इस ई-पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने लेख कृपया sampadak.epatrika@gmail.com पर भेजें. यदि संभव हो तो लेख यूनिकोड फांट में ही भेजने का कष्ट करें.

रविवार, 12 मार्च 2023

वरिष्ठ रंगकर्मी श्री ओम प्रकाश नारायण

 स्मृति के आईने में 

वरिष्ठ रंगकर्मी श्री ओम प्रकाश नारायण



                       -डा. भानु प्रकाश नारायण 

          बिहार के सिवान जिले के गोरियाकोठी अंचल के अंतर्गत पुरंदरपुर गांव में 3 जनवरी 1941 को श्री ओम प्रकाश नारायण का जन्म हुआ था. इनके पिता का नाम  जगदीश नारायण एवं माता का नाम देवझरी देवी था. पेशे से शिक्षक श्री नारायण ने महात्मा गांधी की कर्म भूमि मोतिहारी( पूर्व चंपारण) को अपनी कर्मभूमि बनाया. इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिशन  इंग्लिश स्कूल बेतिया (पश्चिम चंपारण) में तथा अंतिम शिक्षा मुंशी सिंह कॉलेज मोतिहारी पूर्वी चंपारण में हुई है.

       अपने गौरवमयी परंपरा के धनी भारत के गांव में इनका भी एक गांव है , जहां ग्रीष्मकालीन रामलीला का मंचन हुआ करता था ,जो जन जीवन में अभिनय की परंपरा के रूप में व्याप्त था. बालमन उस कच्ची मिट्टी की तरह होता है ,जिससे जैसी आकृति गढ़ना चाहे गढ़ ले. कलाकारों की कला अभिनय देखकर बचपन में ही इनके अंदर का कलाकार अंकुरित होने लगा था. सच है, विश्वास ,आशा एवं आकांक्षाएं रोककर नहीं रखी जा सकती.

     1954-55 वर्ष केआते-आते इन्होंने प्रेमचंद द्वारा रचित" नमक का दरोगा ",'पूस की रात 'तथा राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, विष्णु प्रभाकर आदि नाटककारों  नाटकों का मंजन प्रारंभ कर दिया था . इन्होंने 'नमक का दरोगा ' नामक नाटक से ही मुख्य भूमिका अभिनीत करनी शुरू कर दी जो बाद के क्षणों तक कायम रहा.

         1961 में विभिन्न विधाओं के धनी एन्थोनी 'दीपक' जो महावीर ललिता मिडिल स्कूल के हेडमास्टर थे, उनके प्रयास से श्री नारायण उस विद्यालय के शिक्षक  बन गये.पढ़ना पढ़ाना, खेलकूद ,सांस्कृतिक गतिविधियों का एक स्थान पर मिलना प्रारंभ हुआ. दीपक जी के लिखे नाटकों  एवं निर्देशन में इन्हें भी मौका मिलना शुरू हुआ. 'मिस्टर मेवानंद' , 'जहांगीर का दरबार' ,'कब्बा सम्मेलन ' आदि चित्र मंदिर छवि गृह का यादगार बना.

       केंद्रीय नवयुवक पुस्तकालय , मोतिहारी का कला मंच नाटक प्रतियोगिता में 'बाप- बेटा ' पुरस्कृत हुआ, सबेरा ,चांदी का जूता , कंजूस चाचा, मीना कहां है आदि नाटकों में इन्हें  मुख्य भूमिका अभिनीत करने का मौका मिला जो 1975 तक चलता रहा.

       1960 से नाटक और रंगमंच के इतिहास में नयी उपलब्धि का दौर शुरू हुआ. नाटक सिर्फ मनोरंजन का साधन ही नहीं जीवन  दर्पण बना.

      सन् 1966 में आदर्श कला संगम ने श्रीराम नरेश प्रसाद सिंह द्वारा रचित "घाटियां गूंजती हैं,"को चौरिटी शो में लाल बहादुर शास्त्री सेवा निकेतन फण्ड के लिए चित्रमंदिर छवि गृह में आयोजित किया गया। नाटकों के मंचन में दर्शकों को यह पहला मौका मिला कि नायिका के रूप में ज्योत्सना रानी मजुमदार को देखा और श्री नारायण ने नायक की भूमिका अभिनीत की।

नाटक की काफी सराहना हुई . कलाकारों को सम्मान मिला . ललिता शास्त्री के नाम पांच हजार एक रुपया भेजा गया था.

        1977 में तीसरी बार नाटक मुंशी सिंह महाविद्यालय के कला मंच पर आयोजित हुआ नाटक में एक मध्यमवर्गीय जीवन के विकृतियों, खोखलेपन और कृत्रिमता  को उद्घोषित किया गया था .

          दिल्ली जनसंपर्क विभाग द्वारा विद्यापति बैले का आयोजन जिला स्कूल के खेल मैदान में आयोजित था. बाहर के कलाकारों के स्वागत में आदर्श कला संगम ने गोपाल  साह उच्च विद्यालय के कला मंच पर 'लोक , देश और स्वतंत्रता' नामक एकांकी प्रस्तुत किया.  इस एकांकी में श्री नारायण ने पागल, विक्षिप्त ,अस्त-व्यस्त वेशभूषा वाले नायक की भूमिका की थी , जो हंसते-हंसते रोने लगता था और उसी क्रम में कुछ ऐसी बातें कह जाता है जिसे सुनने के लिए दर्शक सजग हो उठते थे.

      1970- 71, 'आदमी ' एकांकी में वर्तमान जीवन के गंभीर और सामान्य समस्याओं का यथार्थ चित्रण था, जो पारिवारिक जीवन पर लिखा गया दु:खान्त एकांकी था। यह पारिवारिक एकांकी बंगला इंस्टिट्यूट के रंगमंच पर चढ़ा. हिंदी एकांकी का वहां होना एक चुनौती से कम नहीं था. स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं ने एकांकी की सराहना छापी, दिल्ली से निकलने वाले बहुचर्चित पत्रिका 'सारिका' ने  नायक और  उनकी बेटी की तस्वीर छापी .             श्री नारायण को नायक 

की प्रस्तुति के लिए सम्मानित किया गया.

        तब तक नई पीढ़ी जवान हो चुकी थी. कई नई सांस्कृतिक संस्थाओं का उदय हो चुका था . फिर भी विभिन्नता में एकता दिखाई पड़ती थी . लगता था सारी संस्थाएं इनकी हो

 और यह सब के थे .जिस संस्था को इनकी जरूरत होती ,बेहिचक में इनका उपयोग करते थे .अब इनसे उद्घोषणा. पुरस्कार वितरण , कार्यक्रम का उद्घाटन ,

ओर निर्देशन कराया जाने लगा था.

        विद्यालयी सेवा जो इनकी रोजी थी, पहचान थी,  के आखिरी पड़ाव पर 1999 2000 वर्ष शिक्षक सम्मान दिवस समारोह का संयोजक एवं उद्घोषक इन्हें ही बनाया गया था .अगले 4 माह बाद सेवा से अवकाश प्राप्त कर अपने गृह जिला सिवान  दिसंबर 2001 में आ गये.

 यह सच है कि किसी इंसान की तहजीब और तकदीर को तराशने में उसके पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश की बड़ी अहमियत होती है . लेकिन उसकी काबिलियत और तरक्की में अपने खुद के द्वारा किए गए  की लंबी दास्तां छिपी होती है . अगर आपके पास जुनून है तो सफलता आपके पास चलकर आएगी, बस आपको चलते रहना है, चलते रहना है..........

    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें