आध्यात्मिक प्रेम
जीवन में खुश रहने के लिए यह आवश्यक है कि हम स्थाई प्रेम से भरपूर रहे। सदा- सदा का प्रेम केवल प्रभु और प्रकृति का प्रेम है जो कि दिव्य एवं आध्यात्मिक है। जब हम इस संसार में दूसरों से प्रेम करते हैं, तो हम इंसान के बाहरी रुप पर ही केंद्रित होते हैं। और हमें जोड़ने वाले आंतरिक प्रेम को भूल जाते हैं। सच्चा प्रेम तो वह है जिसका अनुभव हम दिल से दिल तक, और आत्मा से आत्मा तक करते हैं। बाहरी रूप तो एक आवरण है, जो इंसान के अंदर में मौजूद सच्चे प्रेम को ढक देता है। मान लीजिए कि आपके पास खाने के लिए कुछ अनाज है। अनाज प्लास्टिक की थैली में लपेटे जा सकते हैं, और डिब्बे में भी। हम उस थैली या डिब्बे को नहीं , बल्कि उसके अंदर मौजूद अनाज को खाना चाहते हैं। इसी तरह जब हम किसी इंसान से कहते हैं कि ‘मैं तुमसे प्रेम करता हूं’ तो हम उस व्यक्ति के सार रूप से प्रेम प्रकट कर रहे होते हैं। बाहरी आवरण या हमारा शारीरिक रूप वह नहीं जिसे हम वास्तव में प्रेम करते हैं। वास्तव में हम उस व्यक्ति के सार से प्रेम करते हैं, जो कि उसके भीतर मौजूद है।
हमारे जीवन का उद्देश्य ही यही है, कि हम अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर पाए, और फिर अपनी आत्मा का स्वरूप अनुभव कर पाए और फिर अपनी आत्मा का मिलाप करके उसके स्रोत परमात्मा में करा दें। जब हमारी आत्मा अंतर में प्रभु की दिव्य ज्योति एवं श्रुति के साथ जुड़ने के लायक बन जाती है। तब हम अपने सच्चे आध्यात्मिक स्वरूप का अनुभव कर पाते हैं। फिर गुरु के मार्गदर्शन में नियमित ध्यान, अभ्यास करते हुए हमारी आत्मा अध्यात्मिक मार्ग पर प्रगति करती जाती है, और अंततः परमात्मा में जाकर लीन हो जाती है। आइए हम सभी अपने बाहरी शारीरिक रूप की ओर से ध्यान हटाए और सच्चे आत्मिक स्वरूप का अनुभव करें, तभी इस मानव चोले में आने का हमारा लक्ष्य पूर्ण होगा, और हम सदा -सदा के लिए प्रभु में लीन होने के मार्ग पर अग्रसर हो पाएंगे. इसके लिए हमें एकांतवास का मार्ग अपनाना पड़ेगा, रोज समय निकालकर आधा घंटे के लिए ही सही एकांत वास में बैठने का प्रयास करें। अपने को प्रकृति से जोड़ने का प्रयास करें।आप पाएंगे कि आपका मन विश्राम पाएगा और मन की सृजनात्मकता और बेहतर हो जाएगी,और आत्मिक प्रगति का मार्ग दिखने लगेगा ।
मंगलवार, 30 जून 2020
आध्यात्मिक प्रेम
रविवार, 28 जून 2020
अवसाद से मुक्ति
अवसाद से मुक्ति
अवसाद में व्यक्ति स्वयं की शक्तियों पर विश्वास करना छोड़ देता है। वह अपने आप को पराजित सा महसूस करने लगता है। यही पराजय का भाव उसके भीतर नकारात्मकता का ज्वार पैदा करने लगता है। उसे सब कुछ व्यर्थ लगने लगता है।
वह एकाकी अनुभव करने लगता है। उसे अकेलापन अच्छा लगता है। लेकिन यही एकाकीपन उसे भीतर से कमजोर करने लगता है,वह स्वयं पर नियंत्रण खोने लगता है। ऐसी स्थिति उसके मानसिक संतुलन को प्रभावित करती है। वह असफलताओं पर अधिक केंद्रित होने लगता है। अवसादग्रस्त व्यक्ति की सकारात्मक ऊर्जा होने क्षीण होने लगती है।
आज के इस प्रतिस्पर्धी दौर में अधिकांश लोग कम समय में बहुत ज्यादा पाने की लालसा रखते हैं। यही लालसा ,लालच में बदलने लगती है जो कई दुस्प्रवृत्तियों को जन्म देती है। इससे हमारे भीतर के गुण शनै -शनै छीण होने लगते हैं। परिणाम स्वरूप अवसाद के काले बादल हमें घेरने लगते हैं।हम सदैव कुछ बुरा होने की आशंका से भयाक्रांत रहने लगते हैं। भय का वह आवरण हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगाने लगता है।
वर्तमान समय में मनोचिकित्सक अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक सलाह हेतु कुछ प्रश्नों या सुझाव को देने से मना करते हैं। जैसे कि हम यह कहें कि आप बहुत मजबूत हैं ,और आप बहुत जल्दी अपने को ठीक कर लेंगे। इससे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति अपने को मजबूत महसूस करके,और किसी को अपनी कठिनाइयां नहीं बताना चाहता तो, वह अपनी बीमारी को बढ़ा लेता है। अगर हम उसे कमजोर कहेंगे तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप वह अपनी कठिनाइयां बयां करेगा, और कोई ना कोई उसका उपाय निकल आएगा। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को यह कहना कि आप बाहर निकलो सैर पर जाओ, लोगों से मिलो,क्योंकि वह बहुत कम ऊर्जा में है। इसलिए उसके लिए ऐसा करना शायद असंभव हो। बेहतर होगा कि उसके पास जाएं, और किसी तरीके से उसको साथ लेकर निकले। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति की नकारात्मक बातों को सुने। उसे ऐसा ना बोले कि तुम नकारात्मक मत सोचो, नकारात्मक मत बनो। इससे वह ज्यादा निराश बनेगा। बल्कि उसकी नकारात्मक बातों को सुनकर उसे खाली करना चाहिए। अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को यह कहना कि आप नींद लो,अच्छा भोजन खाओ, कुछ अच्छा पॉजिटिव सीरियल या फिल्म या टॉक देखो। लेकिन वह तो पहले से ही अपनी रुचि खो चुका है। किसी भी अच्छी चीज के लिए कहने से वह अपराध बोध से ग्रस्त हो सकता है। इसलिए उसका व्यक्तिगत साथ देना, और उसके साथ फिल्म देखना,बोलना, बातचीत ,उसे बेहतर महसूस करा सकता है।
अवसाद को मात देने के लिए हमें स्वयं से भी संवाद की आवश्यकता होती है। हम जितना स्वयं से भागने को तत्पर होंगे उतना ही परेशानी के भंवर में फंसते चले जाएंगे। हमें अपनी शक्तियों पर विश्वास करना ही पड़ेगा। तभी हम इसे मात दे सकते हैं। अपनों से अपनत्व, तो मित्रों से निरंतर संवाद ,छोटी-छोटी बातों में प्रसन्नता खोजना,खुलकर हंसना भी अवसाद के शत्रु हैं। अगर हम इन सभी से मित्रता कर ले तो अवसाद निष्प्रभावी हो जाएगा। अपने भीतर की आध्यात्मिक चेतना को जागृत कर अवसाद के असुर का वध संभव है। अगर हम थोड़ा सा समय स्वयं के लिए निकालें तो हर परिस्थिति से मुस्कुरा कर लड़ सकते हैं। याद रखें कि तनाव जैसी स्थिति को पैदा कर मनोविकारों को जन्म देना उचित नहीं है।
शनिवार, 27 जून 2020
अनंत आनंद
अनंत आनंद
अनंत-आनंद की खोज में जब मनुष्य ने परम पुरुष की ओर चलना शुरू किया, तब वह अध्यात्म के संपर्क में आया। अध्यात्मिकता जब ससीम के संपर्क में आती है, तब इसी के माध्यम से ससीम भी असीम के संपर्क में आता है। ससीम और असीम का यह मिलन ही योग कहलाता है। इस असीम को पाने के लिए और अपनी असीमित क्षुधा की तृप्ति के लिए, एक साधक जब उस अनंत की ओर चलना शुरू करता है तब उसी को योग कहा जाता है। संस्कृत में योग का अर्थ है जोड़ना जैसे 2 + 2 = 4 होता है, वैसे ही ब्रह्म प्राप्ति के लक्ष्य को पाने वाले साधक के लिए योग मात्र इस तरह का जोड़ नहीं होता है।
वहां योग का अर्थ है ‘एकीकरण’। किस तरह का एकीकरण। चीनी और पानी के एकीकरण जैसा। जोड़ में प्रत्येक वस्तु अपना अलग अस्तित्व और अपनी अलग पहचान रखती है। जैसे दो चीजों को जोड़ने के बाद भी उसकी अलग पहचान और अस्तित्व बना रहता है। जोड़ने के पहले भी और जोड़ने के बाद भी, लेकिन एकीकरण के मामले में ऐसा नहीं होता। चीनी के पानी में मिल जाने के बाद उसकी अपनी अलग पहचान नहीं रह पाती है, क्योंकि चीनी पानी में घुलकर वह पानी के साथ एकाकार हो गया। यही एकीकरण है। योग का तात्पर्य भी इसी तरह का एकीकरण है। अर्थात चीनी और पानी मिलकर एक हो गए। दो और दो जोड़ की तरह या जोड़ना नहीं हुआ।
योग के इसी आरंभिक बिंदु से शुरू होती है असीम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए महान यात्रा। वृहद के आकर्षण को लक्ष्य कर चलने की गतिशीलता, मनुष्य को परम पुरुष के साथ एकाकार कर देती है। जिनका आसन मानव अस्तित्व के उच्चतम बिंदु के भी ऊपर है। परम तत्व के साथ एकात्म होने के लिए और उनकी यह जो गतिधारा है, बृहद के साथ क्षुद्र के मिलन का यह जो प्रयास है, यही है योग का योग के पथ। योग के पाथ का अनुसरण करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
