श्रद्धा
शास्त्रों में वर्णित है - श्रद्धावान लभते ज्ञानं। श्रद्धा वान को ही ज्ञान का लाभ
प्राप्त होता है और ज्ञान ही पाशविक जीवन से ऊंचा उठकर देवत्व धारण
करने का प्रमुख आधार है। संसार के किसी भी मार्ग एवं क्षेत्र में लक्ष्य की
प्राप्ति एवं महारत हासिल करने के लिए श्रद्धा को संभल बनाया जाता है।
भगवत प्राप्ति के लिए श्रद्धा ही अनिवार्य है। श्रद्धा से असंभव को संभव
बनाना सरल है। जहां श्रद्धा है वहां कुछ भी प्राप्त होना कठिन नहींंहै।
श्रद्धा की भूख जब व्यक्ति के हृदय में जागती है तो लक्ष्य प्राप्ति हर सपना
साकार करने की व्यग्रता मन में छा जाती है ,और मन में एक जुनून की
तरह दृष्टिगोचर होती है । जब तक उसकी प्राप्ति नहीं हो जाती , तब तक
मन-हृदय में शांति नहीं मिलती है। मन ह्रदय जब श्रद्धा की भूख प्रबल
होती है तो वह भक्त प्रार्थना ईश्वरीय रूप बन जाती है और आकुल-
व्याकुल भाव से भी की गई पु प्रार्थना अवश्य की पूर्णता को प्राप्त होती है।
ईश्वर किसी की प्रार्थना को न ठुकराते हैं और न नजरअंदाज ना नजरअंदाज
करते हैं । भगवान तो भक्तों की श्रद्धा भाव के भूखे होते हैं । बशर्ते कि भक्तों
की श्रद्धा कमजोर नहीं मजबूत होनी चाहिए , क्योंकि भगवत प्राप्ति के मार्ग
में भक्तों की श्रद्धा की परीक्षा होती है। जिनकी श्रद्धा मजबूत होती हैं, वे
भगवान की प्राप्ति के लक्ष्य में सफल होते हैं। श्रद्धा ही प्रेम,भक्ति,विश्वास
का सर्वप्रमुख आधार है। श्रद्धा के कारण ही यज्ञ, तप,पूजा,दान किए जाते हैं।
प्राय: सभी देखते हैं बरसात में पानी वही एकत्रित होते हैं, जहां गड्ढा होता है।
चट्टानों पर एक बूंद भी पानी नहीं टिकता है और जिस घरों का मुंह पर की
ओर होता है, उसमें लबालब पानी भर जाता है और टेढ़े- मेढ़े ,उल्टे घड़े में पानी
का अंश के रूप भी प्राप्त नहीं होता है । श्रद्धा से प्राप्ति संभव है, अन्यथा श्रद्धा के
अभाव में सभी बादल मिलकर भी घनघोर वर्षा करें तो चट्टान पर पानी नहीं टिकेगा।
भगवान की कृपा श्रद्धालु ही पाते हैं । निष्ठुर लाभ प्राप्ति के लिए अयोग्य है। श्रद्धा ही
प्राप्ति की पात्रता है I एकलव्य श्रद्धा के बल पर गुरु द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाकर अर्जुन
से भी ज्यादा घनघोर धनुर्धर बना था । श्रद्धा हो तो गगन से तारे तोड़े जा सकते हैं और
पर्वतों में भी पथ निर्माण हो जाता है । इसके लिए यही करना होता है कि अपने शब्द को
से असंभव शब्द को बाहर निकाल दिया जाए।
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