्ण हो जाते हैं। यह रोग धन का रोग है, जो अथाह धन संग्रह पर भी बढ़ता ही चला जाता है। धन की प्यास कभी बुझती नहीं है, बल्कि उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जाती है। धन के प्रति अत्यधिक मोह प्रायः अनीति और पतन की ओर ले जाता है। यह मार्ग हमें एक भीषण दलदल की ओर घसीटता है। हमें पता भी नहीं लगता कि हम अर्थ की खोज में कब अनर्थ को गले लगा बैठे। हम अर्थ के संग्रह के लिए अनर्थ की घुड़सवारी करने लगते हैं। अथाह धन संग्रह की यात्रा यात्री में विकृतियां पैदा कर देती हैं। उसका यात्रा मार्ग अनेक तरह के अपराधों को जन्म देने लगता है। इस यात्रा में वह जाने-अनजाने अपराधी बन बैठता है। अपार धन की चाह व्यक्ति के जीवन की राह बदल देती है। वह ऐसी राह चुन लेता है, जिस पर चलना उचित नहीं होता। यह राह उसे गर्त में धकेलती है। धन लिप्सा का भाव त्याज्य है। यह हमें जड़वत बना देता है। यह दोषपूर्ण भाव मानसिक अवसाद भी उत्पन्न करता है।
संप्रति पैसे की भूख ने व्यक्ति को जीवन के वास्तविक उद्देश्य से भटका दिया है। लोग येन- केन-प्रकारेण धन संग्रह की जुगत में लगे रहते हैं। रातोंरात धनाढ्य बनने के स्वप्न देखते हैं। इसका कारण विलासितापूर्ण जीवनशैली है। अपनी जीवनशैली को व्यक्ति ने इच्छाओं से अत्यधिक ओतप्रोत कर दिया है। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति के लिए वह धन संग्रह की दौड़ में लगा रहता है। धन लिप्सा के भाव पर अपरिग्रह की साधना से विजय प्राप्त की जा सकती है। संयम की बूटी से ही धन लिप्सा का रोग ठीक किया जा सकता है।
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