शुक्रवार, 26 जून 2020
गुरुवार, 25 जून 2020
सृजनात्मकता
सृजनात्मकता
जिज्ञासु मन के विचारों को व्यवहारिक रूप प्रदान करना ही सृजन है। वस्तुतः सृजनात्मकता ईश्वर का उपहार है जो चिंतन को निखारता है। यह एक प्रकार से नए रास्ते पर चलने के समान होता है। यह ऐसी कला है जिसमें रंग- रूप,जाति , लिंग और आयु की सीमाएं नहीं होती हैं। यह भावुक ह्रदय की संवेदनाओं का दर्पण होता है। इसमें किसी को नियमों या बंधनों में बाधा नहीं जा सकता। लेखन, चित्रकारी, संगीत ,परिधान सज्जा , मूर्तिकला,पाककला और न जाने कितनी ही विधाओं में आज सृजनात्मकता अपनी अभिव्यक्ति पा रही है।
आज कोरोना वायरस काल मे सृजनशील विचारों की होड़ सी लग गई । है सृजनात्मकता किसी व्यक्ति की मनोदशा को भी दर्शाती है। यह एक प्रकार से ध्यान, समाधि से जुड़ जाने की ही प्रक्रिया है। एक ही क्रिया को बारंबार एकाग्र होकर करते रहना ,आध्यात्मिक संतुष्टि देने के समान होता है। हमें अपनी व्यस्त दिनचर्या में से तनिक समय निकालकर, किसी सृजनात्मक अभिरुचि को देना चाहिए। इससे हमें असीम आनंद की प्राप्ति हो सकती है।
सृजन करने की क्षमता थोड़ी -बहुत हर किसी में विद्यमान होती है। बस उसे खंगालने की आवश्यकता होती है। सृजन के माध्यम से व्यक्ति सभी द्वेष दुविधाओं से मुक्त हो सकता है। नूतनता , परिवर्तन और चिंतन एक विस्तृत फलक का निर्माण करने में सहयोगी हो सकते हैं, और तनाव कम करने में सक्षम भी। दरअसल किसी सृजनात्मक कार्यक्रम के दौरान एक व्यक्ति अपना सभी कुछ उसी में झोंक देता है। ऐसा लगता है कि वह अपने विचारों, भावनाओं को कुरेदते हुए मानो स्वयं की खोज में लगा हुआ हो।
हलाकि दूसरों की भावनाओं को ठेस पहुंचाना सृजनात्मकता नहीं हो सकती है। बरहाल सृजन किसी भी विधा से हो, हमारी जीवन शैली का अभिन्न अंग बन सभी को सौंदर्य से भरपूर आनंद का प्रतिभागी बना सके, हमें ऐसे प्रयास अवश्य करने चाहिए।
सृजनात्मकता को दूसरे शब्दों में हॉबी भी कहते हैं। हॉबी के अंतर्गत हम स्वांतः सुखाय किसी एक कला को पकड़ लेते हैं। और उसमे अपने खाली समय को पूरी तरह देते हैं। जिससे आनंद की प्राप्ति तो होती ही है, साथ साथ समाज को कुछ सृजनात्मक चीजें मिलती रहती हैं। दुनिया में कोहॉबी को विकसित करने वाले लाखों-करोड़ों लोग मिल जाएंगे। और वह समाज को कुछ न कुछ नया और उत्तम जरूर दे रहे हैं ।
बुधवार, 24 जून 2020
मृत्यु का भय
मृत्यु का भय
यह अटल सत्य है कि जीवन मरण धर्मा है। भारतीय दर्शन में मृत्यु के स्थान पर मुक्ति का उल्लेख खूब मिलता है। वास्तव में मुक्ति, देह एवं जगजीवन से विश्राम की अवस्था का दूसरा नाम है। कोरोना के चलते इस वक्त आम से खास लोगों के जीवन में मौत का खौफ पूरी तरह घर कर गया है, जिसके कारण मनुष्य की सहज प्रवृत्तियों के लगभग लोप के साथ मनुष्यता भी खतरे में पड़ गई है। इस विपत्ति में चाह कर भी लोग अपने स्वजन, परिजन और पुरजनों की मदद करने से घबरा रहे हैं।
यह जो मौत का खतरा, सोते- जागते उसका भय मानव मन के अवचेतन में बरकरार है, वह तो मौत से भी भयावह है। मनोविज्ञानी, भय जनित रोगों की अलग ही व्याख्या करते हैं। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य अपना बहुत कुछ खोने के दबाव में सहमा हुआ है, भीतर से भयभीत है। हर आदमी इसी फितरत में जीता है कि जीवन थोड़ा और खींच जाए। यह अभिलाषा बुरी नहीं। वस्तुतः जन्म के समान ही मृत्यु अकाट्य है ,परंतु उसकी पल- प्रतिपल चिंता करना मूर्खता ही नहीं आत्मघाती भी है। शव मृत्यु की साकार उपस्थिति है। शवदाह हेतु श्मशान लेकर जाते वक्त व्यक्ति के मन में वैराग्य भाव जाग उठता है, परंतु यह क्षणिक है.श्मशान से वापस लौटते ही माया, मोह, अहंकार, ईर्ष्या और लोभ अपना काम फिर शुरू कर देते हैं। बारीकी से देखा जाए तो ए भाव एक तरह से मृत्यु के ही प्रछन्न रूप हैं। जिसमे उलझा रह कर व्यक्ति मृत्यु से खुद को दूर ले जाने का यत्न करता रहता है।
