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रविवार, 12 मार्च 2023

ध्यान एवं प्रार्थना

 ध्यान एवं प्रार्थना


ध्यान एवं प्रार्थना दिव्य ईश्वरीय आनंद को अनुभूत करने की मन से संबंधित आध्यात्मिक विधियां हैं। महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में ध्यान को परिभाषित करते हुए कहा है कि सांसारिक विषयों से मन को पृथक करने का नाम ही ध्यान है। सांसारिक विषयों का निरंतर चिंतन मानवीय अंतर्मन को विकृत, चंचल बना देता है जिससे मनुष्य का संपूर्ण जीवन अशांति, अस्थिरता से युक्त होकर अधोगति की ओर अग्रसर हो जाता है। ध्यान से मन को एकाग्रता एवं स्थिरता प्राप्त होती है। मन की विकृत तथा चंचल प्रवृत्ति को ध्यान के माध्यम से ही स्थिर किया जा सकता है। ध्यान से मनुष्य के शरीर तथा मन में विशेष परिवर्तन होते हैं जिससे शरीर की प्रत्येक कोशिका नवीन ऊर्जा से परिपूर्ण हो जाती है। हमारे शास्त्रों में ध्यान को आत्मा का भोजन कहा गया है।


प्रार्थना का शाब्दिक अर्थ है विशेष अनुग्रह की चाह । प्रार्थना के समय व्यक्ति अपने इष्ट के सम्मुख जब निवेदन करता है तो उसका मन भी पवित्र हो जाता है। प्रार्थना हमें विनम्र तथा कृतज्ञ बनाती है। प्रार्थना याचना नहीं, यह तो आत्मा की पुकार है, आत्म शुद्धि का आह्वान है। प्रार्थना हमारे अंतःकरण को विनम्रता का निमंत्रण देती है। प्रार्थना से व्यक्ति को आंतरिक संबल प्राप्त होता है जिससे मनुष्य कर्म पथ पर निरंतर आगे बढ़ता है। शरीर, मन, वाणी का संगम तथा समरसता ही प्रार्थना है।


ध्यान एवं प्रार्थना, दोनों का मार्ग पवित्र अंतःकरण तथा श्रद्धा भक्ति पर आधारित है। प्रार्थना विश्वव्यापी ईश्वरीय सत्ता से अपना धनिष्ठ संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया है। यह लघुता को विशालता, तुच्छता को महानता में समर्पित करने की उत्कंठा का भाव है। प्रार्थना भक्त के हृदय में ईश्वर के प्रति आत्मसमर्पण के भाव जागृत करती है। ध्यान और प्रार्थना से समृद्ध आध्यात्मिक जीवन का मार्ग प्रशस्त होता है  


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