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गुरुवार, 14 नवंबर 2019

वैमनस्य

वैमनस्य


मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति रही है कि वह दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करना चाहता है अक्सर देखा गया है
कि यह व्यवहार मनुष्य के भीतर स्वाभाविक रूप से अपने आसपास की गतिविधियों को देखते ही स्वत: विकसित
होने लगता है।  यह व्यवहार मनुष्य के दिमाग में इस कदर समाहित हो जाता है कि उसमें आजीवन इसकी
उपस्थिति रहती है| सकारात्मक नजरिए से यह प्रगति के लिए आवश्यक है, क्योंकि स्थायित्व और संतुलन का
भाव कहीं ना कहीं अकर्मण्यता और शून्‍यता को आमंत्रित करता है तो वहीं दूसरे नजरिए से देखें तो यही
वर्चस्व वादी व्यवहार समाज में वैमनस्य को जन्म देता है इसी कारण आधुनिक प्रगतिशील युग में आपसी
वैमनस्यता का स्तर बढ़ता जा रहा है। इसका दूसरा कारण मनुष्य के अंदर लोभ की प्रवृत्ति का होना है।
मानव उत्पत्ति की शुरुआत से देखें तो वर्चस्व का भाव यहीं से शुरु हो चुका था। प्राकृतिक संसाधनों के
उपयोग से स्वयं के अस्तित्व की रक्षा करने की जुगत ही संभवत एकतरह से दूसरे जीवो पर वर्चस्व भाव
की शुरुआत थी जो निरंतर इस कदर विकसित हो चुकी है कि आज मनुष्य एक दूसरे पर वर्चस्व कायम
करना चाहता है।
वैमनस्य का दूसरा कारण लोभ है बेहतर पाने का सपना हर मनुष्य में विद्यमान रहता है
और वह बेहतर की चाह में अपने आसपास की बंधी सीमा को तोड़ता है। यह इसीलिए होता है
क्योंकि लोभ की प्रवृत्ति मनुष्य को घेर लेती है। बेहतर पाने के सपने और लोभ दोनों समानांतर चलते हैं ।
लोभी मनुष्य के अंदर सब्र नामक बंधन टूट जाता है वह मानव सब्र के टूटने पर सारे सामाजिक व मानवीय
बंधनों को भी ताक पर रखकर अपने हितों की पूर्ति करता है। एक बार इस महत्वाकांक्षा रूपी जाल में व्यक्ति
के फंसने के बाद उसके अंदर स्वाभाविक रूप से अधिक से अधिक हासिल करने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है
जो तृष्णा में परिणत होकर बुद्धि को कुंठित कर देती है। ऐसे में सामाजिक बंधनों और हितों का बिखराव समाज
में कटुता लाता है यही स्थिति खतरनाक होती है क्योंकि समाज में लोभ की अधिकता वर्चस्व की जनक होती है
और इसी वर्चस्‍व में वैमनस्‍य पैदा होता है। आपसी वैमनस्य की बढ्ती प्रवृत्ति से निदान के लिए संतुलित रूप से
निश्चित और सीमित दायरे में  हितों की पूर्ति ही एकमात्र उपाय है।

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