आज इस दौर में जरूरत आत्मसंयम, जागरूकता, जीवनशैली में बदलाव, एवं सकारात्मक चिंतन को अमल में लाने की है। हम सब की समझदारी और संयम से यह बुरा वक्त भी कट जाएगा। ध्यान रहे हमेशा मौत से डरने वाला जीवन का लक्ष्य, सुख एवं भोग भोगने से वंचित रह जाता है। धरती पर बोझ बनकर जीना या धरती का प्रहरी बनकर रक्षा करना है,यह चुनाव आपके ही हाथ में है।
कहते हैं डर के आगे जीत है। इसका मतलब यह है कि डर डर के जीना भी कोई जीना है। आदमी को जीवन में आने वाली कठिनाइयों का निडरता से मुकाबला करना चाहिए।जिन कठिनाइयों को हल करना अपने हाथ में है, उनके लिए पूरा प्रयास स्वयं करना चाहिए। जिन कठिनाइयों को हल करने के लिए हमारे निकट संबंधी मददगार हो सकते हैं, जहां तक संभव हो उनकी मदद लेनी चाहिए। कुछ ऐसी भी कठिनाइयां होंगी जिनमें कोई भी व्यक्ति कोई हल नहीं निकाल सकता । इसको स्वीकार कर लेना है। वह धीरे-धीरे हमारी आदत का हिस्सा बन जाएगी। और हम आसानी से जीना सीख जाएंगे। जीवन के यही आयाम हमें आगे ले जाएंगे। मौत तो हर पल, हर पल आगे आगे है। लेकिन जीवन में सकारात्मकता रखना भी बहुत जरूरी है। हमें यह मानकर चलना है कि जो सामान्य औसत आयु होती है, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना है ,लेकिन यह हमारे हाथ में नहीं है। कभी-कभी इसे भाग्य और पुरुषार्थ कह दिया जाता है।
सोमवार, 22 जून 2020
आदमी
आदमी
प्रायः आदमी का तात्पर्य आम ‘आदमी’ से उद्घाटित होता है, जो इंसानियत एवं मानवता का प्रतिनिधि है। यह स्त्री एवं पुरुष दोनों का संबोधन है। यदि आदमी अपनी आदमियत से गिरेगा तो हैवान बनेगा, और वह आदमीयत से ऊपर उठेगा, तो देवता अवश्य बन जाएगा।
यह शक्तिमान आदमी अपना ही मित्र और अपना ही शत्रु है। दुख की बात है कि प्रकृति की सबसे अनोखी यह रचना ‘आदमी’ आज उसके ही प्रतिकूल बन बैठा है। यदि आदमी प्रकृति के अनुकूल बन सके, तो पृथ्वी पर स्वर्ग उतर आएगा। अन्यथा नर्क सर्वत्र दृश्यमान हो रहा है।
अब आदमी अपने को ‘आदमी’ नहीं भगवान मानने को आतुर है। उसकी मति भ्रष्ट हो गई है। उसने ज्ञान से दूरी बनाकर , विज्ञान से नाता जोड़ लिया है। उसने विज्ञान को ही ज्ञान समझने की भूल कर दी है। आज तो उसने विकास की दिशाहीन दौड़ से विनाश को ही आमंत्रित कर लिया है। सर्बनाश की ओर आदमी के कदम बढ़ते ही जा रहे हैं। आदमी का जन्म क्यों हुआ, उसे जीवन क्यों मिला? इसीलिए कि वह स्वयं को पहचान सके। वस्तुतः स्वयं को जान लेना ही उसका परम कर्तव्य है, और परम धर्म भी । आदमी को स्वयं अपने अंदर के रहस्य को खोजना चाहिए ,तब भीतर तो आदमी ही बैठा मिलेगा, भगवान का भेजा हुआ आदमी। आदमी अपने को मंत्री, अधिकारी, व्यापारी और ना जाने क्या क्या समझता है, लेकिन अपने अंदर बैठे आदमी को नहीं मानता। और अनंत काल से उसकी यह भूल अभी तक सुधारी नहीं जा सकी है।
आदमी को कई दुर्लभ शक्तियां प्राप्त है। उसे कर्म का अधिकार मिला है जो देवताओं को भी सुलभ है नहीं है। वर्तमान जन्म में आदमी को प्रेम, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य का अवसर उपलब्ध कराया गया है। बुद्धि एवं विवेक की सर्वोत्तम कृति यह ‘आदमी’ का चोला बार-बार नहीं मिलता। इसीलिए धर्म को धारण करके मुक्ति का उपाय करना ही उसके लिए एकमात्र निसकंटक पथ है।
