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सोमवार, 8 जून 2020

आचारः परमो धर्मः


बिजय कुमार आईआरटीएस
गोरखपुर
आचारः परमो धर्मः
आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव
तस्मादस्मिन्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान्द्विजः
वेदों में कहा हुआ और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो आचरण है वही सर्वश्रेष्ठ धर्म है इसीलिए आत्मोन्नति चाहने वाले को चाहिए कि वह इस श्रेष्ठाचरण में सदा निरन्तर प्रयत्नशील रहे  
आचारः परमो धर्म ,आचारः परमं तपः।
आचारः परमं ज्ञानम्, आचरात् किं न साध्यते |
"धर्म क्या हैं?" धर्म मनुष्य को जीवन पथ पर निरंतर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। "आचारपरमो धर्म:" अर्थात् 
आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। नैतिक मूल्यों के सिद्धांतों पर जीवन यापन करना ही धर्म हैं। परन्तुवर्तमान परिपेक्ष में
नैतिकता पर चलते हुए जीवन किस तरह जिया जाएये एक बड़ी चुनौती है। ऐसी परिस्थति में, हमें बहुत सोच-विचार के हर कदम बढाना होगा और काँटों से बचते हुए अपनी राह बनानी होगी। जो अपने मार्ग से भटक गए हो, उन्हें राह दिखाना भी हमारा कर्तव्य है।
महात्मा गाँधी के अनुसार,"जहाँ धर्म नहींवहां विद्यालक्ष्मीस्वास्थ्य आदि का भी अभाव होता है। धर्मरहित स्थिति में बिलकुल 
शुष्कता होती हैशून्यता होती है।" धर्म के द्वारा मनुष्य अपने जीवन को सही ढंग से व्यतीत कर सकता है। हर 
व्यक्ति के समक्ष दो रास्ते होते हैधर्म या अधर्मये उस पर निर्भर करता है कि वह कौन सा रास्ता चुन कर ज़िन्दगी
 में आगे बढ़ता है। धर्म का रास्ता चुनने परवो कर्तव्य के मार्ग पर अडिग होकर सफलता के पथ पर अग्रसर होता है। वही अधर्म का रास्ता चुनने परव्यक्ति कर्तव्य से विमुख होकर पशुत्व की ओर बढ़ता चला जाता है और अपने मार्ग से पूरी तरह से भटक जाता है। अतः हर मनुष्य को पुरुषार्थ के पथ पर अग्रसर होकर धर्मवत् जीवन व्यतीत करना चाहिए।
           
हमारे वेदों में कहा गया हैं सदाचरण सबसे बड़ा कोई धर्म नहीं है, सदाचरण सबसे बड़ा तप है
सदाचरण सबसे बड़ा ज्ञान है, सदाचरण से कोइ एसे वस्तु नहीं जो प्राप्त ना किया जा सके है|

आचरण का महत्व
स्वामी दयानंद की दृष्टि में मनुष्य का आचरण सर्वापरि था। मुरादाबाद प्रवास के समय की घटना है। साहू श्यामसुन्दर जो मुरादाबाद का धनाढ्य मगर ढीले चरित्र का व्यक्ति था ने स्वामी जी को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। स्वामी जी ने उसके निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। इतने में एक सज्जन व्यक्ति ने स्वामी जी को अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया। जिसे स्वामी जी ने स्वीकार कर दिया। साहू श्यामसुन्दर ने इस भेदभाव का कारण जानना चाहा। स्वामी जी ने कुछ भी उत्तर दिया। बाद में व्याख्यान में स्वामी जी साहू श्यामसुन्दर को सम्बोधित करते हुए बोले "जब तक आप अपना आचरण नहीं सुधारेंगे, मैं कभी आपके घर नहीं जाऊँगा।"व्याख्यान 
सुनने वालो पर इस घटना का व्यापक प्रभाव हुआ।
मानव जीवन में सद्व्यवहार और सदाचरण का बहुत बड़ा महत्व है। व्यवहार की मृदुता और आचरण की शुचिता से सिर्फ व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास होता है बल्कि मानसिक शांति भी मिलती है।
सामाजिक प्राणी होने के नाते मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह सामाजिक नियमों का पालन करे। सामने वाले व्यक्ति से ऐसा व्यवहार करे जिससे अपनत्व की भावना जागृत हो। हम जैसा व्यवहार दूसरे के साथ करेंगे, वैसा ही व्यवहार दूसरा भी हमारे साथ करेगा।
दूसरे से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा करने से पहले हमें उसके साथ अच्छा व्यवहार करना चाहिए। जीवन रूपी गाड़ी को बिना बाधाओं के चलाते रहने में सद्व्यवहार महती भूमिका निभाता है। व्यवहार तथा आचरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक आचरण शुद्ध नहीं होगा, तब तक व्यक्ति में सद्व्यवहार का गुण विकसित नहीं होगा। सच बोलना, चोरी करना, किसी को दुख देना, बड़ों का सम्मान करना तथा नैतिक मूल्यों की रक्षा करना जैसी सारी बातें आचरण की शुचिता में आती हैं।
स्वयं के परिश्रम से तथा भगवान की कृपा से धन-दौलत कमाना और जितना मिले उसी में संतोष करना शुद्ध आचरण की पहचान है। यदि आचरण शुद्ध हो तो व्यवहार स्वतः सुधर जाता है। व्यवहार तथा आचरण को हमारे पारिवारिक संस्कार तथा सामाजिक व्यवस्थाएँ प्रभावित करते हैं।
हम जैसे समाज में पलते-बढ़ते हैं वैसे ही बन जाते हैं।

