दया भाव
दया को मानवीय
गुणों में सर्वोत्तम की संज्ञा दी जाती है। वास्तव में यह वह भाव है जो मानवीयता
था पोषित करता है। दया दैवीय गुण है। दया के बिना मनुष्यता परिभाषित नहीं की जा
सकती। मानव जीवन में दया के कारण ही मानवता का भाव संरक्षित है। जो दयालु नहीं, उसमें मनुष्यता
नहीं है, उसमें मानवता भी
कहां है? किसी के प्रति
द्रवित हो जाना। उसकी पीड़ा को अनुभव करना। यही तो दया का प्रभाव है। या भाव ही है
जो हमारे हृदय को स्पंदित कर देता है। हमें परोपकार के लिए उद्वेलित करता है। हमें
किसी की सुरक्षा के लिए जागृत करता है। दयालुता और निर्दयता के भागों में ही किसी
के मनुष्य और गाना होने की बीच का अंतर स्पष्ट होता है। दयालुता आपको श्रेष्ठ बना
देती है। वही निर्दयता मनुष्य की मलिन मन को प्रदर्शित करती है। हमारा समाज आपसी
सहयोग और स्नेह से ही दीर्घजीवी बना हुआ है। इसके मूल में भी दया का भाव सुरक्षित
है। अगर इसके मूल को विखंडित किया जाएगा तो समाज का अस्तित्व ही संकट में पड़
जाएगा। दया का गुण मां से शिशु में संस्कारित होता है। शिशु को तरुण, युवक बनने पर यह
जितना सबल होगा उसकी श्रेष्ठता उतनी ही अधिक होगी। दया का भाव विनम्रता को पोषित
करता है। दया जीव मात्र के प्रति स्नेह को प्रेरित करती है। यह गुण हमें किसी के
भी अहित से रोकता है। समाज के भीतर अगर यह गुण संचारित हो जाएं तो हम असंभव को भी
संभव कर सकते हैं। सामाजिक वैमनस्य के मूल में कहीं ना कहीं दया के भाव का लुप्त
होना है। राष्ट्र की अखंडता के लिए सामाजिक ताने-बाने को मजबूत रखना अनिवार्य है।
आपसी सौहार्द ही समाज की एकता का अनिवार्य तत्व है और इस तत्व के पीछे दया, करुणा जैसे गुणों
का भाव। दया के लक्षण मनोजता के द्योतक हैं। दया का गुण शास्त्रों एवं पुराणों में
भी पूजित है। इसे धारण करने वाला भी स्वयं में पूजनीय हो जाता है। दया देवत्व को
प्राप्त करने का मार्ग है। इस मार्ग का पथिक श्रेष्ठ जीवन यापन करता है।
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