धर्म को धारण करने का मतलब है, प्रकृति के नियमों का अनुसरण करना। प्रकृति के नियमों के अनुसार हमें पेड़- पौधे और पशुओं से शिक्षा लेनी चाहिए कि कैसे वह एक दूसरे के स्वावलंबन और विकास को आगे बढ़ाते हैं। प्रकृति बनी रहे, उसी में लगे रहना है। इसी तरह से हमारे यहां जो सफल लोग हैं ,उनको चाहिए कि प्रकृति के विकास एवं उन्नयन हेतु पूरा प्रयास करें, बाकी लोग तो उसे नियम मानकर अवश्य पालन करेंगे।धर्म का मतलब अतिशय शोषण नहीं है। धर्म का मतलब प्रकृत विरोधी कर्तव्य करना नहीं है। सबको साथ लेकर चलना, प्रकृति का पूर्ण विकास करना, धर्म का मतलब होना चाहिए , ना कि मंदिर में बैठकर पूजा-पाठ।
रविवार, 21 जून 2020
मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य
मानसिक स्वास्थ्य भी शारीरिक स्वास्थ्य जितना महत्वपूर्ण है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ब्रॉक चिसोलं कहते हैं कि बगैर मानसिक स्वास्थ्य के, सच्चा शारीरिक स्वास्थ्य नहीं हो सकता है। वर्तमान में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर सजगता इसलिए और आवश्यक हो गई है, क्योंकि कोरोनावायरस ने तनाव और अवसाद को भी बढ़ा दिया है।
मनोविज्ञानियों तथा मनोचिकित्सकों का मानना है कि हमारे अंतर्मन में बसी बातें, जब बाहर नहीं निकल पाती या जब मन मस्तिष्क को गंभीर आहत करने वाली बातों पर उचित संवाद नहीं होता है, या सही सलाह नहीं मिल पाती है, तो वे तनाव का रूप धारण कर लेती है, और अगला पड़ाव अवसाद का आकार ले लेता है। हमारे दैनिक जीवन की घटनाओं पर मन में अंतहीन बातें चलती रहती हैं। उन बातों को बाहर ना निकाला जाए तो तनाव की स्थिति अवसाद में बदल जाती है। अवसाद एक गंभीर मनःस्थिति है, जो इस बात का संकेत है कि आपका शरीर और आपका जीवन असंतुलित हो गया है। इसीलिए सबसे जरूरी है कि तनाव को खुद पर हावी ना होने दें, और अपनी समस्या मन में ही ना रखें, बल्कि उसे अपने करीबियों से साझा करें। किसी विशेषज्ञ की सलाह भी ले सकते हैं।
हमारे देश में पारिवारिक और सामाजिक ताना-बाना ही कुछ ऐसा है कि यहां तनाव-अवसाद को बीमारी नहीं माना जाता,जबकि अवसाद जैसी समस्या को स्वीकारना और उसका हल खोजना छुपाने वाली बात नहीं। विडंबना की बात यह है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में ऐसी विषयवस्तु एवं पाठ्यक्रम संरचना का सर्वत्र अभाव है, जिससे व्यक्ति में स्वयं ही निराशा-अवसाद जैसे मानसिक विकारों से लड़ने की सामर्थ्य का विकास संभव हो सके। ऐसे में हमें किशोरों और नवयुवकों के बीच मानसिक स्वास्थ्य के प्रबंधन को शिक्षा तंत्र का हिस्सा बनाकर,कम उम्र से ही सिखाने की कोशिश करनी होगी। इसमें योग, प्राणायाम भी सार्थक भूमिका निभा सकता है।
किशोरों और नव वयस्कों को सफल होने के लिए, नंबर एक पर बने रहने के लिए बहुत दबाव होता है परिवार और समाज का। और युवा सफल भी होते जाते हैं। लेकिन जीवन तो एक बहती दरिया जैसा है,उसमें उछाल ,ऊंच-नीच आता रहता है। और हमेशा सफल रहने वाला व्यक्ति यदि कभी असफल हो जाए या कोई ऐसी समस्या आ जाए, जिसका वह निराकरण नहीं कर पाता है, तो इसके बारे में उसका मन मस्तिष्क प्रशिक्षित नहीं होता, कि वह असफलता को कैसे ले अपने जीवन में। और कैसे जिए, इसलिए वह अवसाद ग्रस्त हो जाता है। और कई बार अपने प्राण भी अंत कर लेता है। लेकिन यह स्थिति बिल्कुल वांछनीय नहीं है। बल्कि हमें अपने युवाओं के मानसिक प्रशिक्षण में असफल होने की स्थिति मे भी जीने का तरीका सिखाना होगा, ताकि बहुमूल्य जीवन का कोई तनाव-अवसाद की वजह से अंत न करें।
चरित्र सृजन
चरित्र सृजन
जिंदगी भर की छोटी-छोटी, अच्छी -बुरी आदतें हमारे चरित्र का सृजन करती है। जिस प्रकार बूंद -बूंद से सागर तो बनता है, लेकिन कुछ बूंदों को सागर नहीं कह सकते हैं। जिस प्रकार
