स्वयं की खोज
संसार के समस्त प्राणियों में मनुष्य प्रकृति की सबसे अद्वितीय रचना है । कतिपय कारणों से मनुष्य अपनी इस विशिष्टता को जानने एवं समझने का प्रयास ही नहीं करता। वह अज्ञानता के अंधकार में विचरण करता रहता है। यही अज्ञानता ही मनुष्य के दुखों का कारण बनती है। मनुष्य में जब श्रेष्ठताबोध का भाव घर करता है तो वह अंधकार के पथ पर आरूढ़ होता है। श्रेष्ठताबोध में अहंकार निहित होता है और अहंकार मनुष्य का विनाशक है। सर्वश्रेष्ठ केवल जगतपालक अर्थात ईश्वर है। जीवात्मा एक प्रकार से परमात्मा द्वारा निर्मित है, जो परमात्मा द्वारा निर्मित हो वह भला सर्वश्रेष्ठ कैसे हो सकता है? ऐसे में मनुष्य को विनम्र रहकर स्वयं को साधने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
इस उद्देश्य के लिए मनुष्य बाह्य कारकों से विमुक्त होकर आत्मविश्लेषण करे। बुझे हुए प्रकाश पुंज को उसे स्वयं प्रज्वलित करना चाहिए। मनुष्य को भ्रम, क्रोध, कल्पभावनाओं, मिथ्या, वासना, मोहग्रस्त वस्तु से दूर रहकर एकमार्गी होना चाहिए । हमारा ध्यान दुनिया पर है, परंतु स्वयं के अंदर छिपी विराटता में नहीं। स्वयं को जानने के साधन संयम, सत्य वचन, निश्छल प्रवृत्ति, जगत कल्याण की भावना, आत्मविश्लेषण, प्रियवचन, दयालु प्रवृत्ति है। इन तत्वों से जो व्यक्ति परिपूर्ण होता है, उसका सदैव उस परमशक्ति से जुड़ाव बना रहता है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं।
स्मरण रहे कि जगत कल्याण की भावना भी तो ईश्वर का ही एक अंश है। जो मनुष्य स्वयं को नहीं पहचानता, वह अपने जीवन में कभी ईश्वर को नही जान सकता। स्वयं को जान लेना ही ईश्वर को जान लेना है। ईश्वर की खोज को बाहर करना भी मूर्खता ही है, जबकि वह हमारे अंतर्मन में सदैव विराजमान रहता है। आवश्यकता केवल अपने भीतर झांकने और उसे खोजने की है। जो मनुष्य ऐसा कर पाता है, वह स्वयं को स्वयं में खोजकर ईश्वर से साक्षात्कार करने में सक्षम हो जाता है।
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