लोक कलाकार भिखारी ठाकुर
(18 दिसम्बर 1887 - 10 जुलाई सन 1971)
भोजपुरी के समर्थ लोक कलाकार, रंगकर्मी लोक जागरण के सन्देश वाहक, लोक गीत तथा भजन कीर्तन के अनन्य साधक के रूप में भिखारी ठाकुर को जाना जाता है । वे बहु आयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे। वे भोजपुरी गीतों एवं नाटकों की रचना एवं अपने सामाजिक कार्यों के लिये प्रसिद्ध हैं। वे एक महान लोक कलाकार थे जिन्हें 'भोजपुरी का शेक्शपीयर' कहा जाता है।
विख्यात काव्य नाटक "बिदेसिया" के लेखक भिखारी ठाकुर बहुआयामी प्रतिभा के व्यक्ति थे।
वे एक ही साथ कवि, गीतकार, नाटककार, नाट्य निर्देशक, लोक संगीतकार और अभिनेता थे। भिखारी ठाकुर की मातृभाषा भोजपुरी थी और उन्होंने इसी भाषा में अपने काव्य रचे जो भोजपुरी समाज में लोगों की जुबान पर चढ़े।
भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसम्बर 1887 को बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर (दियारा) गाँव में एक नाई परिवार में हुआ था। जीविको पार्जन के लिए खड़कपुर गये और खूब पैसे कमाए लेकिन मन नहीं भरा तो गांव की तरफ रवाना हो गये।
भिखारी ठाकुर ने अपने 'नाच' के माध्यम से न सिर्फ़ लोक रंगमंच को मज़बूती प्रदान की बल्कि समाज को भी दिशा देने का काम किया है.
, भिखारी ठाकुर का कलाकार मन आखिर जागा कैसे? वाक्या कुछ यूं है- किशोरावस्था में ही उनका विवाह मतुरना के साथ हो गया था। लुक-छिपकर वह नाच देखने चले जाते थे। नृत्य-मंडलियों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी अदा करने लगे थे। लेकिन मां-बाप को यह कतई पसंद न था। एक रोज गांव से भागकर वह खड़गपुर जा पहुंचे। इधर-उधर का काम करने लगे। मेदिनीपुर जिले की रामलीला और जगन्नाथपुरी की रथयात्रा देख-देखकर उनके भीतर का सोया कलाकार फिर से जाग उठा।
भिखारी ठाकुर जब गांव लौटे तो कलात्मक प्रतिभा और धार्मिक भावनाओं से पूरी तरह लैस थे। परिवार के विरोध के बावजूद नृत्य मंडली का गठन कर वह शोहरत की बुलंदियों को छूने लगे। तीस वर्ष की उम्र में उन्होंने विदेसिया की रचना की। फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। जन-जन की जुबान पर बस एक ही नाम गूंजने लगा- भिखारी ठाकुर!
बिहार के छपरा शहर से लगभग दस किलोमीटर पूर्व में चिरान नामक स्थान के पास कुतुबपुर गांव में भिखारी ठाकुर का जन्म पौष मास शुक्ल पंचमी संवत् 1944 तद्नुसार 18 दिसंबर, 1887 (सोमवार) को दोपहर बारह बजे शिवकली देवी और दलसिंगार ठाकुर के घर हुआ था। यह गांव कभी भोजपुर (शाहाबाद) जिले में था, पर गंगा की कटान को झेलता सारण (छपरा) जिले में आ गया है। इसी गांव के पूर्वी छोर पर स्थित है भिखारी ठाकुर का पुश्तैनी घर।
मां-बाप की ज्येष्ठ संतान भिखारी ठाकुर ने नौ वर्ष की अवस्था में पढ़ाई शुरू की। एक वर्ष तक तो कुछ भी न सीख सके। साथ में छोटे भाई थे बहोर ठाकुर। बाद में गुरु भगवान से उन्होंने ककहरा सीखा और स्कूली शिक्षा अक्षर-ज्ञान तक ही सीमित रही। बस, किसी तरह रामचरित मानस पढ़ लेते थे। कैथी लिपि में लिखते थे। लेखन की मौलिक प्रतिभा उनमें जन्मजात थी। एक तरह से वह शिक्षा के मामले में कबीर दास की तरह ही थे।
वर्ष 1938 से 1962 के बीच भिखारी ठाकुर की लगभग तीन दर्जन पुस्तिकाएं छपीं। इन किताबों को लोग फुटपाथों से खरीदकर खूब पढ़ते थे। अधिकतर किताबें दूधनाथ प्रेस, सलकिया (हावड़ा) और कचौड़ी गली (वाराणसी) से प्रकाशित हुई थीं। नाटकों व रूपकों में बहरा बहार (विदेसिया), कलियुग प्रेम (पियवा नसइल), गंगा-स्नान, बेटी वियोग (बेटी बेचवा), भाई विरोध, पुत्र-वधू, विधवा-विलाप, राधेश्याम बहार, ननद-भौजाई, गबरघिचोर उनकी मुख्य किताबें हैं।
समालोचक महेश्वराचार्य ने उन्हें 1964 में जनकवि कह कर संबोधित किया था। इसी तरह कथाकार संजीव ने भिखारी ठाकुर की जीवन यात्रा पर 'सूत्रधार' उपन्यास की रचना की है। यह उपन्यास पढ़कर कोई भी भिखारी ठाकुर की पूरी जिंंदगी को समझ सकता है। इसमें कई ऐसे प्रसंग की चर्चा है जिन्हें पढ़कर आप रो पड़ेंगे।
राहुल सांस्कृत्यायन ने कहा था भोजपुरी का शेक्सपियर।
धोती, कुर्ता, मिरजई, सिर पर साफा और पैर में जूता पहनने के शौकीन भिखारी ठाकुर गुड़ खाने के बहुत शौकीन थे। 10 जुलाई, 1971 (शनिवार) को 84 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी को भोजपुरी का शेक्सपियर और अनगढ़ हीरा कहा था। जगदीशचंद्र माथुर ने उन्हें भरतमुनि की परंपरा का (प्रथम) लोक नाटककार कहा था।
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