बिंदु -बिंदु से चित्र बनता है, लेकिन सिर्फ कुछ बिंदुओं के संकलन को चित्र भी नहीं कह सकते, ठीक उसी प्रकार चरित्र सृजन भी सिर्फ कुछ अच्छी आदतों से नहीं हो सकता, बल्कि इसके लिए सतत प्रयत्न करते हुए, अच्छी आदतों और अच्छे कार्यों के अनंत बिंदुओं का अनवरत संकलन करना आवश्यक होता है। इन्हीं बिंदुओं को संयोजित करके, समायोजित करके, सुंदर तस्वीर बनाने की सफल प्रक्रिया ही प्रभावशाली व्यक्तित्व के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करती है।
ध्यान रहे कि व्यक्तित्व अगर वट वृक्ष है,तो चरित्र उसे मजबूती और दीर्घ जीविता प्रदान करने वाली जड़े। हमारी सफलता और असफलता के निर्धारण में अदम्य एवं आकर्षक व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसीलिए यह कहना तर्कसंगत है कि व्यक्ति की सफलता में चरित्र निर्माण नींव की ईंट का काम करता है। चरित्र निर्माण से ही भाग्य का निर्माण होता है। कई बार हमारे जीवन भर के कार्य और हमारी आदतें हमारे भाग्य का सृजन कुछ इस प्रकार कर देती हैं, की चाह कर भी उसे बदल पाना हमारे वश में नहीं रह जाता, और फिर इस परिस्थिति में हम भगवान को यह कह कर कोसने लगते हैं कि मेरा तो भाग्य खराब है।
अगर हमें यह एहसास हो जाए कि अपने अच्छे कर्मों और अपनी अच्छी आदतों के द्वारा सृजित हमारा चरित्र और व्यक्तित्व ही हमारे भाग्य का निर्माण करते हैं, तो यह समझने में जरा भी देर नहीं लगेगी कि हमारे भाग्य के भाग्य विधाता तो हम खुद हैं, कोई और नहीं। अपने संचित कर्मों की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए हमें अपने भाग्य के लिए भी खुद को जिम्मेदार मानना चाहिए और यह दृढ़ विश्वास रखना चाहिए कि अपने हाथ की रेखाओं के रचनाकार हम हैं ,कोई अदृश्य शक्ति नहीं।
हमें अपने जीवन को सफल और उत्तम बनाने के लिए खूब परिश्रम करना चाहिए, उत्तम साधनों का इस्तेमाल करना चाहिए , तभी आने वाला जीवन स्वर्णिम हो सकता है।
शुक्रवार, 19 जून 2020
हार जीत
हार जीत
अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित जब दो पक्ष आपस में भिड़ते हैं,तो जो मजबूत होता है वही जीतता है। जो पक्ष कमजोर होता है, वह निश्चित ही हारता है। जो पक्ष जीतता है, उसे खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। और जो हारता है, वह दुख-तनाव से ग्रस्त रहता है। लेकिन जो असली योद्धा होते हैं, कभी भी हार-जीत से ना ही घबराते हैं और ना ही दुखी होते हैं। वे पराजित होने के पश्चात, अपनी कमजोरियों को खोज कर, उन्हें दूर करके, पुनः अपने अंदर मजबूती लाते हैं ,और युद्ध का क्रम निरंतर चलाते ही रहते हैं। जो युद्ध करने से भाग जाता है, वह योद्धा नहीं है।
इतिहास बताता है कि प्राचीन समय से ही धर्म-अधर्म की, पाप -पुण्य की, अच्छाई- बुराई की, सत्य- असत्य की, राम- रावण की, कौरव- पांडव की, कृष्ण- कंस की लड़ाई होती आई है जिसमें धर्म का पक्ष जीतता है। और अधर्म का पक्ष हारता है। सत्य की कभी भी हार नहीं होती है। भले ही सत्य परेशान हो जाए, क्योंकि सत्य पर ही दुनिया टिकी है। सर्वशक्तिमान प्रकृति, सत्य स्वरूप है। वह कभी भी सत्य का पक्ष ही लेती हैं। सत्य का मार्ग कठिन है, पर कल्याण एवं सुख की प्राप्ति तो सत्य मार्ग पर चलने से ही संभव हो पाती है। मनुष्य का जीवन भी एक संग्राम क्षेत्र की तरह है। मनुष्य के अंतर्मन में पाप -पुण्य,अच्छाई -बुराई की, लड़ाई निरंतर चलती ही रहती है। दुर्भाव - सद्भाव, दुर्गुण- सदगुण का आपसी टक्कर चलता ही रहता है।
अगर मन दुर्भाव को त्यागकर सद्भाव ,दुर्गुण को त्यागकर सदगुण, पाप को त्यागकर पुण्य असत्य को ,त्याग कर सत्य को ,अधर्म को त्याग कर धर्म को धारण कर लेता है, तो जीवन के महासंग्राम में मनुष्य की जीत अवश्य होती है।
अगर मन दुर्गुण, दुर्भाव, असत्य, अधर्म को धारण किए रहता है, तो जीवन के महासंग्राम में उसकी हार होकर ही रहती है, और उसका जीवन दुखमय बना रहता है। ऐसे व्यक्ति जीवित रहकर भी मृत ही होते हैं ,और धरती पर भार स्वरूप होते हैं।
