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सोमवार, 12 सितंबर 2022

हृदयतत्व की प्रधानता

हृदयतत्व की प्रधानता

इस जगत में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जिसे प्रकृति से श्रेष्ठता का दर्जा प्राप्त है। इसका कारण उसमें अन्य जीवों की अपेक्षा बुद्धितत्व और हृदयतत्व की प्रधानता है। जीवन में किसको प्रमुखता देनी है, यह मनुष्य पर निर्भर है। बुद्धितत्व तर्क प्रधान है। अतः इसमें स्वार्थ, लोभ, मोह आदि बुराइयों - के साथ चातुर्य का भाव प्रबल रहता है। जब ये बुराइयां मानव मस्तिष्क में आ जाती हैं। तब विवेक नष्ट होने से वह समाज के साथ अपना भी अहित कर बैठता है। निरा बुद्धिपरक जीवन न अपने लिए श्रेष्ठ कहा जा सकता है, न औरों के लिए। आजकल पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में बिखराव का मूल कारण बुद्धितत्व की प्रधानता है। 


दूसरी ओर हृदयतत्व भाव प्रधान है। इसमें प्रेम, त्याग, दया, करुणा, ममता, परोपकार आदि भावनाएं प्रबल होती हैं। इसीलिए हृदय तत्व हमेशा इन्हीं भावनाओं को आगे रखकर जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है। जिससे चेतन ही नहीं, जड़ पदार्थों के प्रति भी संवेदनशीलता का भाव जागृत होता है। फिर अंतर्मन में स्वार्थ नहीं, परार्थ की भावना उत्पन्न होती है। जिससे पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते आत्मीयता के बंधन में बंध जाते हैं। परिणामतः अपराध मुक्त समाज का निर्माण होता है और राष्ट्रीय शक्ति बलवती होती है।


आज मनुष्य में बुद्धिपक्ष प्रबल हो गया है। जिससे स्वार्थ और अहंकार के वश में उसने स्वेच्छा से जीने के अनेक मार्ग तलाश लिए हैं। अधिक सुख की चाहत में उसकी उड़ान को इतने पर लग गए कि हृदयपक्ष शून्य हो गया। परिणामतः संवेदनहीन मानव मानवता की राह से भटक गया। उसकी अधिक सुख पाने की कोशिशें कब दुख में परिणत होने लगीं, पता ही नहीं चला। वह भूल गया कि अधिक सुखेषणा ही दुख का कारण बनती है। इसलिए लोकहित में हृदयतत्व को प्रधानता देकर जीने का प्रयास करना चाहिए। स्वभावतः यथासमय बुद्धितत्व का समावेश तो होता ही है।


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