आचरण से हमारा व्यवहार प्रभावित होता है तो व्यवहार से सामाजिक प्रतिष्ठा। अच्छे व्यवहार तथा अच्छे आचरण से अद्भुत-असीम सुख प्राप्त होने के साथ-साथ आनंद की अनुभूति भी होती है। सद्व्यवहार और सदाचरण से ही मानव जीवन सार्थक होता है। इन्हीं से मानवता जन्म लेती है।
व्यक्ति के जीवन में आचरण का विशेष महत्व है। श्रेष्ठ आचरण से व्यक्ति का बहुमुखी विकास होता है। अच्छा इंसान बनने के साथ-साथ वह भगवद् प्राप्ति की तरफ अग्रसर हो सकता है। मानव योनि में जन्म मिलना भी तभी संभव होता है जब परमात्मा की अनंत कृपा होती है। इसे व्यर्थ नहीं गंवाएं। खाली हाथ मनुष्य इस संसार में आता है और रोता बिलखता, खाली हाथ ही चला भी जाता है। उसका सारा ताना-बाना यहीं रखा का रखा रह जाता है।
पापों की गठरी इतनी भारी हो जाती है कि एक दिन जब काल सामने होता है तो उसके पास पश्चाताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता है। इसलिए समय रहते ही अपने आचरण को ठीक करने के लिए सद्गुणों को बढ़ाने का प्रयास करें ताकि इस संसार से विदा होने के बाद भी लोग सूरदास, तुलसी, कबीर और मीरा की तरह आपको याद करें। बुद्ध, नानक और महावीर आज अपने सद्कर्र्मो की वजह से आज भी अमर हैं। इन सबने सबसे पहले अपने अंदर सदाचरण का बीज बोया। अपने आचार-विचार को ठीक किया और साबित कर दिया कि सदाचरण के सहारे व्यक्ति जीवन में ऊंचाई की तरफ सहज ही अग्रसर हो सकता है। समय कभी रुकता नहीं है और मृत्यु अटल ै। इसलिए अपने इस अमूल्य जीवन की सार्थकता को समङों। जो सदाचारी है वह ईमानदारी और मेहनत से कमाई करता है। ध्यान रहे, यह शरीर एक मंदिर है। इसलिए इसे बुरे व्यसनों से बचाते हुए इसकी देख-रेख बढ़िया ढंग से करें। यह शरीर मानव सेवा और समाज सेवा में लगा रहे, इसके लिए अस्वास्थ्यकर पदार्थो का सेवन कर इसे बर्बाद करें।
जो विवेकी लोग होते हैं, वे अपनी शक्ति और धन को भले कार्यो में लगाते हैं। माना कि इस संसार में व्यक्ति को अपना जीवन आनंदपूर्वक जीना चाहिए, प्रकृति प्रदत्त सुख-सुविधाओं का लाभ भी उठाना चाहिए। लेकिन भूलकर भी जीवन में कुत्सित विचारों और विषय-वासनाओं को पनपने नहीं देना चाहिए। जो जीवन को धैर्य और संयम के साथ जीते हैं और जिनके विचार और चिंतन शुभ होते हैं वे एक एक दिन परमात्मा की शरण में पहुंच जाते हैं। जो भी सत्ता, संपत्ति, सत्कार जीवन में मिलता है, उसे देने वाला एक एक दिन जरूर वापस ले लेता है। इससे दुखी नहीं होना चाहिए।
ऐसा इसलिए, क्योंकि यही अंतिम सत्य है। यदि कुछ रह जाता है तो आपके किए हुए शुभ कर्म और आपका सदाचरण। जिसका आचरण जितना अच्छा है, वह परमात्मा के उतना ही करीब है।
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