किसी से वाद-विवाद में हम भले जीत जाएं, लेकिन अगले आदमी की भावना आहत होती है। जहां तक संभव हो आदमी के दिल को प्यार की भाषा से जीतना चाहिए, ना कि वाद-विवाद की भाषा से।
बुधवार, 17 जून 2020
जल संरक्षण
सरलता By Bijay Kumar CFTM NER
शुक्रवार, 12 जून 2020
Covid 19-आवश्यक एहतियात
आवश्यक एहतियात---
लॉकडाउन में जैसे-जैसे रियायत मिल रही है, लोग अपने कार्यक्षेत्र पर जाने के लिए घर से निकलने लगे हैं। ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि कार्यक्षेत्र तक पहुंचने के लिए आप जब पैदल चले तो आपके शरीर की गति क्या होनी चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन बता चुका है कि जब हम ज्यादा तेज सांस लेने वाले काम करते हैं तो कोरोना वायरस के शरीर में प्रवेश का खतरा बढ़ जाता है।
तेज सांस लेने से मस्तिष्क में ऑक्सीजन की कमी-
दो मिनट की तेज सांस से मस्तिष्क में ऑक्सीजन की मात्रा 40% तक घट जाती है। वैज्ञानिक शोध यह साबित कर चुके हैं कि तेज सांस लेने से शरीरिक कोशिकाओं में ऑक्सीजन और कार्बन डाई ऑक्साइड का संतुलन बिगड़ता है। ऑक्सीजन की मात्रा घटते ही कोशिकाएं कम ऊर्जा का निर्माण करती हैं जिससे थकावट होने लगती है और ध्यान भटकता है।
तनाव घटाती है गहरी सांस-
गहरी श्वास भरना और तेज-तेज श्वास लेने को अक्सर लोग एक ही बात समझ लेते हैं जबकि गहरी सांस लेना एक सधी हुई शारीरिक क्रिया है। इससे शरीर के इम्यून फंक्शन में सुधार होता है, ब्लड प्रेशर का स्तर घटता है जिससे तनाव पैदा करने वाले हार्मोन घटते हैं और बेहतर नींद आती है।
कोविड-19 का बढ़ता खतरा-
विश्व स्वास्थ्य संगठन बता चुका है कि ज्यादा तेज श्वास लेने के दौरान शरीर में कोरोना वायरस के प्रवेश का खतरा बढ़ जाता है। ऐसा होने का कारण यह है कि तेज-तेज सांस लेते समय किसी संक्रमित व्यक्ति के मुंह से निकले या किसी वस्तु पर मौजूद संक्रमित ड्रॉपलेट हमारे शरीर में तेजी से प्रवेश करते हैं।
सामान्य गति से सामाजिक दूरी बनाकर चलें-
-मास्क लगाकर ही घर से बाहर निकलें और पैदल चलते समय दूसरों से छह कदम(दो फिट) की दूरी बनाए रखें।
-शारीरिक दूरी बनाए रखते हुए चलने से स्वभाविक रूप से आप सामान्य गति से चलेंगे, तेज सांस नहीं लेनी पड़ेगी।
-आप जितने बजे दफ्तर जाने के लिए घर से निकलते हैं, उससे 10-15 मिनट पहले निकल जाएं, इससे हड़बड़ी नहीं होगी।
-दफ्तर के रास्ते में ईयरफोन लगाकर न जाए, ऐसा करने से आप स्वच्छता के नियमों के प्रति लापरवाह हो जाएंगे।
-अगर आपके इलाके में बस या कैब चलने लगी हैं तो परिवहन संबंधी सरकारी निर्देशों का पालन करते हुए ही चलें।
-बाइक या कार से दफ्तर जा रहे हैं तो मास्क लगाकर ही जाएं, चेकिंग प्वाइंट पर जांच में सहायता करें।
-दफ्तर में थर्मल जांच कराएं, आईकार्ड पहनें ताकि पहचान की समस्या न आए।
-लिफ्ट के इस्तेमाल से बचें, अगर उसमें कोई मौजूद है तो प्रवेश न करें। उंगली की बजाय कोहनी से बटन दबाएं।
-दफ्तर में काम के दौरान भी मास्क लगाए रखना जरूरी है, अपने कुलीग से बात करते समय चेहरे को बिल्कुल सामने रखने से बचें।
मेहनत वाले काम करते समय इन बातों का ख्याल रखें-
शारीरिक मेहनत वाले काम के अलावा खेलने व व्यायाम करने के दौरान हम तेज-तेज सांस लेने लगते हैं। ऐसे काम करते समय आपके श्वसन तंत्र में कोरोना वायरस न प्रवेश कर जाए, इसके लिए जरूरी है कि ये काम करने के लिए आप स्वच्छ व न्यूनतम लोगों वाला वातावरण चुनें। इनडोर एक्सरसाइज बेहतर विकल्प रहेगा।
The Ultimate Working From Home
KEY TAKEAWAYS
- For
employers, working from home can boost productivity; reduce turnout, and
lower organizational costs, while employees enjoy perks like flexibility
and the lack of a commute.
- To
work effectively from home, you'll need to make sure you have the
