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शुक्रवार, 31 मार्च 2023

मन।

 मन


मनुष्य का मन बहुत बड़ा जादूगर है। वह एक महान चित्रकार भी है। मन ही ब्रह्म शक्ति का तत्व है। वही संकल्प का साधन है, क्योंकि मन के बिना संकल्प नहीं होता और संकल्प के बिना सृष्टि नहीं, होती। इस सबके बावजूद मन को समझना सहज नहीं है, क्योंकि मन क्षण-क्षण बदलता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण, 'चञ्चलं हि मनः कृष्ण... कहकर मन को अतिशय चंचल बताते हैं। वह कहते हैं कि मन मनुष्य को मथ डालता है। यह बहुत ही बलवान है। जैसे वायु को दबाना कठिन है, वैसे ही मन को वश में करना भी कठिन है।


मन का यह स्वभाव विशेष ही कहा जा सकता है कि यह अंतस की वस्तुओं की उपेक्षा कर बार- बार बाहर ताकता रहता है। जैसे चरती हुई बकरियां पर्याप्त घास रहते हुए भी एक खेत से दूसरे खेत में जाती रहती हैं वैसे ही यह मन भी अपने यथार्थ स्वरूप की अवहेलना कर व्यर्थ में इधर-उधर, दौड़ लगाता फिरता है। इसकी गति बहुत ही तीव्र और वेगवान होती है। मन चाहे तो एक क्षण में अनंत योजन की दौड़ लगाकर आ जाए। चाहे तो किसी प्रिय वस्तु को प्राप्त कर दीर्घकाल तक शांत और तूष्णी यानी मौन स्थिति में बैठा रहे वहीं कई अवसरों पर मालूम होता है कि एक ही अवस्था में यह अनेक विषयों पर एक साथ विचार कर लेता है। मन की स्थिति विनिश्चयात्मक नहीं होती, बल्कि संशयात्मक होती है। इसके संशयात्मक स्वरूप का कारण साधक का अज्ञान और अविश्वास है।


ऐसे में मन को वश में करने के लिए जरूरी है कि साधक अपनी आवश्यकताओं को निरंतर कम करता जाए। साथ ही अपनी कल्पनाओं की उड़ान को भी न्यून से न्यूनतर करता जाए। ऐसा करने के लिए निरंतर अभ्यास और वैराग्य की आवश्यकता होती है। अभ्यास और वैराग्य से विषयासक्त और बंधनग्रस्त मन निर्विषयक मुक्त मन बन जाता है। इसीलिए उपनिषद् कहते हैं कि मन को पूर्ण वश में करने में विषय विहीन मन ही समर्थ होता है।

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