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मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

सुपात्रता

धार्मिक कार्यक्रमों में पूजा शुरू करने के पहले कलश स्थापना की जाती है। कलश मिट्टी से लेकर धातु तक का होता है। कलश स्थापित करते समय प्रथमदृष्ट्या देख लिया जाता है कि कलश अंदर से टूटा या गंदा तो नहीं है। कलश यदि चटका हुआ या छिद्रयुक्त होगा तो उसमें रखा हुआ जल स्थिर न रहकर वह जाएगा। यदि अंदर का हिस्सा गंदा होगा तो कलश में जो जल भरा जाएगा, वह भी गंदा होकर रहेगा। इससे अपेक्षित प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकेगा। मनुष्य को भी पंच भौतिक तत्वों से निर्मित शरीर रूपी कलश को पवित्र और स्वच्छ रखना चाहिए। जिस प्रकार टूटे-फूटे कलश में जल स्थिर नहीं रह सकता, वैसे ही मनुष्य का शरीर यदि मानसिक विकारों के चलते स्वच्छ नहीं है तो प्रकृति से निरंतर निकलती कृपा से वह पूरी तरह वंचित हो जाएगा। सूर्य, चंद्रमा, आकाश, तारों सितारों हवा, झरनों, पर्वतों से निरंतर ऊर्जा निकल रही है। इसीलिए प्रकृति को 'मां' और 'देवी' की संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार मां संतान को अपनी दृष्टि, चिंतन और स्पर्श से निरंतर शक्तिमान बनाती है, वही काम प्रकृति रूपी मां भी करती रहती है।

निरंतर प्रवाहित होती प्राकृतिक कृपा, आशीर्वाद के लिए सुपात्र होना आवश्यक है। स्वर्ण या रजत का ही कलश क्यों न हो, यदि वह वर्षा ऋतु में पलट कर रखा जाएगा तो घनघोर वर्षा के बावजूद भर नहीं सकेगा। प्रकृति जब ब्रह्म मुहूर्त में कृपा का खजाना लेकर आती है और जो व्यक्ति उस समय सोता रहता है, वह उससे वंचित हो जाता है। काम, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या आदि विकारों से मनुष्य को अपने शरीर रूपी कलश को बचाना चाहिए। फिर तो मनुष्य का शरीर पूजनीय हो जाएगा। वह सदैव स्वस्थ रहेगा। यह तो स्पष्ट है कि कोई एक कीमती खजाना वाह्य नहीं, अंतर्जगत में ही है। बस उस खजाने का पता होना और खजाने के बंद ताले को खोलने की विधि जानना जरूरी है। श्रेष्ठ संगति और सत्साहित्य के अध्ययन से इसका पता मिल जाएगा।



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