technology you require, a separate workspace, Internet service that meets
your need, a workable schedule you can stick to, and ways to connect with
others.
- Top
fields for remote work include computers and IT, education and training,
and healthcare; positions include customer service reps, virtual
assistants, data entry and transcription, teachers, and more.
- A variety of top firms, including
Amazon, Dell, Humana, Kaplan, and Sales force, offer remote work
opportunities, but it's also important to be aware of scams.
How to Work Effectively From Home
Know the ground rules
Set up a functional
workspace
Get the internet speed you
need
Use phone apps
Minimize distractions
Plan extra social interactions
Pros
Cons
Tips for working from home
Always strive to be
a better worker
Your first task is to create a workspace in your house that is conducive for WFH. Ideally you will work in a room by yourself behind a closed door. No roommates, no fridge and no bed to tempt you away. Invest in the right furniture to make it comfortable. A proper desk and ergonomic work chair are better than a backache triggered by working on the sofa with your laptop. Keep your desk clean and tidy. Make sure you have a wall or background that suits a Skype or v ..
2. Get organised
Get your laptop, diary, pen, cell phone and chargers in place. If you are in noisy house, invest in a noise cancellation headphone. Use a mouse for better efficiency. Figure out who will take care of the children and keep them from disturbing you with schools closed. If your spouse is on WFH too, share time slots and children related chores. Organise routines and rules for other disturbances like the maid and doorbell.
The biggest challenge in a WFH routine is the presence of other people at home or from your life. Block out distractions from people by agreeing on ground rules with them. Pretend you are not at home while following rigid work hours. Do not get involved in conversations, personal calls or housework. Use headphones, a hoodie or even tinted glasses to create boundaries.
Remember you are earning a salary in your WFH situation. Stay committed to your timings and deliverables. Avoid home chores or personal appointments during working hours except during scheduled breaks. Don’t abuse WFH by being unavailable or else you will compromise your professional respect and may lose your job when your company cuts costs to deal with Corona-triggered challenges.
What were harmless social media distractions at office become deadly productivity killers in a WFH where there is no team to pull you back to work. Remove social media extensions and switch off all notifications both in your laptop browser as well as on your cell phone. Switch off your mobile data and use it only for calls. Keep your coffee flask and snacks available on your desk so that you don’t get up too often.
Establish rules and boundaries to protect your personal life from work that may creep into it. Do not carry work away from your desk and do not interrupt family time or social time to complete pending work. Increase your social interactions with friends to stave off loneliness and to compensate for lack of human contact.
